बात 2014 की है जब ग्लासगो में कॉमनवेल्थ गेम्स चल रहे थे। बिहार के जमुई से भी 12 किमी दूर गिधौर नाम का एक गांव है, वहां अचानक हलचल बढ़ गई। इसका कारण था, यहां की बेटी श्रेयसी को कॉमनवेल्थ गेम्स में रजत पदक हासिल हुआ था। श्रेयसी के पिता और पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. दिग्विजय सिंह का ये सपना था कि उनके गांव में एक रायफल रेंज बने। दादा की भी इसमें रुचि थी। पिता वर्षों तक मृत्युपर्यंत नेशनल राइफल एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे। कॉमनवेल्थ में श्रेयसी की जीत इसलिए भी मायने रखती थी, क्योंकि 2010 में दिग्विजय सिंह कॉमनवेल्थ खेलों में ही गए थे और फिर कभी लौटकर नहीं आए। वहीं पर उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ, सेंट थॉमस अस्पताल में भर्ती किया गया, लेकिन उन्होंने प्राण त्याग दिए थे। 2008 में ही श्रेयसी अपने खेल से अपना हुनर साबित कर चुकी थीं।
इसके बाद भी 2009 में ये कहा जा रहा था कि श्रेयसी को पिता के प्रभाव के कारण स्थान मिला है। हालांकि वर्ष 2009 में वे सफलता हासिल कर भी नहीं पाई थीं, लेकिन चार साल बाद ही उन्होंने सबका मुंह बंद कर दिया। जबकि वास्तविकता ये है कि जब श्रेयसी नौवीं में थी, तब पिता से कहा कि मैं भी शूटिंग करना चाहती हूं। तो पिता ने कहा कि मैं ऐसे कोई सपोर्ट नहीं करूंगा, जिस तरह से दूसरे बच्चे आते हैं वैसे ही तुम योग्य हो, फिर प्रतिस्पर्धा में भाग लो। तब श्रेयसी ने अपने स्तर पर ही तैयारी की। श्रेयसी अपनी सफलता का श्रेय अपने कोच को देती हैं। उनके अनुसार कोच पीएस सोढ़ी ने उनकी टेक्निक सुधारी। अब वे नेशनल चैम्पियनशिप में भी गोल्ड हासिल कर चुकी हैं। अब वे पिता के सपने को पूरा करने में लगी हैं। कॉमनवेल्थ गेम में स्वर्ण पदक जीतकर गिद्धौर के साथ ही साथ बिहार और देश का अभिमान बढ़ाया है। बिहार के इस बेटी ने उन हजारों बेटियों के लिए आदर्श भी कायम किया है जो घर के चूल्हा चौका और बर्तन मांजने की परंपरा को छोड़कर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर अपनी चमक बिखेरने उतावली है।