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अक्तूबर, 1947 की 2 तारीख, गांधीजी का अंतिम जन्मदिवस

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अंतिम जन्मदिवस

अक्तूबर, 1947 की 2 तारीख गांधीजी का जन्म-दिवस उनके जीवनकाल में मनाया जाने वाला अंतिम जन्म-दिवस था। सुबह भोर होते ही कई लोग उनका अभिवादन करने आ गये।उनमें से एक ने कहा – “बापूजी, हम अपने जन्म दिन पर अन्य लोगों से चरण छूकर आशीर्वाद ग्रहण करते हैं, लेकिन आपके मामले में बात इसके बिल्कुल विपरीत होती है। क्या यह उचित है?”

गांधीजी हंसकर बोले – “महात्माओं के तरीके भिन्न होते हैं। इसमें मेरा कोई दोष नहीं। आपने मुझे महात्मा बना दिया, भले ही मैं नकली महाˆत्मा होऊं, इसलिए आप लोगों को सजा तो भुगतनी पड़ेगी।” [“The ways of Mahatmas are different! It is not my fault. You made me Mahatma, maybe a bogus one; so you must pay the penalty!”]

उन्होंने अपना जन्म-दिन हमेशा की तरह उपवास, प्रार्थना और विशेष कताई करके  मनाया। उन्होंने बताया कि उपवास आत्म-शुद्धि के लिए है और कताई द्वारा मैं ईश्वरीय सृष्टि के सबसे दीन-हीन लोगों की सेवा में जीवन अर्पण करने के अपने प्रण को दोहराता हूं। मैंने अपने जन्म-दिवस समारोह को चरखे के पुनर्जन्म के समारोह के रूप में परिवर्तित कर दिया है। चरखा अहिंसा का द्योतक है। वह प्रतीक समाप्त हो गया मालूम पड़ता है। मगर इस आशा से कि शायद चरखे के सं‹देश के प्रति निष्ठावान कुछ थोड़े से लोग जहां-जहां हो सकते हैं, मैंने यह आयोजन बंद नहीं किया। और इन्हीं लोगों की खातिर चरखा-जयं‹ती का आयोजन आगे जारी रखने दिया।

सुबह साढ़े आठ बजे स्नान के बाद जब वे अपने कमरे में प्रविष्ट हुए, तो वहां कुछ अ‹तरंग साथी उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इन लोगों में पंडित नेहरू, सरदार पटेल, गांधीजी के मेजबान घनश्यामदास बिड़ला और दिल्ली स्थित बिड़ला परिवार के समस्त सदस्यगण शामिल थे। मीरा बहन ने गांधीजी के आसन के सामने रंग-बिरंगे फूलों से कलापूर्ण ‘क्रॉस’, ‘हे राम’ और ‘ऊं’ लिखकर खूबसूरत से सजाया था। एक संक्षिप्त प्रार्थना हुई, जिसमें सबने भाग लिया। उसके बाद उनका एक प्रिय अंग्रेजी भजन ‘When I survey the wondrous Cross” गाया गया। साथ ही उनका एक और प्रिय हि‹दी भजन  ‘हे गोविं‹द राखो शरण’ का भी गायन हुआ।

सारे दिन गांधीजी को अपनी श्रद्धांजलि अर्प‡ण करने के लिए आगं‹तुकों एवं मि˜त्रों का तांता लगा रहा। इसी प्रकार राजदूतावासों के प्रतिनिधिग‡ण भी आये, उनमें से कुछ अपनी सरकार की ओर से गांधीजी के लिए शुभकामना-सं‹देश लेकर आये। अंत में लेडी माउंटबैटन अपने साथ गांधीजी के लिए लिखे गये पत्रों और तारों का पुलिंदा लेकर आईं।

गांधीजी ने सब लोगों से अनुरोध किया : आप इस बात की प्रार्थना करें कि ईश्वर या तो इस दावानल को शांत कर दे अथवा मुझे उठा ले। मैं कतई नहीं चाहता कि भारत में मेरा एक और जन्म दिन होने पाये।”

वे सरदार से बोले : “मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था कि जो ईश्वर ने मुझे इस सारे संत्रास का साक्षी बनने के लिए जीवित छोड़ रखा है?” [What sin must I have committed that He should have kept me alive to witness all these horrors?]

अपने आसपास हो रहे अग्निदाह (conflagration) के बीच वे विवशता की भावना से जकड़े नजर आते थे। सरदार की पु˜त्री मणिबहन ने उस दिन अपनी पत्रिका में दुख प्रकट करते हुए लिखा : “उनकी व्यथा असह्य थी। हम लोग उनके पास उत्साह के साथ गये थे, मगर बोझिल हृदय लेकर ƒघर लौटे।”

मुलाकातियों के चले जाने के बाद उ‹न्हें खांसी का एक और दौरा आया। वे बड़बड़ाते हुए बोले – “यदि प्रभुनाम की सर्वरोगहर प्रभावकारी शक्ति मुझमें व्याप्त नहीं हो जाती, तो मैं इस अस्थिपंजर को त्याग देना अधिक पसं‹द करूंगा। एक भाई द्वारा दूसरे भाई की हत्या का सिलसिला जारी देखकर मेरी 125 वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा पूर्णतया जाती रही है। मैं इन हत्याओं का विवश साक्षी बनकर नहीं रहना चाहता…।”

“तो 125 वर्षों से आप शून्य पर पहुंच गये हैं। किसी ने बीच में पूछा। [“So from 125 years you have come down to zero,” someone put in.]

“हां, जब तक यह दावानल शांत नहीं हो जाता…।” [Yes, unless the conflagration ceases…]

आकाशवा‡णी पर गांधीजी का जन्म दिन मनाने के लिए एक विशेष कार्यक्रम प्रसारित करने का आयोजन किया गया था। गांधीजी से पूछा गया – “क्या आप अपवाद-स्वरूप सिर्फ एक बार रेडियो का विशेष कार्यक्रम नहीं सुनेंगे?”

गांधीजी ने कहा – “नहीं, मुझे रेडियो के बजाय रेंटियों (चरखा) ज्यादा पसं‹द है। चरखे की गुनगुनाहट अधिक मधुर है। उसमें मुझे मानवता का निस्तब्ध विषादपूर्ण संगीत सुनाई देता है।”

गांधीजी ने विश्व के सभी भागों से उनके जन्मदिन पर आये बधाई सं‹देशों, तारों और पत्रों को प्रकाशनार्थ जारी करने से इनकार कर दिया।

मुसलमान मि˜त्रों से भी उन्हें अनेक आकर्षक सं‹देश प्राप्त हुए थे, लेकिन गांधीजी ने महसूस किया कि जब आम जनता में सत्य और अहिंसा के प्रति, कम-से-कम फिलहाल, अविश्वास नजर आता है तो यह वक्त इन पत्रों को प्रकाशित करने का नहीं है।

[महात्मा गांधी :— द लास्ट फेज़ (अंग्रेजी), खंड 2, पृ. 456-58 (Mahatma Gandhi—The Last Phase, Vol. II, pp. 456-58)]

 ‘फिनिक्स’ गांधी या ‘भूत’ गांधी!

आज देश में ‘गांधी’ की चर्चा छिड़ते ही उनकी दो तरह की तस्वीरें उभरती हैं। ये दो तस्वीरें एक दूसरे के रू-ब-रू रखी जाएं तो उनमें से एक में गांधी एक प्राचीन लोककथा के मिथकीय पक्षी लगेंगे और दूसरे में प्राचीन लोककथा के ‘भूत’ जैसे।

पहली लोककथा

पहली लोककथा है यूनान की, जिसमें ‘फिनिक्स’ नाम के पक्षी का उल्लेख है। इस कथा के मुताबिक, फिनिक्स पक्षी पवित्रता, बलिदान-निष्ठा और अमरता का प्रतीक है। उस कथा के अनुसार फिनिक्स पक्षी संसार में एक ही होता है, उसका जोड़ा नहीं होता। जब समय आता है तब वह अपनी देह को अपनी आंतरिक ज्वाला से भस्म कर लेता है। पूरी तरह भस्म हो जाने के बाद उसी राख से वह पुनः उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार वह सदैव अमर रहता है। यानी जो गांधी आया था और सत्याग्रह का प्रयोग कर गया, वह फिनिक्स पक्षी का पर्याय था?

आज से करीब 115 साल पहले की बात है। उस समय गांधीजी की उम्र थी 37 वर्ष। उन्होंने डरबन से 14 मील दूर फिनिक्स नगर के पास एक फार्म खरीदा था। उस वक्त वे जोहान्सबर्ग में वकालत कर रहे थे। इसके साथ उन्होंने डरबन से ‘इंडियन ओपीनियन’ नामक साप्ताहिक पत्र शुरू कर दिया था। एक दिन पत्रिका से संबंधित कुछ कठिनाई को डरबन में ही निबटाने के लिए जोहान्सबर्ग से चले तो उन्हें स्टेशन पहुंचाने आये उनके नये मित्र हेनरी एस. पोलक नामक नवयुवक ने लम्बे सफर में पढ़ने के लिए जॉन रस्किन की एक पुस्तक दी – ‘अन्टू दिस लास्ट।’ जोहान्सबर्ग से गाड़ी छूटते ही उन्होंने इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया और रात भर पढ़ते रहे। पढ़ते-पढ़ते उनको महसूस हुआ कि यह पुस्तक रक्त और आंसुओं से लिखी गयी है। सुबह डरबन में उतरते ही गांधी के जीवन की धारा बदल गयी। उन्होंने पुस्तक के आदर्शों के अनुसार अपना जीवन बनाने का निश्चय कर लिया। सो उन्होंने कुछ ही दिनों में एक फार्म की जमीन खरीदी। फिनिक्स स्टेशन से पैदल ढाई घंटे के रास्ते में स्थित जंगल के अदंर। वहां रहने के लिए लकड़ी के घर बनाए। फर्म को ‘आश्रम’ का रूप दिया गया। जल्द ही वहां ‘इंडियन ओपीनियन’ का छापाखाना और दफ्तर ले आया गया। वकालत के साथ पत्रिका के संपादन के लिए गांधी खुद तो जोहान्सबर्ग से फिनिक्स आते-जाते थे लेकिन फिनिक्स आश्रम में महीनों रहकर उनका सहयोग करनेवालों में प्रमुख सहयोगी थे – हेनरी एस. पोलक, जोहान्सबर्ग का एक अत्यंत धनी शिल्पकार हर्मन कैलैनबैक, और स्कॉटलैंड से आई युवती सोन्या श्लेसिन।

दक्षिण अफ्रीका में अनायास प्राप्त हुए ‘फिनिक्स’ नाम से गांधीजी बहुत प्रसन्न हुए। आश्रम के नामकरण पर गांधी के मित्रों और सहयोगियों में काफी विमर्श हुआ। अंततः गांधी का यह प्रस्ताव मान्य हुआ कि आश्रम का नाम फिनिक्स (आश्रम) होगा। उनका कहना था – “फिनिक्स (आश्रम) नाम के सिवा और कुछ न रखना ही उचित है। फिनिक्स पक्षी अपनी राख में से ही फिर से पैदा होता है। मैं भी यही चाहता हूं। मेरा नाम भूला दिया जाय। मेरा काम रहे। जब नाम भूला दिया जाएगा, तभी काम रहेगा।” आश्रम का नाम ‘फिनिक्स’ रखा गया, और ‘इंडियन ओपीनियन’ का प्रकाशन वहां से शुरू हो गया। इसके साथ शुरू हुआ ‘आश्रम-जीवन’ जीने की शैली और तरीकों की खोज और प्रयोग।

यह तो नयी पीढ़ी शायद जानती है 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या हुई। 30 जनवरी, 1948 को प्रार्थना से पहले पांच छोटी सीढि़यां पार कर कुछ गज की दूरी के प्रार्थना-स्थान पर पहुंचने के पहले नाथू राम गोड्से ने प्रणाम करने की मुद्रा में झुककर छोटी सी पिस्तौल से उन पर तीन गोलियां दाग दी। तब गांधी के मुंह से शब्द निकला – ‘हे राम!’

नयी पीढी क्या यह भी जानती है कि 30 जनवरी, 1948 को गांधी पर हुआ हमला अंतिम हमला था? यानी उसके पहले उन पर आठ या नौ बार हमले हो चुके थे? 1934 को एक जानलेवा हमला से बचने के बाद गांधीजी ने खुद कहा था कि वे कुल सात बार मृत्यु के मुंह से सही-सलामत निकले हैं। मौत के मुंह में समाने और उससे सही-सलामत निकल आने की पुनर्जन्म जैसी वे घटनाएं गांधी नाम को प्राचीन लोककथा की मिथकीय पक्षी ‘फिनिक्स’ का पर्याय साबित करती हैं!

दूसरी लोककथा

दूसरी प्राचीन लोककथा – जो पूरे देश-दुनिया में प्रचलित है – कुछ यूं है – एक मृतात्मा कब्रिस्तान में दफन करने ले जायी गयी। लेकिन ताबूत को गड्ढे में उतारकर मिट्टी डालने की जिम्मेदारी कब्रिस्तान के रखवाले के कंधे पर डालकर उसके परिजन श्राद्ध की भव्य पार्टी का इंतजाम करने चले गये। उनके जाते ही थके-मांदे रखवाले ने पहले पेट भर दारू पी। वह नशे में धुत हो गया और शव पर पूरी तरह से मिट्टी डालना भूल गया। दूसरे दिन कुछ लोग एक और शव लेकर आये तो उन्होंने पाया कि रखवाला अधभरे गड्ढे के किनारे बेहोश पड़ा है। लोगों ने उसे जगाया तो रखवाले ने अपने बचाव के लिए कहा – “ताबूत से रात एक भूत निकला था। उसने मुझे मिट्टी भरने से रोक दिया। मैं उससे भिड़ा, लेकिन वह मुझे बेहोश कर फरार हो गया।”

भूत का नाम सुन लोग भयभीत हो उठे। तब उसने कहा – “घबराने की जरूरत नहीं। अभी वह भूत ताबूत में चला आया होगा। वह अंधेरा होने के बाद ही जगेगा। वह रोशनी में देख नहीं सकता। भूत तो अंधेरे में ही देख सकता है। आप लोग मदद कीजिए, मिट्टी डालिए कि जगने के पहले ही भूत ताबूत में दब जाय।”

लोगों ने झटपट कब्र को मिट्टी से भर दिया!

गांधीजी की 79 वर्ष की जीवन-यात्रा से सम्बद्ध ये सारे ‘तथ्य’ वे सब लोग जानते हैं, जिन्होंने गांधीजी को यह कहते देखा-सुना कि वे 125 वर्ष का ‘एक्टिव’ जीवन जीना चाहते थे और वह भी इस दावे के साथ कि वे इसे संभव कर दिखाएंगे। भारत की आजादी के दो दिन बाद गांधीजी ने एक लेख लिखा – “जिंदा दफनाया?”

वस्तुतः उस समय जब देश आजाद हो रहा था, तो एक पत्रकार ने अख़बार में लिखा – “गांधीजी के आदर्श तथा उनके मुताबिक आचरण के बल पर हिन्दुस्तान अपनी आज की स्थिति प्राप्त कर सका है। परन्तु हम जिस सीढ़ी की मदद से इतना ऊंचे चढ़ सके, उसे ही लात मार रहे हैं। क्या कांग्रेस के नेताओं ने गांधीजी को जिंदा ही दफना नहीं दिया?”

संभवतः इसीको ध्यान में रखकर गांधीजी ने “जिंदा दफनाया?” लेख लिखा।

अपने लेख में गांधी ने लिखा – “अभी मुझे जिंदा दफनाया नहीं है। सामान्य जनता ने मेरे आदर्शों में से श्रद्धा नहीं गंवाई है ; उस मान्यता पर मैं यह आशा कर रहा हूं। उन्होंने वह श्रद्धा गंवा दी है, ऐसा साबित होगा तब वह भारी संकट में आ जावेगी और तब मुझे जिंदा दफनाया गया है, ऐसा कहा जावेगा। परन्तु मेरी श्रद्धा की ज्योति तब तक जैसी की तैसी चमकती रहेगी। मुझे आशा है कि मैं अकेला रह जाऊं तो भी वह चमकती ही रहेगी – तब तक कब्र में पड़े हुए भी मैं जिंदा रहूंगा और विशेष तो यह कि मैं बोलता रहूंगा। मैं मरने के बाद भी अपनी श्रद्धा की घोषणा करता रहूंगा और कब्र से भी अपनी बात सुनाता रहूंगा।”

क्या नयी पीढी उक्त प्रकरण से अवगत है? आज भी हमारे देश में असंख्य लोगों के सम्मुख, उक्त प्रकरण सहित गांधी की जीवन-यात्रा से सम्बद्ध कई प्रकट घटनाओं से निसृत यह सवाल जिंदा खड़ा है – “तथ्यों के अंदर का सत्य क्या है? क्या हमने गांधी को प्राचीन लोककथा का भूत का पर्याय मान कर छोड़ दिया?

हत्या बनाम वध बनाम शहादत : सवाल कायम है

30 जनवरी, 1948 की शाम की दिल दहलानेवाली घटना को रोकना क्या सर्वथा असम्भव था?

भारत के तत्कालीन गृहमंत्री लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने मुम्बई के गृहमंत्री श्री मोरारजी देसाई को दस दिन पहले ही बताया था – “महात्मा गांधी की हत्या की जानेवाली है, यह खबर मुझे मेरे सूत्रों से पता चली है।” यानी हत्या की साजिश का पता सरदार पटेल को 15 दिन पहले ही लग गया था। उसके बाद 20 जनवरी, 1948 को गांधीजी की प्रार्थना-सभा में बम फटा। बम-विस्फोट करनेवाले मदनलाल पहवा को पुलिस ने हिरासत में लिया था। उसके बयान से हत्या की साजिश में शामिल व्यक्तियों के नाम मालूम हुए थे। उनका अता-पता भी मालूम हो गया था। परन्तु पुलिस उन्हें पकड़ न सकी। 30 जनवरी, 1948 की आजादी के बाद की घटना गांधीजी की जान लेने की साजिश की दूसरी कड़ी थी।

आजादी से पहले भारत में गांधी की हत्या के चार असफल प्रयास हुए। और उसके पहले दक्षिण अफ्रीका में तीन बार।

गांधीजी 1934 में अस्पृश्यता के विरोध में सारे देश में दौरा कर रहे थे। 19 जून, 1934 में वे पूना गये थे। 25 जून, 1934 को उन पर बम फेंका गया। उस जानलेवा हमला से बचने के बाद गांधीजी ने कहा – “ईश्वरकृपा से सात बार मृत्यु के मुँह से मैं सही-सलामत बचा हूँ।”

25 जून, 1934 को पुणे के नगरपालिका सभागृह में गांधीजी भाषण देने के लिए जा रहे थे, तब बम फेंका गया। उस विस्फोट में नगरपालिका के मुख्याधिकारी और दो पुलिस समेत सात लोग गम्भीर रूप से घायल हुए। गांधीजी पिछली मोटर में थे, इसलिए बच गये।

तेन्दूलकर लिखते हैं – “महात्मा गांधी इस हमले से बाल-बाल बचे।” प्यारेलाल ने लिखा – “हमलावरों की कृति पूरी तरह योजनाबद्ध थी।”

हमले के बाद अपने भाषण में गांधीजी ने कहा – “मैं हरिजन कार्य के लिए आया था। ऐसे समय इस तरह की घटना होना दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं शहीद बनना नहीं चाहता। पर अगर समय की यही मांग हो, तो उसके लिए भी मैं तैयार हूं। मेरी हत्या करना आसान है, पर इस प्रयास में निष्पाप लोगों की हत्या क्यों करते हो? मेरी गाड़ी में मेरी पत्नी और मेरी बेटी समान तीन लड़कियां थीं। उन्होंने आपका क्या बिगाड़ा है?”

सन् 1966-67 में गांधी-हत्या के षड्यंत्र की जांच के लिए न्यायमूर्ति जे. एल. कपूर की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया गया था। वैसे, कपूर आयोग से पहले गांधी-हत्या के षड्यंत्र की जांच के लिए कानूनविद् जी. एस. पाठक की अध्यक्षता में केन्द्र शासन ने 22 मार्च, 1954 को एक समिति नियुक्त की थी। लेकिन उसी महीने श्री पाठक को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। उसके पश्चात् वे उपराष्ट्रपति बने। इसलिए करीब दस साल बाद न्यायमूर्ति जे.एल. कपूर का एक सदस्यीय आयोग 21 नवम्बर, 1966 में नियुक्त किया गया। सर्वश्री जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, प्रो. जे. सी. जैन, पुलिस उपायुक्त जे. डी. नागरवाला, एवं अन्य वरिष्ठ अफसरों और नेताओं की गवाहियाँ ली गयीं। गोपाल गोडसे की गवाही इन-कैमरा हुई।

कपूर आयोग में गांधी पर हमले से जुड़ी ‘पंचगनी’ और ‘सेवाग्राम’ की घटनाओं की भी विस्तार जांच-पड़ताल हुई। आयोग ने पंचगनी और सेवाग्राम की घटनाओं को ‘सही’ नहीं माना। दोनों को ‘विवादित’ माना। पंचगनी की घटना 1944 की है। गांधीजी को मई, 1944 में जेल से रिहा किया गया था। उन्हें मलेरिया हो गया था। डॉक्टरी सलाह के अनुसार वह आराम करने के लिए पंचगनी गये। उस समय एक खास बस से 19-20 लोगों का एक दल पंचगनी पहुंचा। उसने दिन भर गांधी-विरोधी नारे लगाये। तब बातें करने के लिए गांधीजी ने ‘नाथूराम गोडसे’ को बुलाया। गोडसे ने मिलने से इनकार किया। शाम को गांधीजी की प्रार्थना शुरू हुई। तब नेहरू शर्ट, पाजामा और जाकिट पहने नाथूराम गोडसे गांधी-विरोधी नारे लगाता हुआ जाकिट की जेब से छुरा निकाल गांधीजी की ओर लपका। तब मणिशंकर पुरोहित और एक युवक ने उसे पकड़ा। वह युवक थे सतारा के भिल्लोर गुरुजी। प्रार्थनासभा में गड़बड़ मची, लेकिन गांधीजी शान्त थे। हमेशा की तरह प्रार्थनासभा हुई। गोडसे को छोड़ दिया गया। गांधीजी ने उसको सन्देशा भेजा कि मेरे साथ आठ दिन रहो, ताकि मैं तुम्हारे विचारों को समझ सकूँ। गोडसे ने इनकार किया।

गांधीजी पंचगनी में दिलखुश बंगले में रहते थे। वहां कांग्रेस स्वयंसेवकों ने सावधानी बरती थी। और, वर्दीरहित पुलिस भी तैनात थी। लेकिन उस व्यवस्था का गांधीजी ने विरोध किया। उन्होंने जोर देकर कहा – “मेरी सुरक्षा के लिए पुलिस की आवश्यकता नहीं।”

राजगोपालचारी, जीवराज मेहता, भूलाभाई देसाई आदि कुछ कांग्रेसी नेताओं को उस घटना की जानकारी मिली। 23 जून, 1944 को ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में खबर भी छपी कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के लोगों ने गांधीजी की सभा में गड़बड़ी मचायी।’ ‘पूना हेराल्ड’ के सम्पादक ए. डेविड ने कपूर आयोग के सामने एफिडेविट दिया कि उस दिन पंचगनी में गांधीजी को जान से मारने के लिए नाथूराम गोडसे छुरा लेकर दौड़ा था। मणिशंकर पुरोहित के बयान में तारीख कुछ भिन्न था। पुरोहित ने आपटे और थत्ते के भी नाम लिये। पुलिस ने यह घटना दर्ज नहीं की। महाबलेश्वर के भूतपूर्व विधानसभा सदस्य भिल्लोर गुरुजी ने आयोग के समक्ष कहा (जिसे उन्होंने 1997 में पुणे से प्रकाशित ‘अनुभव’, मासिक, में लिखा भी), – “नाथूराम के हाथ से मैंने छुरा छीना।” लेकिन पुलिस डायरी के हवाले से आयोग के न्यायमूर्ति कपूर ने कहा – “इस तरह की घटना नहीं हुई।”

कपूर आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, उस समय डॉ. सुशीला नायर गांधीजी के साथ थीं। 1944 में उस तरह की घटना हुई होती तो डॉ. सुशीला नायर अवश्य जानतीं, पर उन्होंने कहा कि मुझे यह सब याद नहीं। इसका अर्थ यह कि ऐसी घटना हुई नहीं।

“पंचगनी में कुछ लोगों ने गड़बड़ी मचायी, पर उसमें नाथूराम था या नहीं मुझे याद नहीं” – सुशीला नायर ने कहा।” पंचगनी में प्यारेलाल नहीं थे। आयोग की कार्रवाई का अंत-अंत तक पूरी प्रतिबद्धता के साथ ‘कवर’ करने वाले पत्रकार जगन फडणीस का कहना था कि “गड़बड़ी मचते ही डॉ. सुशीला नायर को वहां से हटा दिया गया, इसलिए क्या घटित हुआ, यह शायद सुशीला नायर देख नहीं पायीं।” बहरहाल, आयोग ने पंचगनी की घटना सही नहीं मानी।

लेकिन सितम्बर, 1944 में हुई सेवाग्राम की घटना? उसी दिन सेवाग्राम में नाथूराम गोडसे और उसके एक सहयोगी गांधीजी की ओर बढ़े, तब आश्रमवासियों ने उन्हें पकड़ा था।

उस वक्त यह सूचना सार्वजनिक हो चुकी थी कि गांधीजी जिन्ना के साथ चर्चा करनेवाले हैं। नाथूराम गोडसे और उसके साथियों का मत था कि गांधीजी जिन्ना से चर्चा न करें। इस संबंध में उन्होंने जहरीला प्रचार किया। 9 सितम्बर, 1944 को गांधीजी की जिन्ना से चर्चा शुरू हुई। यह चर्चा 18 दिन चली। उसी चर्चा के लिए गांधीजी सेवाग्राम आश्रम से रवाना हो रहे थे। गोडसे और थत्ते ने गांधीजी को रोकने का निश्चय किया कि वह आश्रम से बाहर ही न निकल सकेंगे, तो मुम्बई कैसे पहुंचेंगे। यही सोचकर उन लोगों ने योजना बनायी। इसके लिए महाराष्ट्र से आये दल में बंगाल के भी पांच-सात लोग आ मिले थे। इससे गोडसे तथा उनके साथी आक्रामक हो गये।

कपूर आयोग से डॉ. सुशीला नायर ने कहा कि आश्रमवासियों ने थत्ते या गोडसे के हाथ से छुरा छीन लिया। पर नायर की यह बात कपूर आयोग ने नहीं मानी। डॉ. सुशीला नायर ने कहा कि छुरा छीना गया। पुलिस की रपट में लिखा था कि दोनों में से एक के पास से खंजर बरामद किया गया। पुलिस छुरे की बजाय खंजर कह रही है, जो छुरे से बड़ा होता है। लेकिन पुलिस ने कपूर आयोग के सामने कहा कि गांधीजी जिस मोटर से वर्धा स्टेशन जानेवाले थे, उस मोटर का पहिया पंचर करने के लिए खंजर लाया गया था! आयोग ने उसे मान लिया।

“सेवाग्राम में नाथूराम गोडसे को उसके छुरा  सहित आश्रम के लोगों ने पकड़ा। गांधीजी की जान लेने के लिए ही उसने अपने पास छुरा रखा था।” डॉ. सुशीला नायर ने आयोग के सामने कहा। लेकिन आयोग ने उनकी बात अस्वीकार की। पंचगनी की घटना की सुशीला नायर ने पुष्टि नहीं की, इसलिए आयोग ने माना कि वह घटना घटी नहीं। सेवाग्राम की घटना की सुशीला नायर ने पुष्टि की, फिर भी आयोग ने उसे सच नहीं माना। आयोग ने पुलिस का बयान माना कि गांधीजी की मोटर पंचर करने के लिए खंजर लाया गया!

इस परिदृश्य से एक ही ‘तथ्य’ की पुष्टि होती है। वह यह कि जनता के दिल-दिमाग में सवाल के रूप के आज भी यह धारणा कायम है कि गांधी-हत्या के पीछे कुछ कारण अवश्य रहे होंगे, लेकिन अकाट्य ‘सत्य’ यह है कि उनकी हत्या एक ‘विचार-प्रणाली’ की साजिश का परिणाम था। आजादी के 70 साल से यह भी साफ दिख रहा है कि हमारे देश के प्रभुवर्ग को इस धारणा का पर्दाफाश करने और खत्म करने में कोई रूचि नहीं है। उल्टे, गांधीजी की हत्या को अपना पराक्रम माननेवाले ‘प्रभु-वर्ग’ और गांधीजी को जल्दी से जल्दी पत्थर के बुत में ढालने को बेताब ‘प्रभु-वर्ग’, दोनों तरफ के चेहरे एक दूसरे के बिम्ब-प्रतिबिम्ब जैसे नजर आने लगे हैं!

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