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अपने हनुमान का मोदी ने क्यों नहीं दिया साथ, समझिये एलजेपी में टूट का मतलब

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सिटी पोस्ट लाइव : राजनीति में रिश्ते-नाते ,जायज-नाजायज का कोई भाव नहीं होता.कहने के लिए तो राजनीति का मकसद नीति के राज की स्थापना होती है. लेकिन आज की राजनीति की सच्चाई है कि राजनीति आज राज पर किसी तरह से काबिज होने की नीति बन गई है. आज जिस तरह से BJP ने चिराग पासवान का साथ छोड़ दिया है, ये साबित करने के लिए काफी है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठा प्रभु हमेशा मजबूत साथी का ही साथ देता है. लोक जनशक्ति पार्टी के पशुपति कुमार पारस गुट ने मंगलवार शाम चिराग पासवान को राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटाने का एलान कर दिया. इस गुट ने सूरजभान सिंह को पार्टी का कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है जो नया अध्यक्ष चुनने के लिए चुनाव कराएंगे.इससे पहले लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने सोमवार शाम हाजीपुर से सांसद पशुपति कुमार पारस को सदन में एलजेपी का नेता स्वीकार कर लिया है.

दूसरी तरफ़ पारस के भतीजे चिराग पासवान ने पार्टी की नेशनल एग्जीक्यूटिव की मीटिंग में सभी बागी सांसदों को पार्टी से बाहर करने का आदेश जारी किया है. चिराग पासवान ने इससे पहले एक पुरानी चिट्ठी को जारी करके इस पूरे मामले में अपना पक्ष रखने की कोशिश की थी. चिट्ठी जारी करते हुए चिराग ने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा है, “पापा की बनाई इस पार्टी और अपने परिवार को साथ रखने के लिए किए मैंने प्रयास किया लेकिन असफल रहा. पार्टी माँ के समान है और माँ के साथ धोखा नहीं करना चाहिए. लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है. पार्टी में आस्था रखने वाले लोगों का मैं धन्यवाद देता हूँ. एक पुराना पत्र साझा करता हूँ.”

चिराग स्वयं को नरेंद्र मोदी का ‘हनुमान’ बताते आए हैं. लेकिन संकट की घड़ी में प्रधानमंत्री मोदी से लेकर अमित शाह या कोई अन्य बीजेपी नेता चिराग के साथ खड़ा होता नहीं दिख रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बीजेपी ने चिराग पासवान की तुलना में उनके चाचा पशुपति नाथ पारस को चुन लिया है. बिहार की राजनीति में सोमवार को जो कुछ घटा है, उसकी असली शुरुआत बिहार विधानसभा चुनाव के साथ होती दिख रही है. चिराग ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ बेहद आक्रामकता के साथ चुनाव प्रचार किया. चुनाव के दौरान ‘मोदी से कोई बैर नहीं, नीतीश तेरी खैर नहीं’ जैसे जुमले उछाले गए. इस रुख का पार्टी के अंदर भी विरोध किया गया लेकिन इसके बावजूद बिहार की सड़कों पर इन जुमलों के साथ पोस्टर देखे गए.इसके बाद चुनावी नतीजे आए और नीतीश कुमार की पार्टी सत्ता से बाहर हो गई. वहीं, चिराग को इतने आक्रामक रुख के बावजूद सिर्फ एक विधानसभा सीट मिली.

लेकिन नीतीश कुमार एक बार फिर सत्ता में आए और सीएम बन गए. राजनीतिक पर्यवेक्षकों की मानें तो इसके बाद वो सब शुरू हुआ जिसकी वजह से चिराग अपनी ही पार्टी में अलग-थलग पड़ गए. बिहार में जो भी नीतीश कुमार को जानता है, उसे पता है कि नीतीश जी अपनी दुश्मनी भूलते नहीं हैं. अभी दो महीने पहले एलजेपी के कुछ लोग टूटकर जेडीयू में गए थे. कुछ लोग आरजेडी में गए थे. उस समय से बातचीत चल रही थी. इस सबके बीच नीतीश कुमार की चुप्पी बता रही थी कि वह अंदर ही अंदर चिराग पासवान को लेकर विचार कर रहे हैं. इसी बीच केंद्रीय मंत्रिमंडल में विस्तार की बात भी शुरू हो गयी. चिराग अपने पिता के देहांत से खाली हुई कुर्सी पर दावा ठोकने वाले थे.ठीक उसके पहले पार्टी तोड़कर उनका खेल समाप्त करने में JDU सफल रहा है.

कुछ राजनीतिक पर्यवेक्षक ये भी मानते हैं कि दिल्ली में घटित हुए इस राजनीतिक घटनाक्रम के पीछे चुनावी गणित भी है.बीजेपी बिहार के दलित वोट बैंक पर नज़र जमाए हुए है. बीजेपी चाहती है कि पासवान समाज को एक ऐसा नेता दिया जाए जिसे संभालना आसान हो. ऐसे में बीजेपी ने चिराग़ की जगह चाचा पशुपति नाथ पारस को चुना. क्योंकि इस बात की संभावना है कि चाचा और भतीजे की लड़ाई में बीजेपी बिहार का दलित वोट बैंक, विशेषत: वह समुदाय जिसके नेता राम विलास पासवान हुआ करते थे, हथियाना चाहे.”बीजेपी के लिए ये फूट एक तीर से दो निशाने लगाने जैसा है. एक तरफ बीजेपी को चिराग़ और उनकी महत्वाकांक्षाओं से मुक्ति मिल गयी और वहीं दूसरी ओर बिहार की दलित राजनीति में भी नए अवसर पैदा हो गए.लेकिन अब देखना ये है कि एलजेपी के कोर वोटर पशुपति पारस को या फिर चिराग पासवान को अपना नेता मानते हैं.

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