कुशवाहा के NDA छोड़ने से कितना बदलेगा बिहार में सियासी समीकरण
सिटी पोस्ट लाइव : लोक सभा चुनाव से पहले राजनीतिक गठजोड़ का बनना बिगड़ना जारी है. अभी सबसे ज्यादा घमशान NDA के बीच मचा हुआ है. पिछले डेढ़ महीने के हाई वोल्टेज ड्रामा के बाद सोमवार को आखिरकार उपेन्द्र कुशवाहा ने अलग राह अपना ली .उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और NDA को छोड़ देने का एलान कर दिया. लेकिन अभीतक उन्होंने ये खुलासा नहीं किया है कि वो किसके साथ जायेगें. लेकिन जिस तरह से उनकी नजदीकियां महागठबंधन से बड़ी है और शरद यादव के लालू यादव से मुलाकात के बाद उपेन्द्र कुशवाहा ने NDA छोड़ने का फैसला लिया है, जाहिर है वो महागठबंधन के साथ ही जायेगें.
उपेन्द्र कुशवाहा के लिए NDA छोड़ने का फैसला लेना आसान कम नहीं था. उन्हें मंत्री पद भी साथ गवाना था. यहीं वजह रही कि लगातार बीजेपी की ओर से सकारात्मक संकेत न मिलने के बाद भी उपेन्द्र कुशवाहा अब तक गठबंधन में बने हुए थे. बिहार की राजनीति की बात करें तो उपेन्द्र कुशवाहा की पहचान ही नीतीश कुमार के विरोध से शुरू होती है. दरअसल नीतीश और उपेन्द्र कुशवाहा की लड़ाई गैर यादव का सबसे बड़ा पिछड़ा चेहरा बनने की है. उपेंद्र कुशवाहा के पास एनडीए में आने के बाद बड़ा मौका था कि वह गैर यादव पिछड़ा वर्ग के सबसे बड़े चेहरे के रूप में बिहार में उभरते. लेकिन नीतीश कुमार के एनडीए में शामिल होने के बाद उनका ये सपना पूरा होता हुआ नहीं दिख रहा था.और जिस तरह से BJP उन्हें ज्यादा तरजीह दे रही थी ,उपेन्द्र कुशवाहा को लगा कि यहाँ वो गैर यादव पिछड़ी जाती के बड़े नेता नहीं बन सकते.
दरअसल, उपेन्द्र कुशवाहा बिहार में अपने-आप को कोइरी जाति के सर्वमान्य नेता मानते हैं. जातिगत आंकड़ों पर नज़र रखने वालों की मानें, तो बिहार में कोइरी मतदाताओं की संख्या ओबीसी वोटरों में यादवों के बाद सबसे ज्यादा है. हालांकि बीजेपी भी सम्राट चौधरी के बहाने इन कोइरी वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश में जुटी हुई है. नीतीश कुमार भी धानुक-कोइरी सम्मेलन के बहाने इन वोटों को अपने पाले में लाने की कोशिश लगातार कर रहे हैं.
उपेन्द्र कुशवाहा ने इसी रणनीति के तहत पुराने वामपंथी और इस जाति के कद्दावर नेता जितेन्द्र कुशवाहा को अपनी पार्टी में लाकर उपाध्यक्ष बनाया. नीतीश कुमार की कुर्मी जाति के मात्र 3 फीसदी वोटर हैं और अगर वो धानुकों को अपने साथ मिला लेते हैं, तो दोनों को जोड़कर मतदाताओं की संख्या साढ़े चार फीसदी हो जाती है.
उपेन्द्र कुशवाहा की पहचान राजनीति में महत्वाकांक्षी नेता के रूप में है.शुरू से ही उनकी नज़र मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रही है. उपेन्द्र कुशवाहा के करीबी लोगों का मानना है कि अगर 11 फीसदी वोटों वाले लालू बिहार में सीएम की कुर्सी पर जा सकते हैं और सिर्फ साढ़े चार फीसदी वोटों के सहारे नीतीश देश में गैर यादव पिछड़ों के सबसे बड़े नेता बन सकते हैं, तो फिर उपेंद्र कुशवाहा क्यों नहीं? यहीं लड़ाई की असली वजह है.
नीतीश कुमार भी अपने पुराने करीबी उपेन्द्र कुशवाहा की महत्वाकांक्षा को अच्छी तरह पहचानते हैं. ऐसे में वे कभी नहीं चाहेंगे कि कुशवाहा बीजेपी के सहारे इतनी बड़ी उड़ान भर लें कि आने वाले समय में वे बिहार के पिछड़ों के सबसे बड़े नेता की पहचान के साथ-साथ मुख्यमंत्री पद का सपना भी देखने लगें. ऐसे में बीजेपी नेतृत्व के सामने नीतीश और उपेन्द्र कुशवाहा में किसी एक को चुनना था और वर्तमान राजनीति में नीतीश के मुकाबले उपेन्द्र कुशवाहा कहीं नहीं टिकते क्योंकि नीतीश की पार्टी उनकी पार्टी की अपेक्षा बहुत बड़ी है. उनके बिना बीजेपी आज की तारीख में बिहार में सरकार बनाने की सोंच भी नहीं सकती. नीतीश भले कुर्मी बिरादरी से आते हैं. लेकिन अति-पिछड़ों और दलितों के बीच वो अपने काम से अच्छी खासी पैठ बना चुके हैं. गैर यादव जो पिछड़ी जातियां हैं, उनके ऊपर भी उनकी अच्छी पकड़ है. इसलिए बीजेपी उन्हें छोड़कर उपेन्द्र कुशवाहा के ऊपर दावं लगाने का खतरा उठाने को तैयार नहीं हुई..
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