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NDA-UPA में से किसका फहराएगा बिहार में झंडा, जानने के लिए पढ़िए पूरी रिपोर्ट

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NDA-UPA में से किसका फहराएगा बिहार में झंडा, जानने के लिए पढ़िए पूरी रिपोर्ट

सिटी पोस्ट लाइव ( विशेष ) :इसबार के लोक सभा चुनाव में स्वर्ण मतदाताओं पर सभी दलों की नजर टिकी है. हमेशा बीजेपी का साथ देनेवाला सवर्ण वोटर इसबार SC/ST एक्ट में संशोधन को लेकर BJP से बेहद नाराज है. अब तो कई स्वर्ण  गैर-राजनीतिक संगठन बिहार में सक्रीय हैं, जो स्वर्ण समाज के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण  की मांग और SC /ST में संशोधन की मांग को लेकर NDA के खिलाफ आन्दोलन कर रहे हैं. भारत बंद से लेकर बिहार बंद का आयोजन कर चुके हैं. उनका कहना है कि स्वर्ण विरोधी निर्णय लेनेवाली NDA सरकार को इसबार सवर्ण सबक सिखा देगें. पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में खासतौर पर मध्य प्रदेश में BJP की हर को स्वर्ण वोटर की नाराजगी से जोड़कर देखा जा रहा है. जहाँ तक बिहार का  सवाल है यहाँ सवर्ण में  ब्रहाम्ण , भूमिहार , राजपूत  और कायस्थ समाज के लोग आते हैं जिनकी कुल संख्या 12- 14 फीसद से ज्यादा नहीं है. अगर इसमें वैश्य समाज को  जोड़ दिया जाए तो फिर यह  संख्या 25 फीसद तक पहुँच जाती है.

चुनावी नतीजों के  आंकड़ों के अनुसार  अगड़ा वर्ग विधायकों -सांसदों की राजनीतिक ताकत पिछले दो दशकों में घटी है. 1990 में सवर्ण विधायकों की संख्या 105 थी. लेकिन उसी साल लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद से संख्या में कमी आनी शुरु हो गयी. 1995 में सिर्फ 56 सवर्ण जाति के विधायक जीत सके. 2000 में भी यही आंकड़ा रहा. 2005 में लालू राज के खात्मे के साथ ही सवर्ण जाति के विधायकों की संख्या में बढ़ोतरी का सिलसिला शुरु हुआ. तब 59 और 2010 में सवर्ण जाति के 79 विधायक विधानसभा पहुंचे.

वैसे सवर्ण जाति बीजेपी का ही साथ देती रही है. 2000 में बीजेपी को 31 फीसद , 2005 में 32 , 2010 में 27 फीसद ने बीजेपी का साथ दिया था . पिछले लोकसभा चुनावों में तो 63 प्रतिशत सवर्ण जाति बीजेपी के साथ खड़ी थी. इसी दौरान कांग्रेस को इस जाति का समर्थन 2000 में 22 फीसद से घटकर 2014 में  सिर्फ दस ही रह गयी. पिछले लोक सभा चुनावों में 69 फीसद भूमिहार , 54 प्रतिशत ब्राहम्ण और 63 फीसद राजपूतों ने बीजेपी का साथ दिया था. इसी तरह दिलचस्प है कि 2005 में JDU  ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो उसे 33 फीसद अगड़ों ने वोट दिया , 2010 में भी दोनों साथ थे और 27 प्रतिशत वोट नीतीश कुमार को सवर्ण जातियों का मिला. लेकिन पिछले लोक सभा चुनावों से पहले दोनों अलग हुए तो सवर्ण जातियों के वोटों का खामियाजा नीतीश को उठाना पड़ा. तब उसे सिर्फ 8 प्रतिशत ही मत सवर्ण जातियों का मिला.

इस बार आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग और SC/ST एक्ट को लेकर स्वर्ण BJP से नाराज दिख रहे हैं. पिछले चुनाव की तरह  अगड़ी जातियां पूरी तरह से बीजेपी का साथ गोलबंद दिखाई नहीं दे रही हैं.कुछ लोगों का कहना है  कि एक मौका बीजेपी को मिलना चाहिए तो कुछ BJP को स्वर्ण विरोधी बता रहे हैं.लोगों का मानना है कि नीतीश कुमार ने  विकास कार्य किया है. कानून व्यवस्था को भी दुरुस्त किया है. लेकिन पिछले दो साल से जब से उन्होंने जीतन राम मांझी को सत्ता सौंपी और फिर लालू यादव के साथ गए, कानून व्यवस्था की हालत पहले जैसा होती जा रही है. पहले की तरह विकास कार्य भी नहीं हो रहा है और अपराधियों का खौफ फिर से कायम होने लगा है. लेकिन उन्हें तेजस्वी यादव से भी बेहतर कानून व्यवस्था की उम्मीद नहीं है. उन्हें डर है कि RJD का शासन आया तो हालत और भी खराब होगें. जाहिर है स्वर्ण BJP और नीतीश कुमार से नाराज हैं लेकिन बेहतर करने की थोड़ी बहुत उम्मीद भी वो BJP और नीतीश सरकार से ही कर रहे हैं. जाहिर है इसबार पहले जैसी गोलबंदी सवर्णों की NDA के पक्ष में नहीं है .

बिहार के लोगों को बेहतर कानून-व्यवस्था और विकास की लत लग गई है.अगर कानून व्यवस्था को चुनाव से पहले बिहार सरकार बेहतर कर लेती है तो स्थिति NDA के अनुकूल हो सकती है.लेकिन अगड़ी जातियां वोट के बदले विकास के साथ साथ अपना मुख्यमंत्री भी चाहने लगी है. कुछ को लगता है कि अब समय आ गया है कि मुख्यमंत्री भी स्वर्ण बने. लेकिन ये BJP के लिए मानना आसान काम नहीं है.BJP को पता है कि 14  फिसद सवर्ण जातियों के वोट से चुनाव नहीं जीता जा सकता. उसे केंद्र और राज्य में सरकार बनाने के लिए दलितों, पिछड़ों-अति-पिछड़ों और महादलितों का का वोट बैंक भी चाहिए. अति-पिछड़ा जिसकी आबादी सबसे ज्यादा  26 से 28 फीसद है, उसके समर्थन के बिना सत्ता पर काबिज होना संभव नहीं है.

NDA में नीतीश कुमार फिर से आ गए हैं तो उससे उपेन्द्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी अलग भी हो चुके हैं. इसबार सन ऑफ़ मल्लाह मुकेश सहनी भी एक बड़ा फैक्टर बन चुके हैं. पिछले दो साल से मल्लाह समाज को गोलबंद करने में जुटे मुकेश सहनी अब महागठबंधन के साथ आ चुके हैं. महागठबंधन में शामिल दलों के जातीय समर्थन के दावे को अगर सच मान लिया जाए तो आज की तारीख में महा-गठबंधन NDA के ऊपर भारी दीखता है. लेकिन महागठबंधन की सफलता इस बात पर निर्भर करेगा कि कुशवाहा और मुकेश सहनी किस हदतक अपने समाज का वोट महा-गठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष में ट्रान्सफर करवा पाते हैं. दरअसल, जिस कुशवाहा वोट बैंक पर उपेन्द्र कुशवाहा दावा कर रहे हैं, उसका नेत्रित्व आजतक नीतीश कुमार ही करते रहे हैं और जिस मल्लाह जाती का नेत्रित्व का दावा मुकेश सहनी कर रहे हैं, वह आजतक NDA का साथ देता रहा है. अगर उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश सहनी अपने समाज का वोट ट्रान्सफर करा पाने में सफल रहते हैं तो NDA का बैंड  बज जाएगा.लेकिन ये आसान काम नहीं है.

सबसे ख़ास बात इसबार यादव समाज भावनात्मकरूप से लालू यादव के साथ खड़ा है. अल्पसंख्यक BJP को हराने  के लिए महागठबंधन के साथ खड़े हैं. दोनों मिलकर ही 28 से 30 फिसद हो जाते हैं. कांग्रेस भी कुछ हदतक स्वर्ण वोट बैंक में सेंधमारी जरुर करेगी. ऐसे में उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश सहनी को अगर अपने समाज को NDA से हटाकर महागठबंधन के साथ खड़ा करने में थोड़ी बहुत कामयाबी भी मिल जाती है तो राजनीतिक परिणाम चौकाने वाले हो सकते हैं.पिछले विधान सभा चुनाव में भी महागठबंधन के साथ केवल नीतीश कुमार के आ जाने से नतीजा बदल गया था.अब देखना ये है कि उपेन्द्र कुशवाहा-जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी तीनों मिलकर क्या नीतीश कुमार का विकल्प बन पाते हैं. अगर बन गए तो नतीजा आज ही बताया जा सकता है.लेकिन विकल्प बन पाए या नहीं ये तो चुनाव के बाद ही पता चल पायेगा.

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