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1942 : किसने पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराया?

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1942 : किसने पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराया?

 शहीद स्मारक 

जिंदा इतिहास जिज्ञासा जगाता है। प्रेरणा देता है। वस्तुतः जिज्ञासा जगाने और प्रेरणा देने वाला इतिहास ही जिंदा होता है। इतिहास ‘कल्पना’ जगाता है लेकिन खुद में कल्पना नहीं होता। वह तिथियों-तथ्यों और घटनाओं में उस सच को व्यक्त करता है, जो घटित हुआ। लेकिन हर घटित न इतिहास बन पाता है और न जिंदा होता है। इसलिए इतिहास जिंदा ‘रहता’ नहीं, उसको ‘जिंदा रखना’ भी पड़ता है। जो समाज इतिहास को जिंदा रखने के दायित्व का निर्वाह करता है, वह उसके प्रत्येक बीते क्षण को संजोता है, जोड़ता है और सुरक्षित रखता है। किसी क्षण को ‘मिस’ नहीं होने देता, उसे खोने-बिखरने नहीं देता। क्षणों की किसी कड़ी को ‘अदृश्य’ नहीं छोड़ता। इस मायने में समाज अपने इतिहास के जीवंत क्षणों को यूं गूंथता और सुरक्षित रखता है, जो हर वर्तमान और भविष्य की जिज्ञासा शांत करे और उन्हें निरन्तर प्रेरणा के स्रोत बनाये। कहने का आशय यह कि जिंदा इतिहास जिज्ञासा जगाता है और जिज्ञासा शांत कर इतिहास को जिंदा रखने का दायित्व समाज पर होता है।


इस आलोक-छाया में खड़े होकर आपने कभी पटना के शहीद स्मारक से विधानमंडल सचिवालय को देखा है? आपने सचिवालय के पूर्वी गेट पर निर्मित शहीद स्मारक देखा होगा। कई बार आप वहां से गुजरे-गुजरते होंगे। विभिन्न अवसरों पर वहां श्रद्धा-सुमन अर्पित किये होंगे। इस स्मारक पर उन सात बिहारी नवयुवक शहीदों की कांस्य प्रतिमाएं हैं, जो 11 अगस्त, 1942 को पटना सचिवालय पर राष्ट्रध्वज फहराने के प्रयास में ब्रिटिश हुकूमत की गोलियों के शिकार हुए। प्रतिमाएं इतनी जीवंत और गतिशील नजर आती हैं कि किसी को भी थमने और इतिहास के उस क्षण को याद करने को विवश करती हैं, जब पूरे बिहार ने ‘करो या मरो’ के क्रांति मार्ग पर चलकर ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी।लेकिन उस याद के क्रम में आपको अक्सर इस सवाल ने कुरेदा होगा कि 11 अगस्त, 1942 के दिन किसने पटना सचिवालय पर तिरंगा झंडा फहराया?

आठवां क्रांतिकारी : ज़िंदा शहीद 
सवाल के दृश्यगत जवाब के लिए आपकी आंखें अनायास सचिवालय के गुंबद की ओर उठती होंगी, लेकिन अनुत्तरित होकर शहीद स्मारक पर आकर टिक जाती होंगी। और तो और, शहीद स्मारक और सचिवालय के बीच का फासला जिस तरह से दो-दो दीवारों में विभाजित है, उसी तरह बिहार के ‘आजादी के इतिहास’ में उक्त सवाल का जवाब आज भी अटकलों एवं अनुमानों में विभाजित है। आजादी के पचास साल बाद भी 11 अगस्त, 1942 की घटना को ‘मुकम्मिल’ रूप में पेश करने और भावी पीढि़यों के लिए प्रेरणा-स्रोत बनाने का प्रयास अधूरा है। बिहार की नयी पीढ़ी तो क्या, पुरानी पीढ़ी को भी यह ठीक-ठीक मालूम नहीं और मालूम हो भी तो उसकी प्रामाणिकता संदेह से मुक्त नहीं कि सचिवालय पर किस क्रांतिकारी ने झंडा फहराया? स्कूल-कालेज की किताबों में भी यह सवाल अनुत्तरित है। बिहार के अभिलेखागार और इतिहासकार भी इसके प्रति उदासीन हैं। बिहार के सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग की ‘बिहार पत्रिका’ के सांस्कृतिक विरासत विशेषांक (1998) में दर्ज श्री जियालाल आर्य के लेख से यह उदासीनता और मुखर होती है, जिसमें सात शहीद युवा महानायकों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हुए कहा गया है – ‘एक के बाद एक कर के सात नौनिहालों ने अपनी जान की कुर्बानी देते हुए अंततः सचिवालय पर तिरंगा लहरा दिया।’ हालांकि इतिहास में प्रामाणिक रूप से यह दर्ज है कि वे सात नौनिहाल तिरंगा फहराने के लिए सचिवालय गेट से आगे बढ़ने का प्रयास करते हुए शहीद हुए। तो वह आठवां क्रांतिकारी कौन था, जिसने सचिवालय के गुंबद पर चढ़कर झंडा फहरा दिया?
इसका जवाब टुकड़ों-टुकड़ों में स्वतंत्रता सेनानियों की प्रकाशित-अप्रकाशित यादों में बिखरा हुआ है। इस सिलसिले में उस वक्त विधान मंडल विभाग के अवधायक (केयर टेकर) राजनंदन ठाकुर का ‘आंखों देखा हाल’ (बिहार सरकार, राजनीति विभाग द्वारा 2 सितम्बर, 1948 को अभिप्रमाणित दस्तावेज, ज्ञापांक-3086 भी) उक्त अनुत्तरित ‘क्षण’ का महत्वपूर्ण गवाह बन सकता है।

 आंखों देखा हाल
राजनंदन ठाकुर 1942 में बिहार विधान मंडल के तीन खंडों (ब्लाक) की सुरक्षा एवं व्यवस्था के प्रभारी थे। उत्तरी खंड जिसमें आज विधान परिषद और उसका कार्यालय है, उस वक्त ब्रिटिश सेना के पूर्वी कमांड का हेड क्वार्टर था। कमांड के सभी उच्च अधिकारियों का दफ्तर उसी खंड में था। वह खंड चारों ओर कंटीले तारों से घिरा था। मुख्य द्वार से सिर्फ एक व्यक्ति के आने-जाने लायक रास्ता खुला था। वहां भी एक दरबान तैनात रहता था।

11 अगस्त, 1942 को विधानमंडल भवन के सामने सचिवालय के पूर्वी फाटक पर बेहद तनाव का माहौल था। अहाते के भीतर अफसरों की चहल-पहल किसी युद्ध-पूर्व की तैयारियों का संकेत दे रही थी। लोहे का विशाल फाटक बंद था। बगल वाले छोटे फाटक में भी ताला लगा दिया गया था। फाटक के अन्दर और बाहर बड़ी संख्या में लाठीधारी पुलिस के जवान तैनात थे। बाहर बड़ी संख्या में घुड़सवार पुलिस भी आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी थी। भीतर का पूरा परिसर अंग्रेज और भारतीय अफसरों से भरा था। अंग्रेज अफसरों में मिस्टर डब्लू. जी. आर्चर (कलक्टर), मिस्टर क्रीड(डी.आई.जी.) और मिस्टर स्मिथ (सचिवालय सार्जेन्ट मेजर) ब्रिटिश हुकूमत की ‘नाक’ बचाने के लिए व्यूह-रचना करने में मशगूल थे। उनके साथ भारतीय अफसर उदित नारायण पांडेय (एस.डी.ओ.), विश्वम्भर चौधरी (डिप्टी कलक्टर) और अली बशीर (डी.एस.पी.) भी थे। परिषद खंड के आगे बंदूकधारी गोरखा पुलिस की टुकड़ी सज-धजकर खड़ी थी।

दोपहर दो बजते-बजते छात्रों-युवाओं का विशाल जुलूस फाटक तक पहुंच गया। वे फाटक के बाहर अर्द्धचन्द्राकार रूप में फैलकर नारे लगाने लगे – ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’, ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’, ….‘हम सचिवालय पर झंडा फहरायेंगे।’ जुलूस आगे बढ़ा और ब्रिटिश हुकूमत एक्शन में आ गयी। फाटक के बाहर तैनात घुड़सवार पुलिस के घोड़े दौड़ पड़े जुलूस को रौंदने। पुलिस के घोड़े प्रदर्शनकारियों को खदेड़कर दक्षिण में मुख्य रेलवे लाइन और उत्तर में दीघा लाइन के पार करा देते। इस बीच जो आता, उसे रौंद देते। जुलूस फिर-फिर लौटता। उन्मुक्त घुड़सवारों को सबक सिखाने के लिए जुलूस के कई हाथों से पत्थर उछाले जाने लगे। इसी बीच एक पुलिस घुड़सवार का मुरेठा गिर गया। प्रदर्शनकारियों ने उसे उठा लिया और आग लगाकर डंडे के सहारे उसे उछाल दिया। फिर क्या था! पुलिस क्रोध में अंधी हो गयी। लाठीचार्ज और घोड़ों से प्रदर्शनकारियों को कुचलने का भीषण दौर शुरू हुआ। इसके बावजूद प्रदर्शनकारी छात्र-युवा अडिग थे। उन्होंने फाटक के दक्षिण वाले पाये पर झंडा फहरा दिया। तमाम प्रहारों के बावजूद सब समवेत स्वर में एक ही संकल्प दोहरा रहे थे – ‘हम सचिवालय पर झंडा फहरायेंगे।’

इधर घोड़े और लाठी के प्रहारों के बावजूद प्रदर्शनकारियों के बुलंद होते हौसले ने अंदर उत्तरी खंड के सेना हेड क्वार्टर में बैठे हथियारबंद अफसरों में हलचल पैदा कर दी। वे अगले एक्शन के लिए सर्तक हो गये। अचानक फाटक के बाहर प्रदर्शनकारी तालियां पीटने लगे। सबकी नजरें विधान मंडल भवन के उत्तरी खंड के कंगूरे पर थी। वहां खादी के एक हाफ कमीज में पिरोया-सा तिरंगा लहरा रहा था। ब्रिटिश अधिकारी सन्न रह गये। भारतीय अधिकारियों को आदेश दिया गया – ‘सचिवालय का कोना-कोना छान मारो।’
इधर सचिवालय के ऊपर झंडा फहराने वाले की तलाश शुरू हुई और उधर मिस्टर क्रीड पश्चिम की ओर से साइकिल पर चढ़कर आया और पूर्वी फाटक के पास खड़े मिस्टर आर्चर के हाथ में कोई कागज थमाया। फिर क्या था? ‘फॉल इन’ का आदेश हुआ और गोरखा सिपाही बंदूक लेकर मुख्य द्वार की ओर दौड़ पड़े। द्वार के उत्तर में पोजीशन ली। फिर तड़-तड़ गोलियां चलने लगीं प्रदर्शकारियों पर। प्रदर्शनकारी सीधे अपने सीने पर गोलियां झेलने लगे। गोलियों की बारिश और बुलंद नारों के बीच ही अंदर अहाते में एक युवक ब्रिटिश अफसरों के बीच पहुंच गया। उसे सचिवालय के दरबान पलटू राम ने खोज निकाला था। राजनंदन ठाकुर और सेना के कर्नल चिमनी (भारतीय) ने उस युवक से पूछा – ‘तुमने ऊपर झंडा फहराया?’ युवक ने पूरे जोश और साहस के साथ जवाब दिया – ‘जी हां, मैंने ही उसे फहराया है।’
 रामकृष्ण सिंह
उस युवक का सिर मुड़ा हुआ था। वह एक धोती पहने और शरीर पर भी लपेटे हुए था। उस युवक ने अपना परिचय दिया – ‘नाम रामकृष्ण सिंह, घर मोकामा, पटना कॉलेज में आनर्स का विद्यार्थी। उस युवक ने पूछताछ कर रहे भारतीय अफसरों को अंग्रेजी में धिक्कारना शुरू किया – ‘आप लोगों को शर्म नहीं आती कि विदेशियों की सेवा कर रहे हैं? उन विदेशियों को, जो सात समुंदर पार से आकर हमारे देश पर हुकूमत चला रहे हैं?’

लेकिन तब तक सचिवालय पर तिरंगा झंडा लहराते देख अपने सिर को नीचे करने को विवश ब्रिटिश हुकूमत प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोली बरसाकर अपनी ‘हार’ का इजहार कर चुकी थी। उस वक्त शाम का करीब साढ़े चार बज रहा था। मुख्य फाटक पर सैकड़ों घायल पड़े थे। सात छात्र शहीद हो चुके थे। राजनंदन ठाकुर के अनुसार उसी वक्त एक डिप्टी कलक्टर संभवतः विश्वम्भर चौधरी, रामकृष्ण सिंह को कैम्प जेल की गाड़ी पर बिठा चुके थे।
उसके बाद तो 11 अगस्त की रात पूरे बिहार में ‘अगस्त क्रांति’ की ऐसी लहर उठी कि पटना सहित कई जिले इसकी लपट में आ गये। सड़कें कटे पेड़ों से पट गयीं। टेलीफोन के तार ढेर के ढेर काट डाले गये। पटना शहर में गाडि़यों का आवागमन ठप हो गया। उस रात पटना सहित पूरे बिहार में सड़कों पर सिर्फ जुलूस और दो नारों का कब्जा था – ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’, ‘करो या मरो।’
इतिहास में इतना ही दर्ज है। फिर रामकृष्ण सिंह कहां गया? उसके साथ ब्रिटिश हुकूमत ने क्या सुलूक किया? इसके बारे में आजादी के 50 साल बाद भी किसी ने प्रामाणिक जानकारी नहीं दी। चंद लोगों की स्मृतियों में वह जानकारी जिन्दा होगी, लेकिन बिहार या देश की नयी पीढ़ी आज भी अंधेरे में है, जबकि पूरे देश के साथ बिहार आजादी का स्वर्ण जयंती समारोह मना रहा है।
यूं इसकी संक्षिप्त सूचना बिहार सरकार (राजनीति विभाग) के 2 सितम्बर, 1948 के प्रमाण-पत्र में है। वह जिला मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर से रामकृष्ण सिंह, सब डिप्टी कलेक्टर के हजारीबाग से सीवान तबादला करने के सिलसिले में जारी आदेश का हिस्सा है। उसमें दर्ज है कि रामकृष्ण सिंह (पिता-खांड़ो सिंह, ग्राम-मोकामा, शंकरवार टोला, जिला-पटना) 11 अगस्त, 1942 को सचिवालय में गिरफ्तार हुए। वह उस समय पटना कालेज के छात्र थे। 11 अगस्त, 1942 को गिरफ्तार रामकृष्ण सिंह को फुलवारी कैम्प जेल ले जाते वक्त विद्रोहियों की भीड़ ने पुलिस की एस्कॉर्ट पार्टी पर हमला किया। उस युवक को छुड़ा लिया। उसकी तलाश में पुलिस ने उसके घर की कुर्की-जब्ती की। वह युवक दोबारा 29 नवम्बर, 1942 में पकड़ा गया। नौ महीने तक विचारधीन कैदी के रूप में जेल में बंद रहा। और, अंततः सेक्शन 225 बी, आई.पी.सी. के तहत उसे सजा हुई। चार महीने का सश्रम कारावास।

 36 साल ज़िंदा रहकर भी मौन साधा! 
उसके बाद? अगस्त क्रांति के 56 साल बाद भी बिहार ने उस ‘युवक’ की सुध नहीं ली। उसने आजाद भारत में करीब 36 साल जिन्दा रहकर भी कभी किसी के सामने खुलकर यह कहना उचित नहीं समझा कि उसने ही सचिवालय पर झंडा फहराया! वह हर साल सचिवालय के शहीद स्थल पर माथा टेकता। अपने संगी-साथी शहीदों की याद करता। संभवतः मन ही मन कहता – ‘तुम शहीद होकर मौन हो गये। मैं तुम्हारा साथी हूं। इसलिए मैं जिंदा रहकर भी मौन साधूंगा।’ (उसकी कविताओं का संकेत यही है)
अगस्त क्रांति के वीर युवक रामकृष्ण सिंह के बारे में अब तक कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इतिहासकारों ने न खोज की और न शोध किया। अगर कोई इस दिशा में आगे बढ़े तो उसको यह जानकारी अवश्य उदास करेगी कि रामकृष्ण सिंह का निधन 26 जनवरी, 1984 को हुआ। वह दिसम्बर, 1947 में सरकारी नौकरी में आये। अप्रैल, 1983 में योजना विभाग के संयुक्त सचिव के पद से अवकाश ग्रहण किया। 1970 तक उनके घर में चरखा चलता था। उससे निकले धागे से ही पूरे घर के कपड़े बनते-सिलते थे। खुद अंत तक खादी के कपड़े पहनते रहे।सरकारी विभाग में रहते हुए उन्होंने आजादी के बाद के बिहार और उसके विकास की दिशा को नजदीक से देखा। जो देखा, उसके प्रति अपनी ओर से कोई टिप्पणी नहीं की। अपने ‘मौन’ से ही सब स्पष्ट कर दिया।
(स्रोत-सन्दर्भ : 8 अगस्त, 1998 में प्रकाशित आलेख ‘शहीद स्मारक’)

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