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नवरात्र विशेष- 10 अक्टूबर से सार्वजनिक-सांस्कृतिक ‘उत्सव’ का समय

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नवरात्र विशेष- 10 अक्टूबर से सार्वजनिक-सांस्कृतिक ‘उत्सव’ का समय शुरू

सिटी पोस्ट लाइव डेस्क : देश में 10 अक्टूबर से सार्वजनिक-सांस्कृतिक ‘उत्सव’ का समय शुरू होगा। उत्सव के दो रूप होंगे। एक ‘नवरात्र’ और दूसरा ‘दशहरा’। एक महिषासुर मर्दिनी, स्त्री रूपिणी देवी ‘दुर्गा’ की शक्ति की जीत को मनाने का उत्सव और दूसरा रावण को मारने वाले अवतारी पुरुष ‘राम’ की जीत को मनाने का उत्सव। ये दोनों उत्सव, देश के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अलग-अलग या/और साथ-साथ जिस रूप में मनाये जाते हैं, उससे ‘धर्म के सांस्कृतिक रूपांतरण’ और ‘संस्कृति के धार्मिक रूपांतरण’ के ‘इतिहास’ को जाना-पहचाना जा सकता है। इससे यह जानकारी मिल सकती है कि जहां मुख्यतः (पूर्वोत्तर भारत में) ‘शारदीय नवरात्र’ में ‘दुर्गापूजा’ धूम-धाम होती है और जहां मुख्यतः (उत्तर भारत के दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार आदि में) ‘दशहरा’ में ‘रावण वध’ का जोश-जश्न बुलंदी पर होता है, वहां-वहां सभ्यता की सदियों की यात्रा में एक का दूसरे पर क्या प्रभाव हुआ, कैसे हुआ और कितना हुआ? लोक-जीवन में दोनों उत्सवों के प्रयोग और परंपरा कौन-कौन से ‘पहलू’ प्रभावी रहे, किन पहलुओं का निषेध हुआ?

यूं दोनों ‘उत्सवों’ से जुड़ी ‘संघर्ष और विजय की घटनाएं ‘पौराणिक’ हैं, यानी किसी ज्ञात काल की सीमा में नहीं आतीं, उनकी उत्पत्ति के ‘समय’ की इतिहास-रूप में गणना संभव नहीं। इसलिए वे कथाएँ ‘मिथक’ हैं, ‘इतिहास’ नहीं। जिसे हम ‘भारत का ‘इतिहास’ कहते हैं, उसे ‘इतिहास’ इसलिए कहते हैं कि उसमें हर घटना या कथा के जन्म या उत्पत्ति का समय ‘ज्ञात’ है और उसके कार्य-कारण विवरण और व्याख्याएं कमोबेश ज्ञात काल-खंड में ‘देश के ज्ञात भौगोलिक क्षेत्र और स्थानीय ‘पात्रों’ की स्पष्ट पहचान पर आधारित हैं।

पौराणिक काल की ‘मिथकीय’ घटनाओं के प्रचलित विवरण और व्याख्याओं से आज इन सवालों का ‘सही’ जवाब खोजा जा सकता है कि भारत का कौन सा भू-भाग ‘धर्म की सत्ता’ और ‘सत्ता का धर्म’ की अवधारणाओं के विकास, विस्तार और बदलाव के मामले में उद्गम स्थल रहा है या प्रयोग स्थल? धर्म की सत्ता हो या सत्ता का धर्म, दोनों के नियमन और संचालन-नियंत्रण में किसकी प्रधानता या किसका वर्चस्व रहा? स्त्री-समाज का या पुरुष-समाज का? क्या पौराणिक काल के ऐसे मिथकीय दृष्टांत या कल्पित घटनाएं हैं, जो तत्कालीन समाजों में दैवी ‘शक्ति’ के धार्मिक रूप ‘समान’ होने का बोध कराएं? जिनमें ‘स्त्री’ रूप में अवतरित देवी और ‘पुरुष’ रूप में अवतरित देव की भौतिक या कायिक या लौकिक भिन्नता उनकी दैवी या अलौकिक गुणों की उच्चता या श्रेष्ठता की ‘असमानता’ को रेखांकित नहीं करती?

वैसे, पौराणिक कथाओं पर आधारित सांस्कृतिक ‘उत्सवों’ के विविध रूपों के ‘विकास’ के ‘इतिहास’ से यह जाना जा सकता है कि कौन-सा भू-भाग भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक एवं राजनीतिक भूगोल के निर्धारण का शक्ति केंद्र रहा है? कौन-सा भू-भाग भारतीय राष्ट्र के अस्तित्व व अस्मिता के उस मूल सूत्र का संवाहक रहा है जो आज भी ‘विविधता में एकता’ के रूप में संकल्पबद्ध है? वर्तमान में, उत्सवों में ‘स्त्री’ की बढ़ती या कमती भागीदारी विविधता के भौतिक रूपकार की सीमा और सांस्कृतिक एकता की संभावना के किन आयामों का संकेत करती है?

क्या इन सवालों पर युवा पीढ़ी सोचती है? क्या सोचती है? आज हमारे देश में एक तरफ ‘इतिहास के मिथकीकरण’, तो दूसरी तरफ ‘मिथकों के इतिहासीकरण’ के विविध ‘खेल’ चल रहे हैं। इन खेलों का सूत्रधार है हमारे देश का प्रभु-वर्ग। इस वर्ग के लोग, अपनी प्रभुता की सत्ता कायम करने और रखने के लिए इन खेलों के आयोजक भी हैं, मुख्य खिलाड़ी भी और रेफरी भी। देश का प्रजा-वर्ग इसका दर्शक, जो इनके खेलों ‘परिणाम’ और ‘प्रभाव’ का भुक्तभोगी है। इसमें देश की युवा पीढी किस ‘भूमिका’ में रहना चाहती है? महज दर्शक? निर्धारित खेलों के खिलाड़ी या रेफरी? या फिर गेम चेंजर?

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