सप्ताहांत संपादकीय : जीत की कीमत, हार का मूल्य…   

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सिटी पोस्ट लाइव : फीफा विश्व कप-2018 के ‘खेल’ को करोड़ों ने देखा. उन करोड़ों ‘दर्शकों’ में हम भी शामिल हैं. आप भी शामिल होंगे. इसलिए 32 देशों की टीमों के 64 मैचों में क्या हुआ, किन खिलाडियों ने कब क्या किया, कौन जीत कर ‘सिकंदर’ बना, और कौन सिकंदर महान होते हुए भी हारा आदि-आदि का उल्लेख यहां विस्तार से करना प्रासंगिक नहीं. संभव भी नहीं. लेकिन एक सवाल ऐसा है, जो पहले भी उठता रहा है और इस बार भी उठेगा कि फीफा-2018 के आयोजन को वैश्विक स्तर पर ‘खेल संस्कृति और खेल-भावना की जीत और विकास’ का प्रमाण माना जा सकता है ? जो टीम या खिलाड़ी जीत कर सिकन्दर बने क्या वे कह सकते हैं कि उनकी जीत ‘खेल सभ्यता और संस्कृति’ की जीत है ? या जिन्होंने सिकन्दर होते हुए भी हार कबूल की, क्या वे कह सकते हैं कि उन्होंने इसलिए हार कबूल की कि दुनिया में खेल-भावना ज़िंदा रहे, वह घायल न हो ?

फीफा-2018 के कुछ मैच (सब नहीं) का दर्शक बनकर हमने महसूस किया कि ये सवाल बेमानी-से हो गए हैं ! फुटबॉल का खेल दुनिया में बड़े पैमाने पर और तेज रफ्तार से जारी पूंजी (आवारा पूंजी) के निरंकुश खेल का हिस्सा हो गया है ! क्या आपको ऐसा महसूस हुआ ?

बहरहाल, ज्ञान-विज्ञान के अपने-अपने अनुशासनों में बंधे विभिन्न क्षेत्रों के भारतीय मित्रों से – खेल-प्रेमी पत्रकार, अर्थशास्त्री, समाज-कर्मी, राजनीतिज्ञ मित्रों से – हमने फीफा विश्वकप-2018 आयोजन के ‘मैसेज’ के बारे में चर्चा की और इस बाबत जानना चाहा कि पिछले आयोजनों से यह कितना जुड़ा है या कितना जुदा है ?

इस पर फीफा-2018 आयोजन को ‘खेल की सभ्यता’ का आईना मानते हुए जो कुछ कहा, उसका आशय यह रहा : “अब आनेवाले कई बरसों तक हमें अपने आपको और प्रत्येक व्यक्ति को इस भुलावे में रखना होगा कि जो उचित है वह गलत है और जो गलत है वह उचित है. क्योंकि जो गलत है वह उपयोगी है – जो उचित है वह नहीं…. हमें लोभ-लालच, सूदखोरी और अपनी सुरक्षा-संरक्षा के लिए निरंकुश आवारा पूंजी की अधीनता की पूजा करनी होगी, क्योंकि इन्हीं की सहायता से हम अपनी आर्थिक आवश्यकताओं के अंधेरे से निकलकर रोशनी में कदम रख सकेंगे…”

एक समाज-शास्त्री मित्र ने दो टूक लहजे में कहा – “अब सवाल यह नहीं रह गया है कि ‘सत्य’ क्या है, बल्कि यह है कि उसकी उपयोगिता क्या है ? यानी अर्थशास्त्र की भाषा में सवाल सिर्फ यह है कि सत्य की क्या ‘बिकवाली’ है, या सत्ता-राजनीति की भाषा में क्या सत्य कुशल है ? और यह सिर्फ ‘खेल की सभ्यता’ से नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर चल रहे आधुनिक सभ्यता के खेल से संबंधित सवाल है, जो कल तक समस्या के रूप में उपस्थित था और आज जो संकट का रूप धारण कर चुका है…”

[जरूरी न होते हुए भी हमारे युवा पाठक-श्रोता-दर्शकों को यह बताना अनुचित न होगा कि मित्रों की उपरोक्त टिप्पणियों में हमें ‘आधुनिक सभ्यता की गति-दिशा’ पर कीन्ज (1930, जबसे फीफा अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल प्रतियोगिता की शुरुआत हुई) और ल्यातोतार (1980-85 – ग्लोबलाईजेशन का दौर) जैसे अर्थशास्त्रियों-समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत विमर्शों की अनुगूंज सुनाई पड़ी. नयी पीढ़ी के वे युवा मित्र भी यह अनुगूंज सुन सकते हैं, जो फीफा-2018 के दर्शक होकर भी ‘जो जीता वही सिकंदर’ के शोर में डूबने से बचना चाहते हैं.

श्रीकांत प्रत्यूष 

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