विश्व परिवार दिवस : औंधे मुंह गिरा पड़ा है परिवार, संयुक्त परिवार के दिन कब के लद गए
सिटी पोस्ट लाइव : सभ्यता और संस्कृति के उद्द्भव काल से ही भारतीय समाज, विश्व को जीवन जीने की महानतम शैली से साक्षात्कार कराता रहा है। हमारे पौराणिक और आध्यात्मिक ग्रन्थों में जीवन के उत्कृष्ट भावों को समेटकर वृति स्पंदन के तरीके उल्लेखित हैं। विश्व का पहला देश भारत है,जहां परिवार शब्द की ना केवल उत्पत्ति हुई बल्कि परिवार की व्यापकता को स्वीकार कर, जीवन के हर रस को परखकर जीवन जीने की कला को अभूतपूर्व तरीके से विकसित भी किया गया। भारत सदियों से नैतिक, मौलिक, नैसर्गिक,पारदर्शी, मूल्यसंचित, परस्पर सहकार और सहयोगी विधाओं का झंडादार रहा है। लेकिन आधुनिकता के नाम पर विदेशी संस्कृति का वरण और उसके संवर्धन से हमारी सामाजिक कसौटी और मानक के चिथड़े उड़े हैं।
भारत ने परिवार के महात्म्य की बुनियाद रखी है ।एक समय था जब भारत में संयुक्त परिवार, एक बेमिशाल सामाजिक व्यवस्था थी लेकिन बदलते परिवेश और भौतिकवादी तृष्णा ने संयुक्त परिवार की जड़े हिला कर रख दीं और फिर एकल परिवार का जन्म हुआ। हद की इंतहा तो यह है कि विश्व को ज्ञान और संस्कारों के पाठ पढ़ाने वाले भारत को, आज अपने ही महान गुणों की कब्र पर खड़े होने को विवश होना पड़ा है। 15 मई 1994 को संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने परिवार दिवस मनाने की शुरुआत की, जो विश्व के लिए नजीर बन गया। विश्व में विखंडित हो रहे परिवार को एकीकृत कर, उसकी महत्ता को पुनः काबिज करने और परिवार जीवन जीने की मजबूत पद्धति है, इसकी व्यापकता को लोगों को समझाना, इस दिवस का मकसद है। परिवार को हम दो तरह से जानते हैं।पहला संयुक्त परिवार और दूसरा एकल परिवार।
संयुक्त परिवार का मतलब है, ऐसा परिवार जिसमें दादा-दादी, परदादा-परदादी, चाचा-चाची, माँ-बाप, भाई-बहन से लेकर कई अन्य पारिवारिक रिश्तेदारों का पूरा कुनबा,जो एक साथ रहकर जीवन यापन करते हैं। संयुक्त परिवार में रिश्तों की गर्माहट होती है और हर रिश्तेदार अपने रिश्ते की जिम्मेवारी को समझकर,रिश्ते को ना केवल जीते हैं बल्कि एक दूसरे की ताकत और सम्बल भी साबित होते हैं। संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि घर के बुजुर्गों को असहाय और यतीम होने की नौबत नहीं आती है ।बुजुर्गों की सेवा और उनका सम्मान बेहतरीन तरीके से होता है। संयुक्त परिवार में बच्चों पर बड़ों की नजर रहती है और घर में ही अनुशासन की एक बड़ी पाठशाला होती है। घर की बच्चियों पर संस्कारों का अलग से कवच होता है। घर में आजादी होती है लेकिन स्वच्छंदता के दायरे होते हैं। कुल मिलाकर संयुक्त परिवार के भीतर जीवन जीने की हर कला पर विचार और विमर्श के लिए भी बड़ी जगह होती है।
दुःख और सुख की घड़ी में एक हाथ दूसरे हाथ के काम काम आते हैं। बड़ी से बड़ी मुसीबत को सामूहिक हिम्मत से लड़ने की गुंजाईश होती है। शादी-विवाह जैसे मौके पर आपसी मदद से चार चांद लग जाते हैं। संयुक्त परिवार में प्रेम, प्यार, मिल्लत, भाईचारा,
सहयोग, सहकार के साथ-साथ अनन्य रिश्तों की मिठास और मर्म पलते हैं। लेकिन एकल परिवार में पति-पत्नी और बच्चे भर सिमटे होते हैं जिन्हें परिवार के विराट स्वरूप से कभी साक्षात्कार ही नहीं कराया जाता है ।एकल परिवार में घर के बुजुर्गों के साथ कतिपय न्याय नहीं होता है ।घर के बुजुर्ग सड़कों की खाक छानते हैं,या फिर अपने बुढ़ापे को कोसते हुए किसी वृद्धा आश्रम की शरण लेते हैं ।परिवार के इस विघटन का सबसे अधिक क्षोभ, दुःख और अफसोस भारतीय संस्कृति को है लेकिन इस गम्भीर मसले पर महाप्रयास संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने किए हैं ।
संयुक्त परिवार के टूटने से,जो त्रासदी और विकृति आयी है,उससे सबसे पहले बुजुर्गों ने अपना अर्थ और अहमियत खोकर,असीम दर्द को आत्मसात किया ।बुजर्ग सीलन, चुभन और टीस के साथ सड़कों के मुसाफिर बनकर रह गए ।अमेरिका ने 15 मई 1994 को विश्व परिवार दिवस मनाने की शुरुआत की जिसका मकसद था कि संयुक्त परिवार के वृहत्तर वजूद को फिर से शक्ल और साँचा दिया जा सके ।संयुक्त परिवार में बुजुर्गों के साथ-साथ बच्चों को भी आजादी का अलग भान होता है ।संयुक्त परिवार के टूटने और बिखड़ने की त्रासदी झेल रहे लोगों के लिए यह दिवस बहुत महत्वपूर्ण है ।साधारण लहजे में भी यह समझा जा सकता है कि 20 से 25 लोगों का एक परिवार,एक दूसरे के बीच किस तरीके से खुशियां बांटता होगा और दुःख के माहौल से निकलने के लिए किस तरह से सामूहिक प्रयास होते होंगे ।
बढ़ती जरूरतें और उसे पूरा करने की जिम्मेवारी के साथ-साथ एकल संकुचित सोच ने एकल परिवार की पटकथा लिखी है ।एकल परिवार के उद्द्भव से जहां बुढ़ापा काँपा है वहीँ बच्चों की आजादी और बालमन को भी आघात लगा है ।संयुक्त परिवार में खुशी और निश्चिंतता की दरिया बहती है लेकिन एकल परिवार में विचार भी संकुचित होकर,व्यक्तित्व और उपयोगिता को कटघरे में खड़े करता है ।संयुक्त परिवार में जो दुःख झेलने का साहस होता है, वह एकल परिवार में दूर-दूर तक नहीं दिखता है ।एकल परिवार ने नौनिहालों को भी सामाजिक सरोकारों से जुड़े आयोजन और उनकी मौलिक मनोदशा को भी छीना है ।आज के मृग तृष्णा और भौतिकवादी झंझावत के बीच बढ़ती हुई मंहगाई ने संयुक्त परिवार की जरूरत को,फिर से काबिज करने की कोशिश की है ।विवाह संस्था आज भी संयुक्त समाज का मूल बीज है लेकिन इसे पुनः संजोने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं ।
ईंट-गाड़े से बने मकान में परिवार नहीं पलते हैं ।उतरी हुई मानसिकता और जीवन की अल्प समझ ने एकल परिवार को जन्म दिया है ।सामूहिक समझ,प्यार,शांति, मिठास और एक दूसरे के प्रति जबाबदार बनना,संयुक्त परिवार में ही सम्भव है ।हर तरह की जटिलता का समाधान दस जन बैठकर निसन्देह निकाल लेंगे लेकिन एकल प्रयास जटिलता निवारण की जगह और परेशानियां ही खड़ी कर देता है ।देश में बढ़ती हुई जनसंख्यां के बीच,लोग बेहतर नीति बनाने में असफल हैं ।विवाह संस्था के जरिये संयुक्त परिवार के उद्द्भव और उसे वृहत्तर शक्ल देने की संभावना प्रबल होती है लेकिन वैवाहिक अनुष्ठान के बाद घर आई स्त्री एकल परिवार को जन्म देने वाली,अविवेकी और घृणित नारी साबित हो जाती है ।
संयुक्त परिवार के विगठन में सबसे बड़ा योगदान नारियों का रहता है ।जबकि संस्कारों से प्रतिबद्ध इकाई परिवार का हर सदस्य होता है । संस्कारों से प्रतिबद्ध संबंधों की संगठनात्कम इकाई उस परिवार का एक-एक सदस्य है ।हर सदस्य का दुःख और सुख एक दूसरे को छूता है ।प्रियता-अप्रियता के भावों से मन प्रभावित होता है ।जीवन के झंझावत और उहापोहों के बीच रात में परिवार के सभी सदस्य एक जगह एकत्रित होते हैं ।जीवन विभिन्य तरह की कशमकश में गतिमान रहती है ।भाग्य,पुरुषार्थ और कृत्यों का संघर्ष चलता रहता है ।हर व्यक्ति की कोशिश एक घर और परिवार बनाने की होती है ।सही मायने में परिवार,वह जगह है जहां प्रेम,प्यार,सौहार्द,स्नेह,सहयोग,
सुख,दुःख की साझेदारी और जीवन मूल्यों को जीने की समझ होती है ।परिवार ऐसी जगह है,जहाँ एक दूसरे को समझने और परिस्थितिवश कुछ भी बर्दाश्त किये जाते हैं ।यहाँ अनुशासन के साथ,रचनात्मक स्वतंत्रता है ।निष्ठा के साथ निर्णय के अधिकार हैं ।यहाँ बचपन सरस सम्बंध में पलता है और युवकत्व सापेक्ष जीवनशैली को जीता है ।बुजुर्ग का अनुभव,परिवार के सारथी का रूप ले लेता है । संयुक्त परिवार पर आज आधुनिकता की धूंध काबिज हो गयी है ।परिवार दरक रहा है और टूट रहा है ।इससे साहस,शक्ति, धैर्य,श्रद्धा और विश्वास भी टूट रहे हैं ।परिवार वह जगह है,जहाँ पुरुषार्थ से भाग्य बदलने के प्रयत्न किये जाते हैं । भारतीय समाज में परिवार का होना बेहद आत्मीय है ।आज टूटते हुए किसी परिवार के वातायन और झरोखे से देखें तो,दुःख,चिंता,कलह,ईष्या,घृणा, द्वेष,पक्षपात,विवाद,विरोध और विद्रोह फन काढ़े मिलते हैं ।
जाहिर तौर पर पर,अपनेपन के बीच परायेपन के अहसास भरे हुए हैं ।यही मतभेद धीरे-धीरे मनभेद में तब्दील हो जाते हैं ।आज बिखड़ते परिवार को समेटने और सहेजने की जरूरत है ।बिना परिवार के आदमजात के औचित्य और उसकी प्रासंगिकता पर विराट प्रश्न खड़े हो जाएंगे । आखिर में यह जोड़ना भी बेहद जरूरी है कि जब से भारत में संयुक्त परिवार का विघटन हुआ, तभी से तथाकथित सारे पारिवारिक रिश्तों ने अपने अर्थ खो दिए ।मर्यादा गिरी और रिश्तों के मेड़ धराशायी हो गए ।
रिश्तों में घुन्न लगे और आधुनिकता के नाम पर पारिवारिक रिश्ते के बीच भी सैक्स पनपा और पवित्र रिश्ते के बीच सहवास और काम क्रीड़ा होने लगे ।आंतरिक प्रेम और निष्ठा की जगह रिश्ते जिश्म पर दौड़ने लगे ।एक बड़ा सच है उल्लेखित कर रहा हूँ ।हमारे पाठकों इसे सहेज कर रखना ।विज्ञान ने इंसान को मशीन बना दिया है ।विज्ञान का उत्कर्ष और चरमोत्कर्ष,यानि विज्ञान आदमजात पर जितना हावी होगा,इंसान के नैतिक,सामाजिक और सांसारिक मूल्यों का क्षरण और विलोपन होगा ।विज्ञान ने ही संयुक्त परिवार को तोड़ने और रिश्तों को घुन्न लगाने में अग्रणी और महती भूमिका निभाई है ।
पीटीएन न्यूज मीडिया ग्रुप के सीनियर एडिटर मुकेश कुमार सिंह का “विशेष आलेख”
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