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‘धर्म’ और ‘विज्ञान’ के बीच घमासान: आर्यभट – 1   

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आर्यभट – 1

‘धर्म’ और ‘विज्ञान’ के बीच घमासान

वह गुप्त वंश के शासन का अंतिम दौर था। सम्राट बुधगुप्त अपने पूर्वजों की परंपरा के अनुरूप ही अपने राजपाट को संभालने में हरचंद कोशिश में लगे थे। श्वेत-हूणों के हमले तेज हो रहे थे। पूरे देश के राजनीतिक आकाश में गुप्त साम्राज्य के विघटन की आशंकाओं क बादल मंडरा रहे थे। इसलिए राजधानी पाटलिपुत्र में जहां एक तरफ फ़ौजी तैयारियां चल रहीं थीं, वहीं दूसरी तरफ धर्म व धार्मिक कर्मकांडों का बोलबाला बढ़ रहा था।

पाटलिपुत्र माने आज का पटना शहर। गंगा, सोन और गंडक नदियों के संगम पर बसा यह नगर बहुत बड़ा था! उस समय देश का सबसे बड़ा नगर। सीधी और चौड़ी सड़कें। कई मंजिली इमारतों की कतारें। हरे-भरे बाग-बगीचे। इन बगीचों में बड़ी तादाद में खिलनेवाले फूलों के कारण इस नगर को कुछ लोग कुसुमपुर अथवा पुष्पपुर भी कहते थे। यह नंद राजाओं और चंद्रगुप्त तथा अशोक-जैसे प्रसिद्ध मौर्य सम्राटों की राजधानी था। इस नगर की कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी। देश के ही नहीं, विदेशों के यात्री भी इस नगर के दर्शन के लिए पहुंचते थे। दर्शन से ज्यादा विद्या हासिल करने के लिए। विद्या हासिल करने के लिए देश के कोने-कोने के विद्यार्थी भी यहां पहुंचते थे। राजधानी होने से यहां देशभर के नामी पंडित एकत्र होते थे। ज्योतिष के अध्ययन के लिए तो पाटलिपुत्र सबसे ज्यादा मशहूर था। यहां गणित के पठन-पाठन और ग्रह-नक्षत्रों के प्रायोगिक अध्ययन के लिए आश्रम थे और वेधशाला भी थी।

उसी दौरान एक दिन पाटलिपुत्र में हंगामा मच गया। आम और खास दोनों वर्गों में। कुछ ‘पुराणपंथी’  विद्वान पुनः राजमहल की ओर चल पड़े, जो दो-तीन माह पूर्व भी वहां पहुंचे थे, मगर निराश होकर लौटे थे। लेकिन आज आम जन में से भी कई लोग राजमहल की दर्शक-दीर्घा में जगह पाने के लिए दौड़ पड़े। हालांकि आम जनों में से अधिसंख्य गंगा-गंडक के तट की ओर दौड़ लगा रहे थे। वहां मंत्र-जाप करते ब्राह्मण-पुरोहितों में आम जनों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ मची हुई थी।

यूं कुछ आम लोग नगर से थोड़ी दूर स्थित आश्रम में भी जमा होने लगे थे। आश्रम में अलग ही माहौल था। आश्रम से सटे टीले पर वेधशाला थी। वहां खूब चहल-पहल थी। वहां भी तीखी बहस चल रही थी। लेकिन वैसा शोर और होड़ का माहौल नहीं था, जैसा कि राजमहल से लेकर नदी-तट तक फैले नगर के घर-घर में था। वहां भी उत्तेजना छाई हुई थी। लेकिन वह कुछ अलग तरह की थी। राजमहल से लेकर नगर के घर-घर में व्याप्त उत्तेजना के माहौल में डर और चिंता छलकती दिख रही थी। जबकि वेधशाला में आकाश के ग्रहों और तारों की स्थितियों और गतियों को जानने के लिए लगे यंत्रों को घेरे बैठे लोगों में निडर चिंतन चल रहा था।

कुल मिलाकर उस दिन पाटलिपुत्र में हर जगह व्याप्त उत्तेजना और जिज्ञासा, चिंता और चिंतन के केंद्र में एक ही विषय था – सूर्य ग्रहण!

यूं उस दिन पूरे देश – आर्यावर्त – में ‘सूर्यग्रहण’ को लेकर गहमागहमी थी। लेकिन हंगामे का वैसा दृश्य और कहीं नहीं था, जैसा कि पाटलिपुत्र में राजमहल में था। इसका कारण था एक व्यक्ति – आर्यभट! वह सूर्यग्रहण से संबंधित तमाम पुरानी अवधारणाओं को चुनौती दे रहा था।

पाटलिपुत्र में आर्यभट के नाम की चर्चा डेढ़-दो साल पहले से हो रही थी। राजमहल से लेकर पढ़ने-लिखने वाली जमातों तक में यह सूचना फैली हुई थी कि वह ज्योतिष और गणित का अध्ययन करने के लिए पाटलिपुत्र आया है। वह दिन-रात आश्रम में अध्ययन में लीन रहता है और वेधशाला के यंत्रों से न जाने आकाश के ग्रह-नक्षत्रों की गति-दिशा गणना और गणित-ज्ञान के बीच कौन-कौन से जोड़ बिठाता रहता है। आम लोगों में यह जानने की जिज्ञासा थी कि उसका जन्म कहां हुआ, उसके माता-पिता कौन हैं, वह कब से पाटलिपुत्र में है? लेकिन लोग कुछ जान नहीं पाये। इस बाबत आर्यभट मुंह खोलता ही नहीं! वह दिन-रात अध्ययन करता और कुछ न कुछ लिखता। भोजपत्रों और ताड़पत्रों पर उसके लिखे साहित्य में बहुत-सी जानकारियां होतीं – संस्कृत के श्लोक और गणित के सूत्र होते, लेकिन उनको देखने-पढ़ने वालों को यह मालूम नहीं हो पाता कि उसकी जाति क्या है। लोग उसके नाम से जुड़े ‘भट’ शब्द को ‘भट्ट’ (ब्राह्मण) मान बैठे थे लेकिन सुना गया कि वह गणित का कोई ग्रंथ रच रहा है और उसका नाम रखा है – आर्यभटीय! तब तो वह भट ही है, भट्ट नहीं। भट का माने होता है योद्धा! तब उसकी सही जाति क्या है? इस बारे में लोग तब तक नहीं जान सकते, जब तक खुद आर्यभट खुलासा न करे। लेकिन आर्यभट कुछ कहता ही नहीं! पूछने पर कहता है – वह वैज्ञानिक बनना चाहता है, सिर्फ वैज्ञानिक रहना चाहता है। उसके गणित-ज्ञान और विद्वता की बातें आश्रम से बाहर आने लगीं, तब मालूम हुआ कि वह दक्षिण भारत के गोदावरी नदी तट के अश्मक जनपद (आज का विदर्भ, महाराष्ट्र) से आया है। लोगों ने सुन रखा था कि वैदिक धर्म-प्रचारकों के लिए अश्मक जनपद दक्षिण में पहला उपनिवेश जैसा था। तो हो सकता है कि वह वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए गणित और ज्यातिष के अध्ययन करने पाटलिपुत्र आया हो!

जो हो, लोग उसे अश्मकाचार्य नाम से भी पुकारने लगे थे। 23 साल की उम्र में वह गणितशास्त्र के पंडित के रूप में चर्चित होने लगा था। बड़े-बड़े आचार्य उसकी बुद्धि का लोहा मानते थे। कुछ ही दिनों में आश्रम के सहपाठी आर्यभट से होने वाली बातचीत के आधार पर जहां-तहां यह कहने लगे थे कि आर्यभट अब पूरा जीवन पाटलिपुत्र में गुजारेगा, यहीं बसेगा और अध्ययन-अध्यापन करेगा। मगर यह सूचना आम लोगों के बीच फैलने के पूर्व ही खास लोगों में एक खबर आग की तरह फैल गयी कि उसके विचार क्रांतिकारी हैं। वह धार्मिक विचारों की परवाह नहीं करता। अपने गणतीय सूत्रों को आधार पर वह कुछ ऐसी बातें कहने लगा है, जिनसे धर्मशास्त्रों में बंधे विद्वान बेचैन हो उठे हैं। उन्हें लगने लगा है कि आर्यभट का गणित-ज्ञान उनके ज्योतिष विद्या के वर्चस्व को ध्वस्त करने की तैयारी कर रहा है। इसलिए वे राज्यसत्ता के जरिये आर्यभट का मुंह बंद करवाने के प्रयासों को हवा देने में लगे थे। (अगला पाठ – आर्यभट – 2 : हमारा और तुम्हारा ईश्वर कल्पनाजनित है)

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