कोसी के 275 बेड वाले अस्पताल को लग चुका है घुन्न, फर्श पर होता है मरीजों का ईलाज, 50 लाख से अधिक की आबादी का इस अस्पताल से है उम्मीद, छोटे से छोटे मर्ज से ग्रसित मरीज को भी दूसरे अस्पताल रेफर करने का है यहां फैशन, 275 बेड वाले अस्पताल के अधिकतर बेड हैं टूटे पड़े, कोसी के पीएमसीएच को लग चुका है घुन्न, किसी उद्धारक की बाट जोह रहा है यह अस्पताल.
सिटी पोस्ट लाइव, स्पेशल रिपोर्ट : अंग्रजी हुकूमत के समय में जब सहरसा को जिला का दर्जा नहीं मिला था,उस समय सदर अस्पताल सहरसा अनुमंडल स्तर का ही सही ख्यातिलब्ध अस्पताल था। 1 अप्रैल 1954 को सहरसा जिला बना।15 बेड वाला अस्पताल देखते-देखते आज 275 बेड वाला अस्पताल बन गया। इस अस्पताल में आंखों के ऑपरेशन की कीमती मशीन जंग खाकर सड़ रही है लेकिन आजतक एक भी मरीज की आंखों का ऑपरेशन नहीं हुआ। सोलह बेड का आईसीयू भवन है लेकिन उस भवन का आजतक ताला ही नहीं खुला है। 100 एकड़ से अधिक के भूखंड पर अवस्थित यह अस्पताल स्वास्थ्य अधिकारियों की मनमानी से कराह रहा है। इस अस्पताल की आऊटडोर, इंडोर और इमरजेंसी कोई सेवा दुरुस्त नहीं है। रेफर किये गए मरीज को समय पर एम्बुलेंस नहीं मिलता है।अस्पताल के विभिन्य चबूतरे यानि फर्श पर मरीजों को स्लाईन चढ़ाया जाता है और विभिन्य तरह का इलाज किया जाता है। फर्श पर ही मरीज को ऑक्सीजन भी दिया जाता है। विभिन्न कमरों में टूटे हुए बेड कमरे की उपयोगिता पर सवाल खड़े कर रहा है। यही नहीं कई पेइंग वार्ड में भी टूटे बेड को डालकर बाहर से ताला जड़ दिया गया है। इस वार्ड का लाभ भी मरीज नहीं ले पा रहे हैं। सतरंगी चादर योजना जिसमें सप्ताह के हर दिन बेड के चादर को बदलने का नियम है लेकिन अधिकतर बेड पर चादर रहते ही नहीं हैं। प्रसव कक्ष में भी प्रसूता बेड के नीचे या कहीं फर्श पर ही नजर आती हैं। ऑपरेशन थिएटर को सपोर्टिंग आईसीयू नहीं है। ऑपरेशन के विभिन्य सामान बेहद पुराने हैं। स्वीपर जख्मियों का इलाज करते हैं। यही नहीं बाहर के निजी नर्सिंग होम के दलाल अलग से यहां मंडराते रहते हैं और मौका देखकर मरीज को अस्पताल से लेकर तयशुदा नर्सिंग होम पहुँचा देते हैं।इसमें उन्हें अच्छी कमाई भी हो जाती है।दलाल मरीज का इलाज भी करते देखे जाते हैं। लेकिन यह सारा तमाशा अस्पताल प्रबंधन की जानकारी में है। सहरसा सिविल सर्जन डॉक्टर अशोक कुमार सिंह बेहद मरियल अधिकारी हैं। उनकी कोई बात स्वीपर भी नहीं मानता है। उनकी निष्क्रियता के कारण अस्पताल विकास मद की करोड़ों की राशि बिना कोई कार्य करवाये वापिस राज्य मुख्यालय लौट गई। अस्पताल अधीक्षक और उपाधीक्षक को सिर्फ वेतन लेने और कागजी खानापूर्ति से मतलब है। कुल मिलाकर इस अस्पताल का कोई माँ-बाप नहीं है। अमूमन दवाईयां भी यहां उपलब्ध नहीं रहती है। कभी इंट्रा कैट तो कभी सलाईंग सेट नहीं रहता है। राज्य के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय को इन चीजों से कोई लेना-देना ही नहीं है। आखिर कब बहुरेंगे सदर अस्पताल के दिन।
सहरसा से संकेत सिंह की रिपोर्ट
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