महाराष्ट्रा में BJP की चुनौती और शिव सेना के लिए अवसर
सिटी पोस्ट लाइव : एक तरफ हरियाणा में बीजेपी ने जेजेपी के साथ गठबंधन कर सरकार बनाने की कुंजी अपने हक में कर लिया है तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र में सत्ता की चाभी हासिल करने में उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. गठबंधन की सरकार बनाने को लेकर बीजेपी और शिवसेना गठबंधन के बीच रस्साकशी होती दिख रही है.
विधानसभा चुनाव के परिणाम आए लगभग 80 घंटे हो चुके हैं लेकिन अब तक वहां सरकार के गठन को लेकर बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की तरफ से कोई अधिकारिक बयान नहीं आए हैं.बीते दो दिनों के घटनाक्रम भी वहां की तस्वीर स्पष्ट करते नज़र नहीं आ रहे हैं.
दरअसल 2019 के विधानसभा चुनाव नतीजों ने न केवल बीजेपी के स्पष्ट बहुमत की आस पर पानी फेर दिया बल्कि इसके उलट उनकी सीटें 2014 के मुक़ाबले कम ही हो गईं.288 विधानसभा सीटों वाले महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को कुल 161 सीटें मिलीं. बीजेपी को 105 और शिवसेना को 56 सीटें मिली हैं. गठबंधन को बहुमत तो मिल गया है लेकिन इन्हें कुल मिलाकर 24 सीटों का नुकसान हुआ है.
अगर इन दोनों पार्टियों को हुए सीटों के नुकसान को अलग अलग कर देखें तो इन 24 सीटों के नुकसान में बीजेपी का हिस्सा 17 सीटों यानी 25.75 फ़ीसदी बैठता है. दूसरी तरफ शिवसेना की भी 7 सीटें घटी हैं लेकिन उसे बीजेपी से कहीं कम यानी 16.4 फ़ीसदी का नुकसान हुआ है.दूसरी तरफ, कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन के विधायकों की संख्या 99 पहुंच गई और उन्हें 16 सीटों का लाभ हुआ है. यहां भी 54 सीटों के साथ शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी राज्य की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है.नतीजों के बाद अब स्थिति यह है कि नए विधानसभा में शिवसेना के साथ-साथ विपक्ष के रूप में एनसीपी का मनोबल भी बढ़ा हुआ है.
सबसे पहले तो 24 अक्तूबर को आए नतीजों के अगले ही दिन शिवसेना के मुखपत्र सामना में बीजेपी पर निशाना साधता हुआ संपादकीय लिखा गया. जिसमें लिखा गया कि “अब सत्ता की धौंस नहीं चलेगी.”उसमें शरद पवार की एनसीपी की तारीफ की गई. लिखा गया कि “ऐसा माहौल बनाया गया कि शरद पवार में कुछ नहीं बचेगा लेकिन सबसे बड़ी छलांग तो राष्ट्रवादी पार्टी ने लगाई और उनका आंकड़ा 50 के पार पहुंच गया. बीजेपी 122 से 102 पर आ गई.”
फिर सामना के एडिटर संजय राउत ने अपने ट्विटर हैंडल पर एक कार्टून शेयर किया जिसमें एक बाघ (शिवसेना पार्टी का चिह्न) के हाथ में कमल (बीजेपी का पार्टी चिह्न) का फूल और उसके गले में एक लॉकेट से होती हुए एक घड़ी (एनसीपी का चुनावी चिह्न) लटकी दिख रही है.इस कार्टून ने भी सरकार बनने के समीकरणों को लेकर कौतूहल पैदा किए कि क्या इस कार्टून के जरिए शिवसेना बीजेपी को यह संदेश देना चाहती है कि उसके पास एनसीपी का समर्थन है और कमल के हाथ में होने का मतलब यह तो नहीं कि बदले हुए नए समीकरण में सत्ता की कुंजी उसके (शिवसेना के) हाथ में है.
फिर इसके अगले दिन यानी शनिवार को शिवसेना की तरफ से बीजेपी को 50-50 के फॉर्मूले की याद दिलाई गई.शनिवार को महाराष्ट्र के नवनिर्वाचित विधायक प्रताप सरनाइक ने उद्धव ठाकरे के निवास से बाहर निकलकर पत्रकारों से कहा कि लोकसभा चुनाव से पहले शिवसेना और बीजेपी के बीच 50-50 फॉर्मूले पर बात तय हुई थी इस पर लिखित आश्वासन के बाद ही बीजेपी-शिवसेना की गठबंधन सरकार बनेगी.उन्होंने कहा, “मुख्यमंत्री फडणवीस ने चुनाव से पहले 50-50 का फॉर्मूला दिया. लेकिन कुछ कारण से 144-144 सीटों पर बंटवारा नहीं हो पाया. भारतीय जनता पार्टी को उद्धव ठाकरे को लिखित रूप में देना चाहिए कि दोनों दल का मुख्यमंत्री ढाई ढ़ाई साल रहेगा.
लेकिन अब पिछली बार से परिदृश्य अलग है. बीजेपी की ही तरह शिवसेना के विधायकों की संख्या में भी कमी आई है. इसके बावजूद उनकी इतनी सीटें कम नहीं हुई जितनी कि बीजेपी की तो वह दबाव की राजनीति करने की स्थिति में आ गई है.”2014 से 2019 तक जिस तरह शिवसेना को दबाया गया है उस तरह की राजनीति अब हो नहीं सकती क्योंकि बीजेपी अपने बल बूते पर सरकार नहीं बना सकती है. जो नंबर आए हैं उसमें निर्दलीय को लेकर भी सरकार नहीं बना सकती. तो यह बीजेपी की राजनीतिक मजबूरी है.ऐसी स्थिति में शिवसेना इसका बड़ा लाभ उठा सकती है.
मुख्यमंत्री का पद की मांग के साथ साथ शिव सेना होम, शहरी विकास, रेवेन्यू और पीडब्ल्यूडी जैसे पावरफुल पोर्टफोलियो की मांग कर सकती है. पिछली सरकार में उन्हें ट्रांसपोर्ट, पॉल्यूशन कंट्रोल जैसे ही कुछ राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो ही मिले थे. इस बार ऐसा नहीं हो सकेगा. उन्हें पावरफुल पोर्टफोलियो देने होंगे.”बीते पांच साल के कार्यकाल के दौरान बीजेपी और शिवसेना के बीच कई विषयों पर मतभेद तो दिखे लेकिन पोर्टफोलियो को लेकर खुल कर कोई बात सामने नहीं आई. शिवसेना ने कभी खुल कर नहीं कहा था कि उन्हें अमुक पोर्टफोलियो चाहिए. लेकिन इस बार स्थिति थोड़ी अलग है.”
उम्मीदों के मुताबिक नतीजे नहीं आने से बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं.”बीजेपी मुख्यमंत्री पद पर नहीं मानी तो शिवसेना गृह मंत्रालय मांगेगी. इस पर निश्चित ही बातचीत होगी. कुल मिलाकर इस बार बीजेपी की मुश्किलें बढ़ गई हैं.आरे पेड़ कटाई मामले में शिवसेना ने खुलकर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का विरोध किया था.फडणवीस के मुख्यमंत्री रहने के दौरान शिवसेना सरकार में ज़रूर थी लेकिन कई मामलों पर उसने विपक्ष के जैसा ही बरताव किया.
प्याज के न्यूनतम भाव हों या आरे के इलाके में पेड़ जो काटे गए उस पर और सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि किसानों की आत्महत्या को लेकर शिवसेना ने उन पर बहुत गंभीर टीका टिप्पणी की. कई मसलों पर उनके झगड़े होते रहे और होते रहेंगे. चुनाव के बाद शिवसेना के मुखपत्र सामना में सबसे अधिक शरद पवार को महत्व दिया गया है.”फडणवीस के सामने आगे मुश्किलें बहुत हैं वो बतौर मुख्यमंत्री अपनी पहली पारी में बहुत मजबूत थे लेकिन अपनी दूसरी पारी में वे उतने नहीं रह जाएंगे.”बीजेपी में अपनी ताक़त दिखाते हुए फडणवीस ने चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे के समय शिवसेना की सीटें कम कर दी थीं. 1990 से दोनों पार्टी साथ चुनाव लड़ रही हैं. लेकिन इतनी कम सीटें दोनों को कभी नहीं मिली. लेकिन चुनाव में आए नतीजों से यह समीकरण अब बदल गया है.”पिछले पांच साल के कार्यकाल के दौरान फडणवीस को मराठा आरक्षण को लेकर उग्र प्रदर्शन का सामना करना पड़ा. उन्होंने मराठाओं को संतुष्ट करने के लिए उन्हें आरक्षण तो दे दिया लेकिन अब उनके आगे उन्हें नौकरी देने की चुनौती होगी.
किसानों को लेकर भी चुनौती का सामना करना पड़ेगा. बड़े स्तर पर कर्ज़ माफ़ी की योजनाएं चलाई गईं लेकिन मीडिया में ये रिपोर्ट आती रहीं कि बहुत से किसानों तक इसका फायदा नहीं पहुंचा.”प्याज उत्पादकों में भी सरकार को लेकर कई शिकायतें हैं. इसके अलावा धनगर समुदाय के आरक्षण का मुद्दा भी होगा. 2014 के चुनाव से पहले फडणवीस ने धनगरों से इसे लेकर वादा किया था लेकिन पांच साल के दौरान उस पर कुछ ठोस फ़ैसला नहीं हो सका. ये एक बड़ी चुनौती होगी.”
शरद पवार ने कहा है कि वो पांच साल संघर्ष की राजनीति करेंगे. उन्होंने कहा कि बीते कुछ वर्षों में युवाओं से जो जुड़ाव कम हुआ था वो इस चुनाव कि वजह से बढ़ा है.उन्होंने कहा कि ग्रामीण और शहरी युवाओं के मसलों को लेकर जो अलग अलग सवाल है उसे लेकर संघर्ष करना जारी रखेंगे.एक स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए एक मज़बूत सरकार के सामने एक मजबूत विपक्ष का होना ज़रूरी है. तो महाराष्ट्र में कुछ ऐसी ही संभावनाएं दिख रही हैं कि इस बार विपक्ष सिर्फ नाम के लिए नहीं होगा.
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