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विशेष सम्पादकीय : झारखंड @ 2019   ‘किसका दुर्भाग्य ?  

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विशेष सम्पादकीय : झारखंड @ 2019   ‘किसका दुर्भाग्य ?  

झारखंड-जयंती की 19वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित राजकीय समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू को शिक्षकों के हंगामे का तो पता चला, लेकिन ऐन मौके पर पत्रकारों पर लाठी चार्ज की जानकारी नहीं मिल पायी! बाद में पता चला कि कई पत्रकार घायल हुए। सो पिटाई के दो दिन बाद उन्होंने कहा – घटना दुर्भाग्यपूर्ण है। वे घटना के वक्त शायद मुख्यमंत्री का जोशीला भाषण सुनने में व्यस्त थीं और उस वक्त सामने हो रहे हंगामे के प्रति पहले से ‘खबरदार’ होने और उससे निबटने के पुख्ता इंतजाम के प्रति आश्वस्त भी थीं। सो पत्रकारों की पिटाई के खिलाफ कार्रवाई के मांग लेकर उनके पास पहुंचे पत्रकार प्रतिनिधियों को महामहिम ने कहा – “मैं सीएम से बात करूंगी।” वैसे, अगर मौके पर ही उन्हें पत्रकारों की पिटाई की जानकारी मिल जाती, तो भी वे इससे ज्यादा क्या कह पातीं कि घटना दुर्भाग्यपूर्ण है?

शायद इसलिए उस वक्त पत्रकार प्रतिनिधियों में से किसी के मन में यह सवाल उठा ही नहीं होगा कि पत्रकारों की पिटाई की घटना किसके दुर्भाग्य का सूचक है? महामहिम किसके दुर्भाग्य का जिक्र कर रही हैं? जो पिटे उन पत्रकारों के दुर्भाग्य का? या पत्रकारिता के दुर्भाग्य का? या वर्तमान रघुवर की ‘दास’ सरकार का? यूं यह स्पष्ट नहीं कि महामहिम से मुलाक़ात के लिए गए पत्रकारों में एक भी वो पत्रकार था, जो 15 नवम्बर को पिटा था। मुलाक़ात की आज ‘छपी’ खबर से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पत्रकार प्रतिनिधिमंडल में उन अखबारों के संपादक या मीडिया-मालिक भी नहीं थे, जिनके पत्रकार पिटे थे। इसलिए यह स्वाभाविक ही माना जाएगा कि महामहिम की ‘दुर्भाग्य’ संबंधी प्रतिक्रिया पर किसी पत्रकार प्रतिनिधि के मन में कोई सवाल न उठा हो।
राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू से राजभवन में मुलाकात कर पत्रकारों के प्रतिनिधि मंडल ने ज्ञापन सौंपा कि “मीडियाकर्मियों पर लाठी चार्ज की घटना की जांच किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश से कराई जाए। दोषी अधिकारियों एवं पुलिसकर्मियों पर ‘कार्रवाई’ की जाए।” उन्होंने झारखंड में ‘पत्रकार सुरक्षा कानून’ लागू करने की भी मांग की।मूल ज्ञापन में क्या कुछ लिखा गया, यह नहीं मालूम, लेकिन प्रकाशित खबर से किसी आम पाठक को भी लग सकता है कि ज्ञापन ‘मांग’ कम ‘याचना’ ज्यादा है। रांची में इस तरह के ‘कमेंट’ उनके मुंह से भी सुने जा सकते हैं, जो उन्हीं स्वनामधन्य अखबारों के पाठक हैं, जिनके ‘पत्रकार’ पिटे।

15 नवम्बर के समारोह की खबर सभी ‘लोकल’ से लेकर ‘नेशनल’ मीडिया में छपी – पसारित हुई। इतना बड़ा इवेंट जो था! लेकिन कई अखबारों में पत्रकारों की पिटाई की ‘सूचना’ तक भी नहीं छपी! किसी अखबार ने ‘पत्रकारों की पिटाई’ पर ‘संपादकीय’ लिखने की जहमत नहीं उठायी। उलटे दूसरा दिन आते-आते वह घटना इतनी बासी हो गयी कि उसका कोई ‘फ़ॉलोअप’ पिटे पत्रकारों के अखबारों तक में नहीं आया। हालाकि उस दिन को अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस के रूप में मानया जाता है। और अंततः ‘पत्रकारों की पिटाई’ सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जारी राजनीतिक ‘खेल’ की गेंद बन गयी! बस, उस खेल का ‘रोमांच’ ही राजपाल को सौंपे गए ज्ञापन का ‘भविष्य’ तय करेगा, बशर्ते मीडिया में उस खेल का रोमांच जारी रहे। पिटे पत्रकार और उनकी तरफ से ज्ञापन देने गए पत्रकार प्रतिनिधि भी शायद यह जानते हैं। यानी 15 नवम्बर को पत्रकारों की हुई ‘बेवजह’ पिटाई लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध शासन के संविधानसम्मत निर्देश पर प्रशासन की ‘कार्रवाई’ का दुखद नतीजा थी, जिसे पत्रकार पत्रकारिता की भाषा में पेशागत हादसा यानी ‘आक्युपेशनल हेजार्ड’ मान कर मौन धारण कर सकते हैं। और, सरकार पत्रकारों के ‘मौन धारण’ करने और उनको अतिरिक्त धीरज रखने की शक्ति प्रदान करने के लिए जरूर सोचेगी, जो उनके द्वारा सौंपे गए ज्ञापन का निहितार्थ है!
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तो आगे क्या होगा? पत्रकारों का ‘निर्दोष याचना’ जैसा ज्ञापन और उस पर राज्यपाल की ‘निश्छल मासूम-सी’ प्रतिक्रिया के सन्दर्भ में इस सवाल पर विचार करने के लिए एक प्राचीन लोककथा का उल्लेख प्रासंगिक होगा। लोककथा में एक राजा को ‘नायक’ के रूप में पेश करने लिए एक ऐसे राक्षस ‘खलनायक’ की कल्पना की गयी, जिसकी जान एक तोते में थी। तोता कहीं पिंजड़े में बंद था। पिंजड़ा सात समुंदर पार या किसी पहाड़ की गुफा या पाताल में था। इसलिए प्रजा की नजर में राक्षस अमर था। सो नायक ‘राजा’ ने शासक बनने की अपनी क्षमता-योग्यता साबित करने यानी अपने ‘राजत्व’ को सिद्ध करने के लिए राक्षस के अमरत्व के रहस्य का पता लगाया। और फिर, तोते को मारकर राक्षस का अंत कर दिया।

यह तो हुई लोक में प्रचलित ‘राजतंत्र’ के यथार्थ की कल्पनिक कथा। आप जानते हैं, इस लोककथा का ‘लोकतंत्र’ में ‘नया पाठ’ क्या है? हमारे देश के लोक-जीवन में ‘लोकतंत्र की हकीकत’ के सन्दर्भ में उक्त प्राचीन लोककथा का नित नया पाठ तैयार हो रहा है। हर 5 साल में नये-नये कई ‘फ़साने’ प्रचलित होते हैं। हालांकि हमारे देश के हिट-सुपरहिट कमर्शियल फिल्मों की तरह उन ‘फसानों’ का ‘स्टोरी लाइन’ भी एक ही ‘सेन्ट्रल आइडिया’ पर बेस्ड (आधारित) है। वह इस प्रकार है : लोकतंत्र में शासक ‘जनता’ का वोट पाकर जनता पर शासन चलाने का अधिकार पाता है। उसे पहले कहा जाता था – ‘सेवा’ करने का अधिकार। बाद में उसे कभी सेवा करने के लिए मेवा खाने के अधिकार, तो कभी सेवा करने के एवज में मेवा खाने के अधिकार के रूप में मान्य किया गया।

बहरहाल, सेवा-मेवा से जुड़ा किसी भी तरह का ‘अधिकार’ पाकर ‘सत्ता’ में आते ही हर शासक को यह यथार्थ-बोध होता है कि खुद उसकी जान ‘सिस्टम’ के पिंजड़े में पलते-पुसते ‘तोते’ में है। सिस्टम यानी प्रशासन का पिंजडा (ब्यूरोक्रेसी) उसके हाथ में, लेकिन पिंजड़े के तोते (ब्यूरोक्रेट) में उसकी जान! अब वह क्या करे? सत्ता पर काबिज रहना है, तो इस यथार्थ को स्वीकार करना पड़ेगा! वह तोते को मारकर खुद को मारने का रिस्क कैसे ले सकता है? सो जो सत्ता में है उसकी पार्टी सत्ता के लिए इस मजबूरी को ढोती है, और जो ‘विपक्ष’ में है वह पार्टी सत्ता पर काबिज होने के लिए इसी मजबूरी को ‘सहर्ष’ स्वीकार किये रहती है। और पिंजड़े में पलता, खाता-पीता मोटाता ‘तोता’, निकम्मा हो या भ्रष्ट हो – रटे हुए शब्द ‘राम-राम’ को ‘मरा-मरा’ गाता है और कभी राम-राम को ‘लाम-लाम’ कह कर नाचता है, क्योंकि वह यह जानता है कि पुरानी लोककथा का नया पाठ देश के ‘लोकतंत्र’ का यथार्थ बन चुका है। वह समझ चुका है कि प्रशासन जब शासन की ‘जान’ है तो उसकी जान को तब तक खतरा नहीं जब तक शासन अपनी जान को खतरे में नहीं डाले!

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