एक दूसरे के दर्द का मरहम बनें ‘मांझी’ तेजप्रताप! ये रिश्ता क्या कहलाता है?
सिटी पोस्ट लाइवः बिहार के पूर्व सीएम जीतन राम मांझी और पूर्व स्वास्थ्यमंत्री तेजप्रताप यादव की बढ़ती नजदीकियों ने बिहार की सियासत के केन्द्र एक सवाल को लाकर खड़ा कर दिया है कि आखिर ये रिश्ता क्या कहलाता है। पहले दो घटनाओं से समझिए कि नजदीकियां और दोस्ती कैसे बढ़ रही है तेजप्रताप यादव ओर पूर्व सीएम मांझी के बीच। पहली घटना कल रात की है जब तेजप्रताप यादव अचानक पूर्व सीएम जीतन राम मांझी के घर पहंुच जाते हैं। एक घंटे तक दोनों नेताओं की मुलाकात होती है और मुलाकात के बाद तेजप्रताप यादव का यह बयान सामने आता है कि वे चाचा मांझी के घर पर चाय पीने आए थे। अचानक मुलाकात अचरज नहीं पैदा करती क्योंकि तेजप्रताप बहुत कुछ अचानक कर जाते हैं लेकिन तेजप्रताप यादव बेमतलब बहुत कुछ करते हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। राजनीति में हर मुलाकात के मायने होते हैं और आज के दौर में सियासत में मजबूती से खुद को स्थापित करने के लिए तेजप्रताप यादव जिस तरह तमाम कवायदों में जुटे हैं, उससे लगता नहीं कि तेजप्रताप यादव बेमतलब या सिर्फ चाय पीने पूर्व सीएम मांझी के घर पहुंचे थे। दूसरी घटना इस बात को और पुख्ता करती है कि तेजप्रताप यादव यूं हीं नहीं पूर्व सीएम मांझी से मिलने पहुंचे थे बल्कि इस मुलाकात के भी अपने राजनीतिक मायने हैं।
दूसरा मामला मनेर का है जहां बहन मीसा भारती के समर्थन में तेजप्रताप रोड शो करने वाले हैं। इस रोड शो में पूर्व सीएम सह हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतन राम मंाझी भी तेजप्रताप के साथ होंगे। दो बातें बहुत दिलचस्प है। पहली बात तो यह कि कल तेजप्रताप यादव मांझी से मिलते हैं और आज दोनों के साथ रोड शो की प्लानिंग? जेहन में यह सवाल भी उभरता है कि पहले कब तेजप्रताप और मांझी ने एकसाथ मिलकर कोई रोड शो किया है, और अगर नहीं किया है तो जाहिर है ये रिश्ता कुछ तो कहलाता है। दूसरी दिलचस्प बात यह है कि मीसा भारती पाटलीपुत्रा सीट से राजद की उम्मीदवार होंगी यह न तो तेजस्वी यादव ने आधिकारिक रूप से कहा है और न हीं राजद के उन नेताओं की ओर से कुछ कहा गया है जो पार्टी में निर्णय लेने की हैसियत रखते हैं। सवाल यह है कि फिर क्या पार्टी लाइन से बाहर जाकर तेजप्रताप यादव मीसा भारती के पक्ष में रोड शेा करने पहुंचे हैं और ‘मांझी’ को भी साथ लिया है। तेजप्रताप पहले हीं यह स्पष्ट कर चुके हंै कि पाटलीपुत्रा सीट मीसा दीदी की है और पूर्व में तो वे भाई विरेन्द्र को उनकी हैसियत भी बता चुके हैं। तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि पार्टी में अपन हैसियत को मजबूती से स्थापित करने के लिए छटपटा रहे तेजप्रताप यादव ने अपनी कोशिशों में अब तेजप्रताप ने पूर्व सीएम मांझी को भी साथ ले लिया है। दूसरी तरफ राजनीतिक हैसियत घटने और सीटों के बंटवारे में न्यूनतम हिस्सेदारी मिलने को लेकर आशंकित पूर्व सीएम जीतन राम मांझी ने भी क्या तेजप्रताप यादव को अपनी जरूरतों का हथियार बनाया है।
आपको बता दें कि तेजप्रताप यादव और जीतन राम मांझी दोनों का अपना-अपना दर्द है और ऐसा लगता है कि दोनों एक दूसरे के दर्द का मरहम बने हैं। तेजप्रताप यादव राजनीति में पूरी तरह से एक्टिव हैं उनकी राजनीतिक सक्रियता इस हद तक है कि राजनीतिक यात्राओं, जनता दरबार से लेकर यू-टयूब चैनल तक कोशिशें तेजप्रताप यादव ने हर मोर्चे पर की है ताकि सियासत में अपनी साख को स्थापित की जा सके और लालू की तरह रियल किंगमेकर बन सकें लेकिन उनकी राह में कई दुश्वारियां है और दुश्वारियों का जिक्र खुद तेजप्रताप यादव कई मौकों पर करते रहे हैं। पार्टी का कोई बड़ा नेता उनके साथ खड़े होने से कतराता है। उनके कार्यक्रमों में पार्टी से जुड़े बड़े नेताओं की भागीदारी कम हीं नजर आती है। जो जनता दरबार तेजप्रताप की राजनीतिक कोशिशों के लिए आॅक्सीजन साबित हो रहा था और जिसकी चर्चा तेजी से हो रही थी उसे रोज करने की बजाय सप्ताह के एक-दो दिनों में सीमित करने की सलाह दे दी जाती है। इसका खुलासा खुद तेजप्रताप यादव कर चुके हैं और सलाह देने वाले पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रामचदं्र पूर्वे से पूछ भी चुके हैं कि क्या एक दो दिन के जनता दरबार से लोगों की समस्याएं दूर कर दी जाएगी। एक बार नहीं कई बार तेजप्रताप यादव का दर्द बाहर आया है। पार्टी के अन्दर उनकी साख और उनके रसूख के आड़े आने वाले रामचंद्र पूर्वे से कई बार उनकी भिड़त हुई है और तेजप्रताप-पूर्वे का टकराव कई बार खुलकर सामने आया है।
तो ऐसे दर्द से जुझते तेजप्रताप ने क्या मांझी को अपना मरहम बनाया है और क्या मांझी भी सियासत में अपनी घटती राजनीतिक हैसियत से बेचैन मांझी ने भी तेजप्रताप यादव को अपनी बेचैनी की दवा समझा है। बिहार की राजनीति के लिहाज से आज यह सवाल बेहद वाजिब हो गया है कि तेजप्रताप-‘मांझी’ की यारी किस पर भारी पड़ेगी। कहीं मुश्किलें महागठबंधन की तो नहीं बढ़ जाएगी? देखना होगा यह दोस्ती क्या रंग लाती है और दोस्ती के इस रंग में बिहार की राजनीति का रंग कितना बदलता है क्योंकि ये दोस्ती दो ऐसे लोगों की दोस्ती है जिसमें एक के बारे में यह कहा जाता है अपनी हीं पार्टी में उपेक्षा का दंश झेलते रहे हैं, पार्टी के बड़े नेता उतनी तरजीह नहीं देते और ऐसी उपेक्षा सालती रही है जबकि दूसरे बिहार की कमान संभाल चुके हैं, बड़े दलित नेता माने जाते हैं बावजूद इसके सहयोगी उनकी इस राजनीतिक हैसियत के हिसाब से हिस्सेदारी देनें को तैयार नहीं है। सियासत की जमीन लगातार छोटी होती जा रही है।
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