City Post Live
NEWS 24x7

NDA और महागठबंधन: फिर दांव-पेंच में फंस गई बिहार की राजनीति?

-sponsored-

-sponsored-

- Sponsored -

NDA और महागठबंधन: फिर दांव-पेंच में फंस गई बिहार की राजनीति?

सिटी पोस्ट लाइव :  लोकसभा चुनाव के बाद बिहार में एनडीए और महागठबंधन दोनों के बीच जबरदस्त घमाशान चल रहा है. पूरे चुनाव अभियान में एक दूसरे का हाथ थामे दिख रही दोनों गठबंधन की पार्टियां इस समय एक दूसरे के सर पर ठीकरा फोड़ रही हैं. इस प्रचंड जीत का श्रेय नीतीश कुमार अकेले मोदी को देने को तैयार नहीं हैं. उनका कहना है कि ये जीत किसी पार्टी या व्यक्ति की नहीं बल्कि जनता की जीत है.सबसे ख़ास बात ये है कि नीतीश कुमार इस जीत का श्रेय मोदी को देने को तैयार नहीं वहीँ एलजेपी के नेता चिराग पासवान भी इस जीत का श्रेय अकेला मोदी को देने को तैयार नहीं हैं. वो कहते हैं कि जीत के पीछे नीतीश कुमार का भी बहुत बड़ा योगदान है.

दरअसल, सभी दलों की नजर अब 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव पर है. सभी पार्टियां इस मंथन में जुट गई है कि किसका हित किसके साथ जाने और रहने पर सधेगा.महागठबंधन में शामिल हम पार्टी के नेता जीतन राम मांझी नीतीश कुमार के इफ्तार में गए. आरजेडी के बड़े नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने एक बार फिर नीतीश कुमार को साथ लाने का बयान दे दिया. सबसे बड़ा सवाल यह है कि बीजेपी और जेडीयू के बीच एक साथ रहने के बाद भी तल्खी क्यों दिख रही है. अगर तल्खी नहीं होती तो 2 जून को बीजेपी और जेडीयू की ओर आयोजित सियासी इफ्तार से दोनों पार्टी के नेता दूरी क्यों बनाते? इस तल्खी को छुपाने की कोशिश भी जारी है. एलजेपी की ईफ्तार पार्टी में बीजेपी-जेडीयू दोनों दलों के नेता साथ साथ दिखे जरुर लेकिन एक नहीं दिखे. हालांकि चिराग पासवान बीजेपी-जेडीयू के बीच सिमेंटिंग का काम करने का दावा जरुर कर रहे हैं.

जाहिर है बिहार की राजनीति में एकबार फिर से बदलाव का संकेत मिल रहा है. लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद ऐसा लगा कि महागठबंधन में तूफान तो आएगा वहीँ एनडीए में ऑल इज वेल होगा. लेकिन मोदी मंत्रिमंडल में सांकेतिक भागीदारी ने इस दोस्ती में अघोषित दरार पैदा कर दी. उसका नतीजा यह था कि जेडीयू ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने से इनकार किया तो बिहार में नीतीश कुमार के ऑफर के बाद भी बीजेपी ने भी मंत्रिमंडल विस्तार में शामिल होने से फिलहाल इनकार कर दिया. जबकि दो मंत्री बीजेपी की ओर से बनाने का स्कोप है.हालांकि इस मामले पर बीजेपी-जेडीयू दोनों ही दलों के नेता सफाई देते नजर आ रहे हैं.

दोनों ही पार्टियां भले ही ऑल इज वेल कह रही हों, सरकारी बैठकों और कार्यक्रमों में नीतीश कुमार और सुशील मोदी साथ साथ दिख रहे हो लेकिन सबकुछ पहले की तरह स्वभाविक नहीं है. 2 जून को सुशील मोदी और जेडीयू की ओर से इफ्तार का आयोजन हुआ लेकिन दोनों ही दलों ने एक दूसरे के इस सियासी इफ्तार से दूरी बना ली. दोनों ही पार्टियों की ओर से कोई नेता एक दूसरे के इस आयोजन में नजर नहीं आया.सबसे दिलचस्प पहलू यह था कि जेडीयू के इफ्तार में हाल के दिनों में उनके धुर विरोधी बने हम के नेता जीतनराम मांझी ने शिरकत की. सियासी गलियारों में इसे नीतीश कुमार का बीजेपी को दिए जा रहे एक संकेत के रूप में देखा जा रहा है. राजनीति में इस तरह का हर कदम कुछ न कुछ संदेश जरूर देता है.

ऐसे में माना यह जा रहा है कि दिल्ली से लौटने के बाद नीतीश कुमार का तल्ख बयान, आनन फानन में मंत्रिमंडल विस्तार और इस तरह के आयोजन से दूरी के जरिए नीतीश कुमार शायद यह संदेश भी देने की कोशिश में हैं कि 2020 की चुनावी लड़ाई गठबंधन की नहीं बल्कि वे अपनी शर्तों के आधार पर लड़ेंगे.

गठबंधन का मकड़जाल इस समय महागठबंधन में भी जबरदस्त है. हार के बाद कांग्रेस ने आरजेडी से बड़ी दूरी बना ली है. हार की समीक्षा करने के लिए महागठबंधन की बैठक में कांग्रेस की ओर से कोई नहीं गया. कुछ नेताओं ने तो तेजस्वी के फैसलों और उनके नेतृत्व पर भी सवाल खड़े कर दिए. तेजस्वी पिछले कई दिनों से दिल्ली में हैं. उन्होंने कांग्रेस के आलाकमान सहित राहुल गांधी से मुलाकात करने की कोशिश की, लेकिन सूत्रों के अनुसार अभी तक किसी भी बड़े नेता ने उनसे मुलाकात नहीं की है.

कहा तो यह भी जा रहा कि कांग्रेस अब आरजेडी से अलग राह चुनने की तैयारी में है. कुछ ऐसी ही सोच हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा यानी हम के नेता जीतनराम मांझी का है. उन्होंने तो दो टूक शब्दों में बयान दे दिया कि तेजस्वी महागठबंधन का चेहरा नहीं हैं. विधानसभा चुनाव में महागठबंधन का चेहरा कौन होगा, यह चुनाव से पहले तय होगा.इतना ही नहीं बल्कि आरजेडी के नेता रघुबंश प्रसाद सिंह भी तेजस्वी यादव के नेत्रित्व पर सवाल उठा रहे हैं. उनका कहना है कि अगर नीतीश कुमार साथ होते और लालू यादव बाहर तो चुनाव का नतीजा कुछ और ही होता. इस बीच जीतनराम मांझी ने जेडीयू के इफ्तार में जाकर सबको चौंका दिया. एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि हार के बाद आरजेडी और कांग्रेस की ओर से बीजेपी पर हमले तो किए गए लेकिन नीतीश कुमार के प्रति नरम रवैया रहा. उस नरम रवैया का ही परिणाम है कि रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता फिर से मान रहे हैं कि बीजेपी को विधानसभा चुनाव में हराना है तो नीतीश कुमार को साथ में लाना होगा.

कुल मिलाकर बिहार की राजनीति एकबार फिर से दोराहे पर है. जहां से कौन किस रास्ते किससे हाथ मिला ले, कहना मुश्किल है. लेकिन इतना तो जरूर है कि जो परिस्थितियां दिख रही है, उसमें आने वाले दिनों में अगर फिर से 2014-15 की तरह कोई भूचाल देखने को मिले तो सिटी पोस्ट टीम को कोई आश्चर्य नहीं होगा.

-sponsored-

- Sponsored -

-sponsored-

Comments are closed.