City Post Live
NEWS 24x7

मुंबई में बर्फ और गुलमर्ग में आग की बारिश होने का मतलब समझिये

सुलग रहा है धरती का फ़्रीजर आर्कटिक इलाक़ा, पूरी दुनिया पर पड़ेगा इसका बहुत बुरा असर

- Sponsored -

- Sponsored -

-sponsored-

मुंबई में बर्फ और गुलमर्ग में आग की बारिश होने का मतलब समझिये

सिटी पोस्ट लाइव : अगर मुंबई में बर्फ पड़ने लगे और कश्मीर के गुलमर्ग में भीषण गर्मी से आग लगाने लगे तो इसे क्या कहेगें. आप इसे साइंस की एक फिक्शन स्टोरी मान लेगें. लेकिन क्या आपको पता है कि साइंस की यह फिक्शन स्टोरी आज की दुनिया में हकीकत बनती जा रही है. मुंबई में भले अभी आइस एज नहीं आया है लेकिन धरती का फ़्रीजर कहा जाने वाला आर्कटिक इलाक़ा गर्मी से बेहाल है.यहाँ सर्दी की जगह अब गर्मी का प्रकोप बढ़ता जा रहा है. पेड़ों की संख्या घटती जा रही है. ध्रुवीय इलाक़ों में पाये जाने वाले भालू भूख से मर रहे हैं और जान बचाने के लिए शहरों का रुख़ कर रहे हैं.

आज आर्कटिक इलाक़ा धरती के बाक़ी हिस्सों के मुक़ाबले पहले से दोगुनी रफ़्तार से गर्म हो रहा है. इसकी वजह है यहां पड़ने वाली सूरज की रौशनी. पहले इस इलाक़े में बर्फ़ ही बर्फ़ थी, जिससे सूरज की किरणें रिफ्लेक्ट हो जाती थीं. लेकिन, बर्फ़ पिघलने की वजह से यहां समंदर का दायरा बढ़ गया है, जिसका पानी सूरज की गर्मी को सोख लेता है. इससे आर्कटिक में गर्मी तेज़ी से बढ़ रही है. आर्कटिक से सिर्फ़ बर्फ़ ही नहीं ग़ायब हो रही है. जलवायु परिवर्तन की वजह से यहां के जंगलों में भयंकर आग लग रही है. यहां तक कि बर्फ़ में भी आग लग जा रही है.

साइबेरिया के विशाल जंगल में लगातार तीन महीने तक आग लगी रही.इस आग से उठने वाले धुएं और राख के ग़ुबार से 40 लाख हेक्टेयर टैगा के जंगल शोलों में तब्दील हो गए थे.रूस को आग बुझाने के लिए अपनी सेना को लगाना पड़ा था. इस आग से उठे धुएं की वजह से अमरीका के अलास्का तक में लोगों की सांसें घुटने लगी थीं. ऐसी ही आग ग्रीनलैंड, अलास्का और कनाडा में भी देखी गई.बहुत लोगों के लिए जलते हुए आर्कटिक की तस्वीरें अविश्वसनीय लग सकती हैं लेकिन ये सच्चाई है.

पर्यावरणविदों की टीम ने 2016 में ग्रीनलैंड, कनाडा और साइबेरिया के आर्कटिक इलाक़ों में आग लगने की घटनाओं में वर्ष 2100 तक चार गुना बढ़ोतरी की भविष्यवाणी की थी. इसकी बड़ी वजह जुलाई महीने में आर्कटिक इलाक़े का बढ़ता तापमान है. यहां जुलाई महीने का औसत तापमान पिछले 30 वर्षों से 13.4 डिग्री सेल्सियस रह रहा है.1971 से वर्ष 2000 के बीच इतना तापमान रहने से साफ़ है कि आर्कटिक इलाक़ा जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा शिकार हो रहा है.जाहिर है धरती के बढ़ते तापमान का सबसे बुरा असर आने वाले दिनों में और भी दिखने वाला है.अगर आर्कटिक में औसत तापमान इस सीमा से ज़्यादा बढ़ता है, तो आग भड़क उठती है.’आग लगने की घटनाओं में हो रही ईजाफा इस बात का संकेत हैं कि इंसान धरती के साथ किस कदर खिलवाड़ कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन की वजह से ही आर्कटिक में इतनी आग लग रही है.’

आर्कटिक में बढ़ती गर्मी की वजह से ज़मीन सूख रही है. सदियों से जिन इलाक़ों में बर्फ़ जमा थी, वो पिघल रहे हैं. धरती का तापमान बढ़ने की वजह से आर्कटिक में बिजली गिरने की घटनाएं भी बहुत हो रही हैं. इनसे भी बार-बार आग लग रही है. साइबेरिया और आर्कटिक के दूसरे इलाक़ों का अध्ययन कर रही अमरीका की पर्यावरणविद् सू नटाली के अनुसार  ‘इस साल अलास्का में गर्मियों के दौरान पूरा माहौल धुआं-धुआं और गर्म नजर आया.आग लगने की घटनाएं बढ़ गई और वो हिस्से धंसने लगे  जो सदियों से पर्माफ्रॉस्ट का हिस्सा थे, यानी बर्फ़ में जमे थे.’

आग लगने की घटनाओं की वजह से उत्तरी गोलार्ध का पूरा इकोसिस्टम तबाह हो रहा है. हवा प्रदूषित हो रही है. बार-बार सूखा पड़ रहा है. नए-नए इलाक़ों में पेड़ उगते देखे जा रहे हैं, जो कभी बर्फ़ में दबे थे. इस बदलाव की वजह से इस इलाक़े में पाये जाने वाले जीवों की तादाद भी घट-बढ़ रही है.आर्कटिक में दुनिया के कुल जंगलों का एक तिहाई हिस्सा है. इसके अलावा पर्माफ्रॉस्ट वाले इलाक़ों में हज़ारों साल से पेड़ और दूसरे जीवों के जीवाश्म दबे हैं. इनमें बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन बंद है. अगर बर्फ़ पिघलती है और ये जीवाश्म खुले में आ जाते हैं, तो इसका बहुत बुरा असर हमारे वातावरण पर पड़ने जा रहा है.

भयंकर ठंड की वजह से यहां पर कीटाणु भी आसानी से नहीं पनपते. अगर गर्मी बढ़ी, तो जीवाश्मों में बंद कार्बन वायुमंडल में घुलने लगेगा. धरती पर बहुत तेज़ी से जलवायु परिवर्तन होगा जिससे निपटना पूरी दुनिया के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन जाएगा.

कनाडा के वैज्ञानिक मेरिट ट्यूरटस्की के अनुसार ‘उत्तरी गोलार्ध, दुनिया का विशाल रेफ़्रिजरेटर है. यहां हज़ारों साल से कार्बन बर्फ़ के भीतर बंद है. बर्फ़ पिघलने से बहुत बड़ी तबाही आ सकती है.’आज  उत्तरी गोलार्ध के आर्कटिक वाले हिस्सों में गीली ज़मीन में भी आग सुलगने लगी है. ये पेड़ो को अपनी ज़द में लेने वाली भयंकर आग तो नहीं है लेकिन यहाँ धरती, अंदर ही अंदर धीरे-धीरे सुलग रही है. पर्माफ्रॉस्ट को पिघला रही है. इस आग को बुझाना आसान नहीं है.’

ट्यूरटस्की के 2015 के रिसर्च पेपर के अनुसार  सुगती ज़मीन, दुनिया की आब-ओ-हवा के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है. क्योंकि ये लंबे समय तक सुलगती रहती है, तो ये ज़्यादा नुक़सान पहुंचाती है. ऊपर की बर्फ़ पिघलाकर ये सुलगती आग ज़्यादा कार्बन को हवा में छोड़ती है.इस आग को विमान से पानी डाल कर नहीं बुझाया जा सकता. बारिश से भी ये सुलगती ज़मीन नहीं ठंडी पड़ती. इसके लिए भारी बारिश लंबे समय तक होने की शर्त है. और ऐसा होता है तो बिजली भी गिरती है, जिससे ये आग और धधकने लगती है.

ग्रीनलैंड के विशाल इलाक़े के जंगल सदियों से धरती के कार्बन को सोखते आए हैं. लेकिन अब इन में आग लगने की घटनाओं से ये कार्बन वातावरण में मिल रहा है. मतलब ये कि आर्कटिक के जो जंगल कभी धरती को गर्म होने से बचाते थे, वो अब इसे तेज़ी से बढ़ा रहे हैं.

पर्यावरण में आ रहे बदलाव से आर्कटिक की रंगत जल्द ही बदल सकती है. वहां पर नुकीले पेड़ों की जगह पत्तेदार घने पेड़ उग सकते हैं, जो अभी आर्कटिक के बर्फ़ीले इलाक़े में नहीं पाये जाते हैं. ग्रीनलैंड और अलास्का के बोरियल जंगलों का रंग-रूप भी बदलता साफ़ दिख रहा है.आर्कटिक और ग्रीनलैंड-अलास्का में आ रहे इस बदलाव का असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा. अलास्का में लगी आग का धुआं, अमरीका और कनाडा के बीच स्थित ग्रेट लेक एरिया तक असर डाल रहा था. कनाडा के अल्बर्टा में लगी आग का असर यूरोप में भी दिखा था.

पैसे और व्यवस्था के जरिये नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन की रफ़्तार कम करके ही दुनिया को बचाया जा सकता है.इसके लिए इंतज़ार करने का नहीं बल्कि अभी से पर्यावरण को बचाने के अभियान को युद्ध स्तर पर शुरू करने की जरुरत है.

-sponsored-

- Sponsored -

-sponsored-

Comments are closed.