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हमारी संस्कृति औरत को ‘पूजा’ की देवी एवं ‘दया’ की मूर्ति के साथ मानती है ‘भोग’ की वस्तु

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हमारी संस्कृति औरत को ‘पूजा’ की देवी एवं ‘दया’ की मूर्ति के साथ मानती है ‘भोग’ की वस्तु

सिटी पोस्ट लाइव डेस्क : हमारी संस्कृति औरत को ‘पूजा’ की देवी एवं ‘दया’ की मूर्ति के साथ ‘भोग’ की वस्तु मानती है, लेकिन ‘इंसान’ मानने को तैयार नहीं। इस संस्कृति से भारत के जनजीवन में यह प्रवृत्ति संस्कार के रूप में जड़ जमा चुकी है कि औरत का अस्तित्व पुरुष का अनुसरण करने में है, न कि पुरुष के बराबर चलने में। पुरुष उसे ‘गुलाम’ समझता है। हमारे समाज में एक ओर पुराणपंथी हैं तथा दूसरी ओर उपभोक्ता संस्कृति के उपासक, किंतु दोनों ही औरत को ‘वस्तु’ बनाकर रखना चाहते हैं। संस्कृत-ग्रन्थों से उदाहरण चुननेवाले विद्वान तथा अंग्रेजी पढ़कर अपने को ‘सभ्य’ समझनेवाले आधुनिक शिक्षित, दोनों तरह के लोगों के ‘दृष्टिकोणों’ में औरत के अस्तित्व और अस्मिता के मामले में असहमति की रेखा बेहद धूमिल है।

हमारे देश में पूंजीवाद के विकास होने के बावजूद सामंती रिश्ते कायम हैं। हमारा आर्थिक आधार पूंजीवादी है, किंतु सामाजिक ढांचे के मूल्य सामंती हैं। दोनों में ही औरत ‘दोयम’ दरजे की नागरिक है। एक तरफ सामंती क्रूरता एवं अत्याचार की बर्बरता का हमला औरत पर जारी है जो हमारी संस्कृति एवं कथित उच्च परम्पराओं एवं मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगाती है। दूसरी तरफ आज के उपभोक्तावाद से ग्रस्त आधुनिक संस्कृति में औरत का अपमान और इस्तेमाल नए-नए रूपों में प्रकट हो रहा है। हमारे मीडियातंत्र का विकास भी औरत के ‘शरीर’ के ‘प्रदर्शन तथा ‘सेक्स’ भड़काने पर टिका है। यह नयी चीज नहीं है। इसका रिश्ता उन कथित मूल्यों में भी निहित है, जिसे हम विरासत के रूप में ढो रहे हैं। यह महज अनावृत प्रकृति या इंसानी सौंदर्य का दर्शन-दिक्दर्शन की सीमा-संभावना का नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता और संस्कृति के मूल्यों के ‘खोखलेपन’ को उजागर करते हैं।

संसद से सड़क तक की ‘बहस’ की सीमाएं हमारी स्पष्ट ‘दृष्टि के अभाव’ का सूचक हैं। यह अभाव समाज की अनेक बुराइयों और उसमें भी औरत पर होनेवाले जुल्मों एवं अन्यायों के जड़ में है। इसे समझे बिना हम नये समाज की ‘रचना के संघर्ष’ में सफल नहीं हो सकते। औरत की जलालत का मुद्दा संस्कृति की उन मान्यताओं से जुड़ा है, जिसमें कहा गया है कि ‘औरत’ को छू जाने से ‘मन’ गंदा होता है तथा शूद्र के छू जाने से ‘तन’।

क्रांतियों के इस युग में औरत-मुक्ति का संघर्ष भी तेज है। पुरुष-प्रधान समाज को यह स्वीकार नहीं है। नारी-मुक्ति की बात ने पुरुष को असहिष्णु बना दिया है, क्योंकि उसका नेतृत्व और अधिकार खतरे में है। इस कारण औरत पर पुरुष का हमला तेज हो गया है। हमने पौराणिक आख्यानों से लेकर इतिहास की कथाओं तक में देखा है कि स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली औरतों को क्या मिला? द्रौपदी इसका उदाहरण है, जिसको ‘सत्ता’ का एक पक्ष जुए में हारता है और दूसरा पक्ष चीरहरण करता है।

आज का पुरुष-जुल्म औरत-मुक्ति के आंदोलन को दबाने के षड्यंत्र का एक अंग है। समाज औरत को खास नजरों से बेधता रहा है तथा बेध रहा है। कभी वह ‘देवी’ बनायी गयी तो कभी ‘ताड़का’ की संज्ञा दे ‘राक्षसी’ बनायी गयी। उसे बार-बार अपने ‘सतीत्व’ का प्रमाण आग में जलकर देना पड़ा है। किन्तु पुरुष उसे सर्वदा शक एवं उपेक्षा की दृष्टि से देखता रहा है। वह पुरुष के इज्जत का पैमाना है, भोग का उच्चतम साधन है। हमारा समाज इससे अधिक औरत को कुछ मानने को तैयार नहीं है।

लेकिन आज स्थिति बदल रही है और औरत अपनी चेतना एवं अधिकारों के प्रति सजग हो रही है। ख़ास तौर से, ‘दिल्ली गैंग रेप’ के बाद से देश भर में ‘बलात्कार’ के खिलाफ बुलंद आक्रोश को एक ‘टर्निंग पॉइंट’ के रूप में देखा जा सकता है। उस आक्रोश पर राजनीतिक प्रभुओं एवं सत्ता-तंत्र की प्रतिक्रिया के साथ-साथ उसी दौरान और फिर आज तक देश के विभिन्न राज्यों में जारी ‘बलात्कार’ की घटनाएं देश की नयी पीढ़ी को इतना तो समझा ही चुकी हैं कि हमें समाज में आमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा। यानी आज समाज में जो आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक ढांचा है, उसको बदलना होगा। अन्याय, शोषण, दमन और गैरबराबरी को बढ़ाने और टिकाये रखनेवाले मूल्यों को बदलना होगा। समाज परिवर्तन की प्रक्रिया तेज होगी, तो ‘व्यक्ति’ पर इसका असर होगा। यानी समाज बदलेगा तो व्यक्ति बदलेगा। लेकिन व्यक्तिगत स्वार्थ, बेईमानी, झूठ, धोखा, अविश्वास की प्रवृत्तियों को खत्म करने के लिए नये प्रयास भी करने होंगे, नैतिक और सांस्कृतिक क्रांति छेड़नी होगी। इससे समाज में बुनियादी परिवर्तन की प्रक्रिया तेज होगी। यानी ‘व्यक्ति’ बदलेगा तो समाज बदलेगा।

लेकिन आज पूरे देश में गूंजती स्त्री-आवाज का एक खास मैसेज है। वह यह कि बदलाव के इस संघर्ष में जब तक औरत की समान भागीदारी नहीं होती, तब तक संघर्ष अधूरा रहेगा और इससे होने वाले परिवर्तन भी अधूरे रहेंगे। औरत के सहभाग बिना कोई भी संघर्ष ‘सही और सफल’ भी नहीं हो सकता।

पिछले कई बड़े और प्रेरणादायी आंदोलन और संघर्ष के अनुभव हमें बताते हैं कि उनमें औरत की भागीदारी बहुत कम रही है, बिल्कुल न के बराबर रही है। कभी-कभार व्यापक जन-आंदोलन में महिलाएं शामिल हुर्इं भी, तो देखा गया कि संघर्ष के लम्बे दौर में उनकी संख्या और हिस्सेदारी धीरे-धीरे घटती गयी है, और कुछ महिलाओं को छोड़कर बाकी सारी महिलाएं अपने-अपने घर लौट गयी हैं। परिवर्तन के संघर्षों में महिलाओं की भागीदारी कम होने का मुख्य कारण है — संघर्षों में हिंसात्मक साधनों का प्रयोग। आंदोलन में शांतिमय साधनों के प्रयोग से महिलाओं की भागीदारी निश्चित रूप से बढ़ती है। लेकिन पूर्व के आंदोलन इस बात की ओर भी संकेत करते हैं कि औरतों की निर्णायक और नेतृत्व में बराबर की भूमिका का न होना उन आंदोलनों में औरतों की भागीदारी कम होते जाने और उनके अधूरेपन और असफलता का प्रमुख कारण है।

आज बलात्कार के खिलाफ बुलंद देश की आधी आबादी (स्त्री) की आवाज में बेटी के बाप या मां के बेटे या बहन के भाई होने के नाते अपनी आवाज शामिल करने को तैयार पुरुष-समाज क्या यह स्वीकार करेगा कि बलात्कार के खिलाफ उठा स्त्री-आक्रोश आज पूरे देश में बदलाव की जरूरत को रेखांकित कर रहा है? कि इसके लिए संभावित संघर्ष में औरत को निर्णायक और नेतृत्व की भूमिका में होना चाहिए, अन्यथा यह संघर्ष भी असफल होने को अभिशप्त होगा? कि किसी भी बदलाव के संघर्ष को ‘जिसका संघर्ष, उसका नेतृत्व’ का मंत्र ही सफलता की मंजिल पर पहुंचा जा सकता है? क्या आज औरत की आवाज में अपनी आवाज मिलाने को तैयार पुरुष-समाज को यह मंत्र स्वीकार है?

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