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सिटी पोस्ट लाइव विमर्श –3 :  कास्ट, क्लास और मास के बीच रास्ते की तलाश

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                           सिटी पोस्ट लाइव विमर्श – 3 : कास्ट, क्लास और मास के बीच रास्ते की तलाश

दिल्ली से लेकर पटना तक के प्रभु वर्ग की ओर से बिहार सहित अन्य प्रदेशों के अंतिम आदमी की चेतना में ‘विकास’ के मायने को तीन कारकों में रूपायित किया जा रहा है – सड़क, बिजली और पानी। फिलहाल मुख्यतः इन तीन चीजों के निर्माण और उसके समान एवं न्यायसंगत वितरण की ही स्ट्रैटजी बनाने की कोशिश चल रही है। आम बिहारी की स्वाभाविक व सहज धारणा है कि इस स्ट्रैटजी का उद्गम गांधी-लोहिया-जेपी जैसों की चिंतनधारा और स्थापनाएं या और स्पष्ट कहें तो कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादी राजनेताओं का जमीनी संघर्ष है। इसका मोटा अर्थ यह है कि उसने जिस प्रभुवर्ग के हाथ में राजनीतिक सत्ता सौंपी वे आज जो कुछ कर रहे हैं, वह विकराल पूंजीवाद के खिलाफ समाजवादी संघर्ष एवं रचना की ऐतिहासिक धारा या कड़ी है।

तो क्या इसे सही माना जाए कि पार्टी, प्रशासन, लोकतंत्र सब में और सब पर हावी निरंकुश और लोकलाजविहीन पूंजीवाद में वर्तमान शीर्ष राजनीतिक सत्ता को ‘समाजवादी प्रबंधन’ के उन सूत्रों की तलाश है? तमाम शुभकामनाओं के बावजूद बेचारा यानी ‘पिछड़ा’ आम बिहारी इस सवाल से परेशान है।

वह चाहकर भी शासक-वर्ग की वर्तमान डेवलपमेंट स्ट्रैटजी के प्रति मन में उभरती शंका को दबा नहीं पा रहा है! क्यों? उसके जलते-बुझते मौन चेहरे से सिर्फ यह अंदाज लगाया जा सकता है कि वह शासक-वर्ग की स्ट्रैटजी पर सबसे ज्यादा ‘ताली बजानेवाले’ जाने-पहचाने चेहरों को देख कर सशंकित है! इस वजह से आम बिहारी सशंकित है, इस पर शायद हर शिक्षा, संपत्ति और राजनीति की सत्ता से संपन्न प्रभुवर्ग को हंसी आ सकती है। प्रभुवर्ग लोग संभवतः इसे बिहार के ‘पिछड़ेपन’ की निशानी मान कर तरस खाएं। लेकिन यह एक वास्तविकता है। आम ‘बिहारी’ पहचानता है कि ये ताली बजाने वाले विद्वान लोग आम आदमी की चेतना को सदियों से पीढ़ी-दर पीढ़ी संचालित और नियंत्रित करते आ रहे बौद्धिक वर्गों के जन्मजात उत्तराधिकारी हैं! ये वर्ग सदियों से हर सत्तापक्ष के लिए ताली बजाने की कला को ज्ञान-विज्ञान के रूप में प्रस्तुत करते आये हैं। और, देखते-देखते हर सत्ताधारी प्रभुवर्ग में शामिल हो जाते हैं। यहां तक कि हर किसिम के सत्ताधारी प्रभुओं के वे ‘मुख्य योजनाकार’ भी बन जाते हैं! इनके बारे में बिहारी जनता बरसों बाद भी बहुत कुछ नहीं जान पाती, इस अनुभवजनित तथ्य के सिवा कि सिर्फ सत्तापक्ष के लिए ताली बजाने का जो काम बिहारी जनता के लिए सबसे कठिन और सबसे महंगा ‘काम’ साबित होता आया है, वही ऐसे विद्वानों के बुद्धि-कौशल और बौद्धिक ताकत का स्रोत है! ये बौद्धिक वर्ग जनता के लिए किसी सिद्धांत को वस्तुनिष्ट आकार देने की स्ट्रैटजी का समर्थन या सहयोग तब तक नहीं करते, जब तक उस सिद्धांत का वाहक व्यक्ति, वर्ग या दल राजनीतिक सत्ता पर काबिज नही होता! अलबत्ता, ये वर्ग किसी भी विजयी सत्तापक्ष की किसी भी स्ट्रैटजी को ‘पैराडाइम शिफ्ट’ साबित करने और उसे ऐसा सैद्धांतिक ‘जामा’ पहनाने में माहिर होते हैं। इस मामले में वे इतने माहिर होते हैं कि अक्सर सत्तापक्ष अपने मूल सिद्धांतों से गाफिल हो जाता है – वह खुद अपने सिद्धांत का ‘पाजामा’ पहनने तक को बेमानी मान लेता है – वह अपने नंगेपन को ही अपना सिद्ध-अंत मान लेता है!

अब आप ही देखिए न, ताली बजाने में माहिर बौद्धिक वर्ग के लोग आजकल सड़क-बिजली-पानी की व्यापक व्यवस्था एवं वितरण की स्ट्रैटजी को ‘आधारभूत संरचना का क्लास न्यूट्रल सिद्धांत’ साबित करने की कोशिश में पिला हुए हैं। उनको इस बौद्धिक-श्रम में पसीना चुआते देख अपने पसीने की कमाई पर जिंदा रहने के लिए मरणासन्न बिहारी को भी लगाता है कि ये लोग महान कार्य कर रहे हैं,  इसलिए यह अवश्य सर्वजनहिताय है। सो वह अब अपनी गरीबी का रोना भी नहीं रोता यह सोचकर कि उसके ‘रुदन’ को कहीं इन महान-कार्यों के विरोध-अवरोध की विपक्षी साजिश न मान लिया जाए!

गरीब से गरीब बिहारी बिहार को खाने और पचाने में बरसों से सिद्ध साबित प्रभुओं को विभिन्न परियोजनाओं की योजनाकार-टीम में शामिल देख अब गुस्साता भी नहीं। हालांकि अभाव में आनंद मनाने की अपनी पुरानी आदत के मारे वह हंसने से बाज नहीं आता। लेकिन यह हंसी-ठिठोली भी आजकल प्रभु वर्ग को अपने ऊपर प्रहार जैसी लगती है। अब वह क्या करे? उसे समझ में नहीं आता, इसके सिवा कि वह भी स्वच्छाग्रह के गागर में सत्यग्रह के सागर को भरने की आधुनिक प्रभुओं की करतूतों को देख  मुस्कराते गांधी बाबा के पोस्टर बन जाए! आखिर जान बचेगी तब न लाखो पायेगा?

गरीब बिहारी आज पूंजीवादी उदारता की एक और चतुराई पर चकित है! आज सड़क-बिजली-पानी जैसी निर्मितियों को ‘वर्ग निरपेक्ष’ करार देकर विकास का सबसे पहले और सबसे ज्यादा उपभोग करने वाले प्रभुवर्ग को ‘वर्ग विहीन’ सिद्ध किया जा रहा है। यानी सबसे ऊंचे ‘क्लास’ को ‘मास’ बनाया जा रहा है। वाह! यही तो है असली विकास – वर्गरहित समाज निर्माण की बुनियाद! लेकिन यह समझ भी आम बिहारी में गुदगुदी पैदा कर रही है। यह कमबख्त गुदगुदी कहीं हंसी बनकर फूटेगी, तो आफत ढायेगी,  इसलिए वह इन्फ्रास्ट्रक्चरल निर्मितियों के सिलसिले में किये जा रहे विकास-प्रयासों को अब ‘लूट और लोभ की नयी स्ट्रैटजी’ कहकर नकारना बंद कर दिया। लेकिन वह अपने अब तक के ‘अनुभव’ को कहाँ दफ़न करे? वह तो अपने शासकों पर भरोसा करने की भरसक कोशिश कर रहा, लेकिन अपने अनुभव से अर्जित इस इतिहास-ज्ञान और समझ को कैसे नकार दे कि उसे जिंदा रहने भर का अवसर मुहैया करने वाली इन निर्मितियों से उसमें अपने भविष्य को संवारने की शक्ति पैदा नहीं होती! इसके विपरीत, ऐतिहासिक तौर पर ऐसी निर्मितियां उसे जिंदा रहने के लिए अपनी जमीन से उखड़ने और शक्तिहीन एवं याचक बनने को मजबूर करती आयी हैं।
खैर, यह तो बिहार के ‘ईमानदार’ शासक-प्रभु जरूर मानेंगे कि वे सड़क-बिजली-पानी की निर्मितियों को ‘क्लास न्यूट्रल’ करार दे रहे हैं। लेकिन इससे क्या 21वीं सदी में आम पिछड़े बिहारी की अनुभवजनित आशंका बेबुनियाद साबित होगी कि ये सड़क-बिजली-पानी की निर्मितियां भी पूंजीवाद की पुरानी ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’ का ही नया पाठ हैं। ट्रिकल डाउन थ्योरी के कारण ही तो वह अब तक लोकतंत्र में मालिक होकर भी याचक बने रहने को मजबूर है। उसका नया पाठ इसी मजबूरी को स्थाइत्व देने की आकर्षक बनाने की नयी कोशिश तो नहीं है?

इसका जवाब राहुल गांधी जैसे ‘परिवारवादी’ प्रभु नहीं दे सकते? मोदी जैसे संघ-परिवारवादी प्रभु देंगे नहीं? लेकिन नीतीश जैसे गांधी-जेपीवादी जैसे बिहारी प्रभु तो दे सकते हैं न? या कि वह भी आम बिहारी की तरह सकते में हैं?

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