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संस्कृति की सांप्रदायिकता : सांप्रदायिकता की संस्कृति – 4         

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संस्कृति की सांप्रदायिकता : सांप्रदायिकता की संस्कृति – 4  

       
संस्कृति में निहित सत्ता-शक्ति को परखें तो भारतीय संदर्भ में उसके तीन रूप दिखते हैं। तीनों की अलग-अलग पहचान, लेकिन परम्परा में तीनों एक दूसरे से जुड़े हुए –  एक दूसरे को नियंत्रित-संतुलित करने के लिए। एक भौतिक शक्ति या सत्ता, दूसरी लौकिक सत्ता और तीसरी नैतिक सत्ता। भौतिक सत्ता तो सामान्य जन के जीवनचक्र में निहित स्थैतिक और गत्यात्मक स्थिति की अभिव्यक्ति है। आप क्या कमाते हैं? कैसे कमाते हैं? क्या खाते हैं? भोजन कैसे बनाते हैं? मकान या घर कैसे बनाते हैं? कलाएं क्या हैं? लोकरंजन की चीजें क्या हैं? – ऐसे सवाल भौतिक सत्ता के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। यह सत्ता परिवार और समाज की अवधारणा और विकास पर निर्भर है।

दूसरी यानी लौकिक सत्ता राज्य और शासन के अधिकार और दायित्व के दर्शन-चिंतन से निकलती है। राज करनेवाला राजा होता है, लेकिन उसे राज करने की शक्ति कहां से प्राप्त होती है? उस शक्ति की मर्यादा या सीमा क्या और कहां है? और, तीसरी सत्ता है नैतिक सत्ता। यह त्याग से पैदा होती है और भौतिक एवं लौकिक सत्ता पर अंकुश ड़ालती है। गरीबी भौतिक सत्ता की कमजोरी हो सकती है, लेकिन स्वैच्छिक गरीबी नैतिक सत्ता का असली बल साबित हो सकती है। कुर्सी यानी प्रजा की सम्पत्ति व तलवार की ताकत राजा की सत्ता का प्रतिपादन करती है, लेकिन राजा उपभोग एवं उपयोग में उससे ऊपर या परे स्थितप्रज्ञ की भूमिका में हो तो यह उसकी नैतिक सत्ता के ‘विदेह बल’ का प्रमाण बनती है।

इन सब दार्शनिक अवधारणाओं और परम्परा की धारावाहिकता में दिखते प्रतिमानों (मॉडल) के बावजूद इतिहास का कड़ुवा सच यह है कि हम गुलाम हुए – देश गुलाम रहा। इस सच को पचाने या इससे टकराने की कोशिश में अक्सर बहस यहां आकर अटक जाती है कि हमारी संस्कृति पर बाहर का हमला कितना बड़ा और जबर्दस्त था। कि हम किस तरह उसके शिकार बन गये! आजकल इस तरह के बहस-विमर्श में अक्सर एक कारुणिक दृश्य उपस्थित हो जाता है। विमर्श में शामिल लोग उस लोक-कथा के पंछियों जैसे लगने लगते हैं, जिसमें पंछी यह गाते हुए शिकारी के जाल में फंसते जाते हैं – ‘शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लोभ में फंसना नहीं।’ यानी पहले हम बाहरी हमलावर संस्कृति के निरीह शिकार हुए और अब उसके मूक उपभोक्ता बन गये!

इस कारुणिक दृश्य पर भी ‘विभाजित चेतना’ (डाइकोटमाइजेशन ऑफ कांशसनेस) और ‘औपनिवेशक मानस’ से छुटकारा पाने के संदर्भ में आजकल तीखी बहस होती है, लेकिन उसमें हमारे – हमारी संस्कृति – के अंदर की थकन और कमजोरी के बारे में चर्चा कम होती है। इसकी चर्चा नहीं होती कि जो सांस्कृतिक एवं दार्शनिक अवधारणाएं किसी समय में हमारी ताकत के स्रोत रहीं, वही हमारी कमजोरी और गुलामी का कारण क्यों और कैसे बन गयीं? “वसुधैव कुटुम्बकम” की हमारी अवधारणा ‘कोऊ नृप होवे हमें का हानि’ के चिंतन में ढल गयी – उधर रियासत पर कब्जा के लिए शासकों के बीच युद्ध होते थे और बगल में प्रजा खेती के लिए जमीन जोतती रही! हमारे नैतिक बल ने भौतिक-लौकिक सत्ता पर नियंत्रण करने की बजाय उसका निषेध किया! आंतरिक मुक्ति के चिंतन ने बाहरी गुलामी को स्वीकार कर लिया!
हमारे सांस्कृतिक चिंतन ने समाज में श्रम विभाजन, परिवार, कुल, गोत्र आदि व्यवस्थाओं का प्रतिपादन किया, व्यक्ति और समाज के बीच के संबंधों को निरूपित करने के लिए प्रत्येक व्यवस्था के घेरे को इतना मजबूत और सम्पूर्ण बनाया – व्यक्ति को ऐसा सहारा दिया और उसके अकेलेपन को खत्म करने का ऐसा इंतजाम किया – कि उसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वयत्तता ही खत्म हो गयी! क्या यह हमारी बरसों की गुलामी या गुलाम मानसिकता की ‘जमीन’ नहीं है? हमने अंग्रेजों की गुलामी आसानी से स्वीकार कर ली, उसकी एक वजह यह भी नहीं है? कहने का आशय यह कि बाहर की गुलामी की खास वजह भीतर की थकन और सड़न भी हो सकती है, इस पर भी सोचना चाहिए। (जारी)
(विजय प्रताप, नयी दिल्ली)

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