सिटी पोस्ट लाइव : मकान मालिक (Landlord) और किरायेदारों (Tenants) के बीच झगड़े का होना आम बात हैं. विवाद बढ़ने पर मामला कोर्ट में भी जाता है और फैसले भी आते हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के सामने एक ऐसा केस आया जिसे कोर्ट ने ‘क्लासिक’ केस कहा है. न्यायिक प्रक्रिया का गलत इस्तेमाल कैसे किया जाता है, इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘क्लासिक केस’ की संज्ञा दी है.
सुप्रीम कोर्ट ने एक किरायेदार के खिलाफ फैसला सुनाया है, जिसने मकान मालिक को उसकी प्रॉपर्टी से तीन दशक तक दूर रखा. कोर्ट ने किरायेदार पर 1 लाख रुपये की पेनल्टी लगाने के साथ साथ मार्केट रेट पर 11 सालों का किराया भी देने का आदेश दिया है. मकान मालिक-किरायेदार का क्लासिक केसबेंच के जस्टिस किशन कौल और आर सुभाष रेड्डी ने कहा कि किसी के हक को लूटने के लिए कोई कैसे न्यायिक प्रक्रिया का गलत इस्तेमाल कर सकता है, ये केस इसका ‘क्लासिक’ उदाहरण है.
ये मामला पश्चिम बंगाल के अलीपुर में एक दुकान को लेकर है. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने आदेश दिया कि दुकान को कोर्ट के आदेश के 15 दिन के अंदर मकान मालिक को सौंप दिया जाए. कोर्ट ने किराएदार को आदेश दिया कि मार्च, 2010 से अबतक बाजार रेट पर जो भी किराया बनता है, तीन महीने के अंदर मकान मालिक को चुकाए. इसके अलावा न्यायिक समय की बर्बादी और मकान मालिक को कोर्ट की कार्यवाही में घसीटने को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने किराएदार पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है.
दरअसल मामला 1967 का है, जब लबन्या प्रवा दत्ता ने अलीपुर में अपनी दुकान 21 साल के लिए लीज पर दी. लीज खत्म होने के बाद 1988 में मकान मालिक ने किरायेदार से दुकान खाली करने के लिए कहा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तब 1993 में सिविल कोर्ट में किरायेदार को निकालने के लिए केस दाखिल हुआ जिसका फैसला 2005 में मकान मालिक के पक्ष में आया.
इसके बाद 2009 में केस फिर दाखिल हुआ और 12 साल तक खिंचा. ये केस देबाशीष सिन्हा नाम के व्यक्ति ने दाखिल किया था जो कि किरायेदार का भतीजा था. देबाशीष का दावा था कि वो किरायेदार का बिजनेस पार्टनर भी है. लेकिन कोर्ट ने देबाशीष की याचिका को खारिज कर दिया और उसे मार्च 2020 से मार्केट रेट पर किराया देने के लिए भी कहा.
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