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विशेष सम्पादकीय : स्त्री-विद्रोह का बुद्ध-पथ

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विशेष सम्पादकीय : स्त्री-विद्रोह का बुद्ध-पथ

करीब छः साल पूर्व पटना में “अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध समागम (5-7 जनवरी, 2013) सम्पन्न हुआ था। उसमें विश्व स्तर पर अहिंसात्मक समाज की स्थापना में बौद्ध दर्शन की भूमिका से लेकर 21वीं सदी की बढ़ती चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए बौद्ध संस्कृति की भूमिका तक पर व्यापक बौद्धिक विमर्श हुआ। इन विमर्शों में बुद्धकाल के ‘इतिहास’ की कई घटनाओं, उदाहरणों सहित बुद्ध के तर्क एवं उपदेशों का उल्लेख किया गया। एक विमर्श का विषय था — ‘भिखुनी संस्कार का पुनरुत्थान’। इसमें जर्मन, थाइलैंड, श्रीलंका, अमेरिका, इंडोनेशिया की भिखुनी विदुषी महिलाओं ने अपने विचार रखे। उस विमर्श के तहत कुछ दिन पूर्व हुए दिल्ली में छात्रा के साथ गैंग रेप और हत्या (‘निर्भया’  की घटना का भी उल्लेख हुआ। जर्मनी की डॉ. कैरोला रोलोफ ने कहा कि आधुनिक युग में लिंग भेद महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या है। पश्चिमी और एशियाई समाज, दोनों इससे जूझ रहे हैं।

भिखुनी महिलाओं का कहना था कि बुद्ध ने महिला और पुरुष की समानता की बात कही थी। आधुनिक समाज में भी महिलाओं को एक समान अवसर मिलना चाहिए। लेकिन इस विमर्श में भी यह सवाल अनुत्तरित जैसा रह गया कि बौद्ध संघ में महिलाओं का प्रवेश या उनके भिक्षुणी बनने को उस काल में क्या सिर्फ इसलिए आसानी से स्वीकृति मिल गयी कि बुद्ध स्त्री-पुरुष की समानता की बात मानते थे? बौद्ध संघ में महिलाओं का भिक्षुणी बनकर शामिल होना उस काल की स्त्री आबादी के ‘विद्रोह’ का प्रमाण था या नहीं?

स्त्री का स्त्री होने के नाते शोषण-दमन के मुद्दे पर और लैंगिक समानता पर बहस चल पड़ी है, उसमें बौद्ध-धर्म की ‘महिला दृष्टि’ क्या और कैसा सकारात्मक योगदान कर सकती है?

मौर्यकाल के आसपास या उसके कुछ पूर्व के भारतीय जन-जीवन पर जितना अधिक प्रकाश बौद्ध ग्रंथों से पड़ता है, उतने दूसरे स्रोत से नहीं। संस्कृत-भाषा में रचित ब्रह्मण-गंथों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, कौटिल्य अर्थशास्त्र और पुराणों से भी हमारी सामाजिक स्थिति का बहुत-कुछ ज्ञान प्राप्त होता है। किंतु जन-जीवन पर विस्तृत प्रकाश डालनेवाले ग्रंथ पालि-भाषा के ही हैं।उक्त संस्कृत-ग्रंथों की प्राचीनता के संबंध में आजतक विद्वानों में मतभेद चला आ रहा है, पर पालि-भाषा के बौद्ध-ग्रंथों के आधार पर, जो कुछ भी लिखा जाता है, प्राचीनता की दृष्टि से वह मान्य होता है।

बौद्ध ग्रंथों के आधार पर ही, भगवान बुद्ध अथवा मगध के शिशु-नागवंशी सम्राटों के समय की कुछ नरियों के जीवन-वृत्त से तत्कालीन भारतीय नारी-समाज की स्थिति पर बहुत-कुछ प्रकाश पड़ता है। बौद्ध ग्रंथ ही बतलाते हैं कि उनके विचारों और कथाओं की आधारशिला कहां है तथा उनकी रचना की जड़ें उपर्युक्त संस्कृत-ग्रंथों में बिखरी पड़ी हैं।बुद्धकाल (ईसा-पूर्व पांचवीं शती) में भारतीय नारियों की सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। उस समय भी नारियों का प्रमुख कार्य गृह-प्रबंध ही था। गृहकार्य के भीतर गृहशिल्प भी था, जिसमें उस समय की महिलाएं बहुत दक्ष थीं। गृहस्थी का भार स्त्रियों पर बहुत बढ़ गया था। कोसल देश की ‘मुक्ता’ नामक नारी गृहस्थी के कामों से ऊबकर बौद्ध भिक्षुणी हो गयी थी। वह इस बात के लिए अत्यंत प्रसन्न थी कि उसे तीन टेढ़ी वस्तुओं – ऊखल, मूसल और कुबड़ा पति से – छुटकारा मिल गया।

केवल उच्च वर्ग की स्त्रियां ही सामाजिक कार्यों में हाथ बांटती थीं। सर्वसाधारण स्त्रियों को न तो वैसी शिक्षा प्राप्त होती थी और न उन्हें गृहकार्य से अवकाश ही मिल पाता था। पति की ‘आज्ञाकारिणी’ होना उनके लिए आवश्यक था। आर्थिक मामले में न तो वे स्वतंत्र थीं और न पति के धन पर ही उनका अधिकार होता था। पर्दा प्रथा की कड़ाई तो नहीं थी, परंतु पर्दे की एक मर्यादा अवश्य थी।लड़कियां बेची और खरीदी भी जाती थीं। विशेष स्थिति में पति और पत्नी की ओर से तलाक की प्रथा भी थी। सगोत्र विवाह होता था। स्त्रियों पर अनाचार और बलात्कार उस समय भी होता था, पर इसके लिए राजा की ओर से कड़ा दण्ड दिया जाता था। वेश्व-प्रथा उस समय भी थी और समाज में उत्तम कोटि की वेश्याओं की बड़ी धाक तथा प्रतिष्ठा थी।

न्याय के लिए स्त्रियां न्यायलय की भी शरण लेती थीं।। समाज में कन्या का जन्म उस समय भी उत्साहवर्द्धक नहीं था। राजा-महाराजा कन्या के पिता से बलपूर्वक भी लड़कियां छीन लेते थे। कन्या के पिता भी अपनी लड़की को उन्हें प्रसन्न करने के लिए धन की तरह सौंप देता था। पुरुष का स्थान नारी से श्रेष्ठ था। ऐसी श्रेष्ठता बौद्धसंघ में भी कायम थी।‘विनयपिटक’ के कई प्रकरण इस बात की गवाही देते हैं कि बौद्ध संघ में भिक्षुणियों के लिए जैसे कठोर नियम बनाये गये थे, वैसे भिक्षुओं के लिए नहीं। भिक्षुणिओं की एक ही आवास में शयन करने का निषेध किया गया, जबकि भिक्षुओं के लिए ऐसा निषेध नहीं था।संघ में नारियों के प्रवेश से भगवान बुद्ध संतुष्ट नहीं थे। फिर भी, समाज में ऐसी नारियां उस समय भी थीं, जो पुरुषों की बराबरी करती थीं तथा ज्ञान-विज्ञान में भी अग्रणी थीं।

समाज-सुधार के कामों में ‘जैन’ और ‘बौद्धसंघों’ ने उस समय क्रांतिकारी कदम उठाया था। नारियों के उत्थान-कार्य में भी इन दोनों संघों ने बहुत बड़ा हाथ बंटाया। बौद्ध भिक्षुणियों के संघ के पहले ही जैनसंघ में भिक्षुणियों का संघटन हो गया था। जैनों की देखा-देखी ही भिक्षु ‘आनंद’ ने बौद्धसंघ में नारियों का प्रवेश कराया था, क्योंकि आनंद को बौद्धसंघ एकांगी दीख रहा था। बौद्धसंघ में जब नारियों के प्रवेश का द्वार खुला, तब बुद्ध की मौसी महाप्रजापति गौतमी एक साथ पांच सौ नारियों को लेकर संघ में घुसी और उसने तुरंत एक अलग भिक्षुणी-परिषद स्थापित कर ली। भिक्षुणी-परिषद को सुद्ढ़ बनाने में जिस नारी ने सबसे बड़ा काम किया, बौद्ध इतिहास में वह ‘विशाखा’ नाम से प्रसिद्ध है।

बुद्धकाल के प्रारंभ में भी समाज और हर राजनीतिक-धार्मिक संस्थान पर पुरुष-सत्ता का वर्चस्व एवं प्रभाव कायम था। बुद्धिहीन और अज्ञानी पुरुष भी स्त्रियों के मुख से उपदेश ग्रहण करना अपना अपमान समझते थे। उनका पौरुष केवल औरतों को दबाने और जलील करने में प्रयुक्त होता था। जब बुद्ध-पंथ के प्रचार कार्य के लिए महिलाएं निकलती थीं, तो लोग उनके विचार और उपदेश सुनने के बदले उनसे प्रणय निवेदन करते थे।‘क्यों अपना यौवन बरबाद कर रही हो’, अकेली भिक्षुणी (धर्मप्रचारिका) को रोककर किसी ‘वीर पुरुष’ ने यह प्रश्न किया।अपनी नेक सलाह और सुझावों द्वारा वह उसे आश्वस्त नहीं सकी, उसकी जगह कोई ‘भिक्षु’ होता तो वह निश्चय ही सुनता, किन्तु अभी तो भिक्षुणी के सुन्दर आंखों पर वह कविता कर रहा था। जवाब में भिक्षुणी ने अपने आंखें निकाल कर उसकी हथेली पर रख दीं।

यह कहानी रक्तरंजित लगते हुए भी यह दर्शाता है कि स्त्रियों के प्रति पुरुषों के कौन से भाव थे। और, कैसी विकृत मनोवृत्ति का शिकार औरतें हो रही थीं। परिस्थिति देखकर गौतम ने उन्हें तीन-चार के झुंड में रहने को कहा। आखिर में अपनी प्रतिभा और आत्मबल पर धम्मदिना, कंजगला, कृशागौतमी, नन्दा, भद्रा इत्यादि अनेक भिक्षुणियों ने धर्मप्रचारिका के रूप में मान्यता और प्रतिष्ठा पायी। लोग उनके उपदेश बड़ी श्रद्धा से, बड़ी संख्या में आ आकर सुनते थे। संघ ने युगों से सतायी एवं शोषित नारी को वह मंच प्रदान किया जहां उनकी विषाद भरी पीड़ाएं विद्रोह भरी आवाज में बदलीं।

पटाचारा ने अपनी इच्छा से नीची जाति के पुरुष से विवाह किया। वह हिम्मत उसे तत्कालीन क्रांतिकारी वातावारण ने दिया होगा। किन्तु उसे कड़ी सजा भुगतनी पड़ी। उसके पति की मृत्यु संदिग्ध अवस्था में हुई और माता-पिता घर में आग लग जाने (या लगा देने) के कारण भस्म हो गये। कुटुम्ब ने उसे बहिष्कृत कर दिया। वह विक्षिप्त-सी नंगी सड़कों पर घूमने लगी। लोग उसे पत्थर मारते और गालियां देते थे। ऐसी अवस्था में ही वह एक दिन उस सभा के नजदीक पहुंची, जिसे सिद्धार्थ गौतम सम्बोधित कर रहे थे। गौतम ने पटाचारा की व्यथा सुनी और लोगों को फटकारा। उसी वक्त उन्होंने भरी सभा में पटाचारा को संघ में शामिल किया। जो कार्य समाज को सर्वथा अमान्य था, संघ ने उसे मान्यता प्रदान की। पटाचारा ने संघ की सबसे अधिक योग्य और विदुषी महिला के रूप में प्रतिष्ठा पायी।

अम्बपाली की व्यथा और गहरी थी। गांव की इस भोली लड़की को वैशाली की नगरवधु बनाकर आजीवन वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर किया गया था। यह नियति केवल अम्बपाली की ही नहीं थी, बल्कि उस समय हर गांव और राज्य में ऐसी नगरवधुओं की नियुक्ति राज्य द्वारा की जाने की परम्परा थी। अम्बपाली इनमें सबसे अधिक प्रतिभाशाली और विद्रोही प्रकृति की थी। अपने को भोगसामग्री बनाकर स्वयं अपराधबोध की यंत्रणा सहते रहना उसकी प्रकृति के विरुद्ध था। इतिहास ने अम्बपाली के विद्रोह पक्ष को कभी उजागर नहीं किया। किन्तु अम्बपाली के बाद अनेक नगरवधुओं का (उज्जैन, बनारस इत्यादि) संघ में शामिल होना और बाद में इस रिवाज का समाप्त हो जाना, इस बात की गवाही है कि अम्बपाली ने वीभत्स और क्रूर परम्परा के विरुद्ध सशक्त विद्रोह खड़ा किया होगा।

समेधा ने भी उस परंपरा को तोड़ा, जो महिलाओं को संकुचित दायरे में बांधता है। समाज इस बात को स्वीकार नहीं करता था कि कोई लड़की अविवाहित रह कर भी निष्कलंक और प्रतिष्ठित जीवन जी सकती है। अत: विवाह उनके लिए अनिवार्य था। सुमेधा सम्पन्न परिवार की लड़की थी। वह विदुषी और वाक्पटु थी। जब उसने विवाह न करने का निर्णय लिया, तो कुटुम्ब में खलबली मच गई। माता-पिता सर पीटने लगे। उसे पूर्व मान्यता अनुसार दलील देकर समझाया गया। किन्तु उस विदुषी महिला ने तर्क-संगत तरीके से तमाम थोथी दलीलों का खंडन किया। सुमेधा को अपनी बात मनवाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। वह सप्ताह भर अनशन पर रही। अन्त में उसे अविवाहिता रहने की अनुमति मिली। सुमेधा गौतम की अनुयायी थी, अत: उसने संघ में शामिल होकर बड़े उत्साह और ओजस्विता से बुद्धिवादी सिद्धांतों का प्रचार किया।

उस युग की अनेक क्रांतिकारी विदुषी महिलाओं की आत्मकथा ‘थेरीगाथा’ ग्रंथ में संकलित हैं। हर एक की कहानी नारी की त्रासदी और उससे छूटने के लिए कठिन संघर्ष की कहानी है। उनके प्रयासों से महिलाओं के कितने ही बन्धन टूटे। उनके जीवन का रूप और अर्थ बदला।

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