दुर्गा पूजा पर विशेष : आधुनिक पार्वती की तपस्या-औरत के आर्थिक अवदान को नकारने की परम्परा
रात-दिन घर की चक्की में पिसती हुई औरत के काम को हमेशा नकारा गया है। “तुम करती क्या हो? सारे दिन घर में पड़ी रहती हो, सब कुछ मिल जाता है।” पुरुष यही सब कहता है। पुरुष की आठ घण्टे की ड्यूटी के आगे स्त्री की चौबीस घण्टों वाली ड्यूटी को तुच्छ माना गया। बार-बार आभास कराया गया कि तुम कमजोर हो, कुछ नहीं कर सकती और जब स्त्री ने अपनी शक्ति को पहचाना तथा घर से बाहर निकलकर आठ घण्टें वाली ड्यूटी में शामिल होकर ये दिखाया कि वह भी सक्षम है तब पुरुष समाज में खलबली मच गई।
बौद्धिक और आर्थिक जगत में पुरुष उसे मर्दों के गुणों से नवाजकर स्त्री गुणों को निम्न साबित करने का प्रयास करता है। …औरत के आर्थिक अवदान को नकारने की परम्परा रही है। पहले गृहस्थी में उसके श्रम को नकारा जाता है, फिर मुख्यधारा में यदि उसे स्थान दिया जाता है तब उस स्त्री को या तो अपवाद मानकर पुरुष वर्ग अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है, या फिर उसे परे ढकेल दिया जाता है।”
आज की पढ़ी-लिखी स्त्री घर बैठकर महज पति की पूजा में तो अपना जीवन नहीं लगा सकती। अच्छे वर की आशा में लड़की व्रत-उपवास और मंदिर के चक्करों में तो नहीं रह सकती। पति और परिवार के साथ आधुनिक युग के प्रगति करते संसार में अपना अस्तित्व भी स्त्री को कायम करना है। रोज आगे बढ़ते पुरुष के साथ उसे भी आसमान की ऊंचाइयों को छूना है। सब कुछ की इच्छा रखने वाली औरत ही स्वतंत्र हो पायेगी।
आधुनिक स्त्री की तपस्या, पार्वती की तपस्या से भिन्न है। वह प्रार्थना करती है, उस प्रार्थना में वह सब कुछ मांगती है क्योंकि आज की पार्वती के लिए केवल पति ही काफी नहीं। पुरुष ने शिव के अलावा सत्य और सुंदर को चाहा तो स्त्री क्यों नहीं अपने जीवन में इसकी मांग करे? स्त्री भी न्याय और औचित्य की बात करेगी। इस नए सृजित संसार में प्रगति का प्रशस्त मार्ग, घर की देहरी से निकलकर पृथ्वी के अनंत छोर तक जाता है। स्त्री को यह समझना होगा।
जीवन की सब इच्छाएं पूरी करने वाली ये स्वतंत्रता यूं ही नहीं मिल जाया करती। इसके लिए संघर्ष करना होता है और स्त्री को अपना हक पाने के लिए अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होती है। …औरत के लिए केवल प्यार ही काफी नहीं। व्यक्ति बनने के लिए उसे और भी बहुत कुछ चाहिए। धन-मान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी कुछ। जीवन शुरू करने उसे भी पुरुष के बराबर की जमीन चाहिए और इस जमीन को समाज से छीनकर लेना पड़ता है। महज अनुनय-विनय से काम नहीं चलता।
इतिहास ने स्त्री के जीवन को पुरुष के हाथ का खिलौना मात्र समझा है। अहल्या इसका साक्षात् उदाहरण है – “भोक्ता इंद्र, विधायक गौतम, मुक्ति-दाता राम क्यों?”पुरुष ने अपनी पाश्विक तृप्ति स्त्री से की और पुरुष ही ने उसे दोषी करार देकर एक आकार में बांध दिया और फिर उसी पुरुष ने मुक्ति का कर्म कर अपने-आप को महान् साबित कर दिया। कब तक स्त्री यूं पुरुष के हाथों की कठपुतली बनी रहेगी? उसे स्वयं अपना उद्धार करना होगा, वरना पुरुष उसे यूं ही सदियों-सदियों तक पत्थर बनाए रखेगा।“मत करो प्रतीक्षा राम की, प्रयास करो प्रस्तर की कारा से मुक्ति का!”स्वयं के प्रयास से प्राप्त की गई आजादी ही सुख दायिनी होती है, दया से दी गई मुक्ति तो सबसे बड़ा बंधन है।
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