विशेष सम्पादकीय : खीर बनाम खिचड़ी : शीट शेयरिंग खेल का ‘फॉग’!
शीट शेयरिंग! आजकल बिहार में जारी चुनावी खेल में यही शब्दावली सबसे ज्यादा गूँज रही है। बीच-बीच में ‘शीट शेयरिंग’ के साथ ‘फार्मूला’ शब्द भी उछल रहा है। यह चुनावी-खेल लोकसभा के आगामी ‘नॉक आउट’ मैच (Knock out match) का न ‘सेमिफाइनल’ है, न क्वार्टर फ़ाइनल और न ही ग्रुप मैच। हाकी-फुटबाल आदि खेलों में एक ही टीम में ‘फिट’ खिलाड़ियों के चयन के लिए ‘नेट प्रैक्टिस’ या ‘पूर्वाभ्यास’ होता है। भारत की राजनीति के खेल में भी ऐसा होता है – छात्र-संघ के चुनाव, पंचायत चुनाव, जिला परिषद् चुनाव, मेयर चुनाव आदि-आदि खेल इसके प्रमाण हैं। लेकिन शीट शेयरिंग फार्मूला के चयन के नाम पर बिहार में जिस खेल का हंगामेदार प्रदर्शन चल रहा है. उसे क्या कहा जाए? टीम के अंदर खुद और अपने चेले खिलाड़ियों के टिकट के लिए गुटबाजों के ‘स्वघोषित’ खेल का खुला प्रदर्शन या और कुछ?
फुटबाल के खेल में अक्सर ऐसा होता है। स्टेडियम में हजारों दर्शकों के शोर के बीच बैठे कई दर्शक ‘खिलाड़ी’ जैसी उत्तेजना महसूस करने लगते हैं और बैठे-बैठे अपने टांग यूं चलाने लगते हैं मानो वे खुद गेंद को ‘गोलपोस्ट’ में दाग रहे हैं! बिहार में आजकल जो चुनावी खेल चल रहा है उसकी डे-टुडे रिपोर्टिंग करने वाले मीडिया की यही स्थिति है। आपको पिछले जून-जुलाई में फीफा वर्ल्ड कप के war के लिए गठित ‘var’ (वीडियो असिस्टेंट रेफरी) का स्मरण है, जिससे कई टीमों और खिलाड़ियों के भाग्य और भविष्य पर सवालिया निशान लग गये थे? बिहार में शीट शेयरिंग के मायने, उसके विभिन्न फार्मूले के ‘महत्व’ और संभावित असर को समझने–समझाने की कवायद में लगे मीडिया के कुछ दिग्गज ‘खेमे’ तो जैसे अभी से आगामी लोकसभा के war के लिए खुद को var बना चुके हैं!
शीट शेयरिंग के मामले में विभिन्न पार्टियों और पार्टी गठबन्धनों के परमानेंट खिलाड़ियों का एक जवाब, तो खेल में शामिल होने को बेताब नये-पुराने खिलाड़ियों का दूसरा जवाब। वे भी एकार्थी नहीं, हर खिलाड़ी के एक से अधिक अनेकार्थी जवाब! और जितने जवाब, उसके दुगुने फार्मूले! सो शीट शेयरिंग का मायने जितना स्पष्ट, उतना ही फार्मूला अस्पष्ट और शीट शेयरिंग का मायने जितना अस्पष्ट उतना ही फार्मूला अस्पष्ट और पेचीदा!
इसकी सबसे दिलचस्प और रोमांच पैदा करने वाली सबसे बड़ी मिसाल है – शीट शेयरिंग के खेल में उपेंद्र कुशवाहा का प्रदर्शन! उससे यह सवाल उठ गया कि अगर वह एनडीए से अलग हुए तो ‘बिहार की सत्ता-राजनीति पर क्या असर होगा? यूं इस खेल-कथा को शुरू करने का श्रेय दर्ज हुआ जेडीयू के नीतीश कुमार और भाजपा के अमित शाह के नाम। बिहार के लिए उन्होंने फिफ्टी-फिफ्टी का समझौता किया। उसकी घोषणा ‘सीट शेयरिंग फॉर्मूला’ के रूप में गूंजी, तो एनडीए में सियासी ‘खीर’ पकने लगा। तभी सूचना आयी कि एनडीए के घटक दल आरएलएसपी के ‘एकक्षत्र’ नेता उपेन्द्र कुशवाहा राजद के ‘एकक्षत्र’ नेता तेजस्वी यादव से मिल आये। फिर लगे हाथ मौक़ा मिला, तो शरद यादव से भी मुलाकात कर आये, जो आजकल सियासी ‘वनवास’ का आनंद ले रहे हैं। इन मेल-मुलाकातों की वजह के बारे में कई ‘अटकलें’ पसरीं। उनका सियासी निहितार्थ यह निकला कि ‘जमीनी जनाधार’ में ‘नगण्य’ होकर भी यानी ‘मास’ लीडर न होने के बावजूद ‘मीडिया’ के लीडर बने रहने में कामयाब उपेन्द्र कुशवाहा ‘सीजन्ड पॉलिटिशियन’ हैं। वे जानते-समझते हैं कि एनडीए में पकते ‘खीर’ में उनके हिस्से की मात्रा तुलेगी भाजपा की तुला पर और तुला को थामेंगे नीतीश कुमार, जिन्होंने दो साल पहले लालू के राजद का हाथ छोड़ उस विरहाकुल भाजपा का दामन थाम लिया, जो उनके स्वागत के लिए सियासी राह में अपना दामन बिछाए हुए थी! इसीलिए उपेन्द्र कुशवाहा अपने हिस्से की तौल के लिए सही ‘बटखरे’ लेने तेजस्वी यादव के पास गए। यानी ‘तुला’ भाजपा की और ‘बटखरे’ राजद के! ऐन उसी वक्त अमित शाह से मिलने जाने की घोषणा कर उपेन्द्र कुशवाहा शरद यादव से मिल आये। तब ‘बटखरे’ के बारे में यह सूचना पसर गयी कि वह राजद में चूल्हे पर चढ़े राष्ट्रीय गठबंधन की ‘खिचड़ी’ का हिस्सा है! इस बीच सांसद अरुण कुमार की उपेन्द्र कुशवाहा को एनडीए के साथ रहने की सलाह और ‘फ्रीक्वेंट पार्टी चेंजर’ (दलबदल में माहिर) नागमणि और भगवान सिंह कुशवाहा जैसे नेताओं का उपेंद्र कुशवाहा के अस्पष्ट ‘स्टेंड’ के समर्थन की सूचनाएं प्रसारित हुईं। तो तत्काल बिहार की हवाओं में यह सूचना फ़ैली कि लोजपा के छत्रपति ‘रामविलास पासवान’ ‘भी’ नीतीश कुमार के पक्ष में खड़े हैं। फिर अमित शाह से बार-बार समय मांगने के बाद भी मिलने का वक्त नहीं मिलने की सूचना को कन्फर्म करने के बहाने उपेन्द्र कुशवाहा ने ‘मीठी खिचड़ी’ जैसा जो बयान दिया, उससे मीडिया ने यह जाहिर माना कि भाजपा ने सियासी नफा-नुकसान का आकलन कर लिया है। यानी कुशवाहा एनडीए के फॉर्मूले के तहत 2 सीटों पर मान गए तो ठीक, नहीं तो उन्हें बॉय-बॉय कर दिया जाएगा।
लेकिन अब तो उपेन्द्र कुशवाहा से जुड़े एक सवाल के दो एंगल हो गए? दो नहीं तीन एंगल। अब सवाल सिर्फ यह सवाल नहीं कि अगर उपेन्द्र कुशवाहा एनडीए से अलग हुए तो ‘बिहार की सत्ता-राजनीति पर क्या असर होगा? अब सवाल यह भी हो गया है कि अगर उपेन्द्र कुशवाहा महागठबंधन में शामिल होते हैं, तो बिहार की राजनीति पर क्या असर होगा? और इसके साथ तीसरा पुछल्ला सवाल कि किसका ज्यादा और किसका कम नुकसान होगा? एनडीए का कि कुशवाहा का?
अब मीडिया क्या करे? एनडीए में किसके हिस्से में ‘खीर’ की कितनी मात्रा में जाएगी, इसकी खबर ब्रेक करने के लिए यह पता करना है कि ‘महागठबंधन’ की खिचड़ी कितनी पकी?
यूं इस बाबत मीडिया में पिछले गठबंधन मुक्त और गठबंधन युक्त, दोनों तरह के चुनावों में उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी के ‘योगदान’ और प्राप्त ‘दान-दक्षिणा’ का इतिहास खंगालने की होड़ चल पड़ी है। उसमें एक तरफ पकते ‘खीर’ के मीठे स्वाद, तो दूसरी तरफ पकती ‘खिचड़ी’ के नमकीन स्वाद में उपेन्द्र कुशवाहा की ‘भूमिका’ की सीमा-संभावना पहचानने की कोशिश चल रही है। हालांकि जब तक कोई ठोस और ताजा फैक्ट उद्घाटित नहीं हो, तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि शीट शेयरिंग का कोई फ़ाइनल फार्मूला बना या बनेगा। बनेगा भी या नहीं, यह भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन चुनावी खेल में शामिल तमाम खिलाड़ियों के मीडिया के सामने पेश हो रहे चेहरों की रहस्यमय हंसी-मुस्कान का मैसेज यह है कि अंतिम फैसला होने में अभी महीनों की देरी है। जब तक आम चुनाव की घोषणा नहीं होती, तब तक यह ‘रोमांच’ ज़िंदा रहे।
फिलहाल मीडिया के समक्ष बड़ी चुनौती यही है कि शीट शेयरिंग के शोर के साथ जारी वर्तमान राजनीतिक खेल का ‘रोमांच’ वह कैसे ज़िंदा रखे? इसलिए मीडिया में अलग-अलग प्रतीक-कथाओं के जरिये ‘खीर बनाम खिचडी’ शीर्षक राजनीतिक खेल का ‘रोमांच’ परोसा जा रहा है। यहाँ, इस सिलसिले में, उस कमर्शियल विज्ञापन के उल्लेख मौजूं है, जो आजकल हर तरह के टीवी चैनल में, यानी इंटरटेनमेंट चैनल, धर्म-प्रचारक चैनल और न्यूज़ चैनल से लेकर वाइल्ड लाइफ और डिस्कवरी चैनल तक में धूम मचाए हुए है। इस विज्ञापन के प्रशंसा में बिहार के कई युवा यह कहते नजर आते हैं कि ‘मरदे ये तो गर्दा उड़ाए हुए है। पुलिस, आइएएस-आइपीएस, पॉलिटिशियन, डॉक्टर-इंजीनियर किसी के घर में ढुकिए इस विज्ञापन का असर गमकता मिलता है। दो व्यक्ति आमने सामने हैं – ‘सरहद’ के उस पार और इस पार, सैनिक के वेश में। उस पार का सैनिक पूछता है – ‘तो? आजकल क्या चल रहा है?’ इस पार का सैनिक कहता है – “फॉग, और क्या!” उस पार से फिर आवाज आती है – “तो और क्या चल रहा है?” इस पार वाला जोर देकर कहता है – “बस, फॉग!” इतने में स्क्रीन पर उभर आता है – दुर्गंधयुक्त शरीर में तरोताजा हो सकने का एहसास पैदा करने वाला स्प्रे!
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