3 साल की मुंबई में रहने वाली प्रिया संस्कृत में कल्याण सूत्र बोलती है, वह भी शुद्ध उच्चारण के साथ| यह कोई अलोकिक शक्ति या चमत्कार नहीं है बल्कि यह गुण उसमे जन्मजात है| प्रिया इतनी बौधिक इसलिए है क्यूंकि प्रिया कि माँ देव गुरु, धर्म और आस्था में काफी विश्वास रखती हैं| उनका मानना है कि अगर उच्च आत्मा को अपने गर्भ में धारण करना चाहते हो तो आपको भी उस लायक बनना पड़ता है और इसलिए उन्होंने गर्भसंस्कार को धारण किया ताकि उन्हें गुणवान संतान की प्राप्ति हो|
हिन्दू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक कुल 16 संस्कार बनाए गए हैं। इनमे से एक संस्कार का नाम है गर्भाधान संस्कार यानी गर्भ धारण करने का संस्कार।गर्भ संस्कार सनातन धर्म के 16 संस्कारों में से एक है। भारतीय संस्कृति के अनुसार, संतान को उत्पन्न करना एक प्राकृतिक घटना ही नही अपितु यह होने वाले अभिभावकों के लए अत्यंत महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है| इसलिए गर्भ धारण करना और एक नवीन जीवात्मा को संसार में लाने का पूर्ण विधान दिया गया है| अगर संक्षेप में कहें तो गर्भ संस्कार का मतलब है, बच्चों को गर्भ से ही संस्कार प्रदान करना। गर्भसंस्कार की विधि, गर्भधारण के पूर्व ही, गर्भ संस्कार की शुरूआत हो जाती है। गर्भवती महिला की दिनचर्या, आहार, प्राणायाम, ध्यान, गर्भस्थ शिशु की देखभाल आदि का वर्णन गर्भ संस्कार में किया गया है। गर्भिणी माता को प्रथम तीन महीने में बच्चे का शरीर सुडौल व निरोगी हो, इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। तीसरे से छठे महीने में बच्चे की उत्कृष्ट मानसिकता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। छठे से नौंवे महीने में उत्कृष्ट बुद्धिमत्ता के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
चिकित्सा विज्ञान के अनुसार गर्भ में शिशु किसी चैतन्य जीव की तरह व्यवहार करता है – वह सुनता और ग्रहण भी करता है। माता के गर्भ में आने के बाद से गर्भस्थ शिशु को संस्कारित किया जा सकता है। हमारे पूर्वज इन सब बातों से भली भॉंति परिचित थे इसलिए उन्होंने गर्भाधान संस्कार को हमारी भारतीय संस्कृति में कराए जाने वाले सोलह संस्कारों में से एक संस्कार मान कर उसे पूर्ण पवित्रता के साथ संपन्न करने की प्रथा प्रचलित की थी। संतान उत्पति के संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का कथन है कि यदि माता-पिता बिना प्रार्थना किए संतानोत्पति करते हैं तो ऐसे संतान ‘अनार्य’ है और समाज पर भारस्वरूप है । ‘आर्य’ संतानें वे ही हैं, जो माता-पिता द्वारा भगवान से की गई निर्मल प्रार्थना के फलस्वरूप उत्पन्न होती हैं। वे ही परिवार, समाज का हितसाधन कर सकती है। इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है कि संतान सुयोग्य और गुणवान पैदा हो।
आयुर्वेद में सुप्रज ज्ञान का वर्णन आता है जिसके अनुसार संतान के इच्छुक माता-पिता दोनों ही शारीरिक, मानसिक एवं अध्यात्मिक रूप से इसके लिए तैयारी करते हैं| वास्तव में गर्भ धारण के पश्चात माता का उत्तरदायित्व शिशु के प्रति पिता से अधिक होता है क्योंकि संतान का भ्रूण उनके शरीर में पलता है. इसलिए गर्भ-संस्कार का प्रावधान बनाया गया है जिसमे माता को इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है जिससे वह एक स्वस्थ, तेजस्वी और योग्य बालक को इस धरा पर ला सके| ये बात हर कोई जानता है कि गर्भ में पल रहा शिशु मात्र मांस का टुकड़ा नहीं बल्कि वह एक पूर्ण जीता-जागता अलग व्यक्तित्व है जो उसके आसपास की हर घटना और संवेदना को महसूस भी करता है, उससे प्रभावित भी होता है एवं वह अपना प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता है। इसका अर्थ यह हुआ की माता-पिता की जिम्मेदारी बन जाती है की गर्भित शिशु को उचित, प्रसन्नतापूर्ण ध्वनियाँ और मंगलमय कर्मों से भरा वातावरण प्रदान किया जाए। कुछ समय बाद शिशु के साथ संपर्क भी स्थापित किया जाता है। माता द्वारा सुनी हुई ध्वनि का प्रभाव शिशु के मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ता है। इसलिए विशिष्ट गर्भ-संस्कार संगीत को सुनना एवं मंत्र उच्चारण गर्भवती महिला को अवश्य करना चाहिए। उन्हें विशेष प्रकार के साहित्य एवं पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिए।
वैज्ञानिकों का मानना है कि चौथे महीने में गर्भस्थ शिशु के कर्णेंद्रिय का विकास हो जाता है और अगले महीनों में उसकी बुद्धि व मस्तिष्क का भी विकास होने लगता है। ऐसे में माता-पिता की हर गतिविधि, बौद्धिक विचारधारा का श्रवण कर गर्भस्थ शिशु अपने आपको प्रशिक्षित करता है। चैतन्य शक्ति का छोटा सा आविष्कार यानी, गर्भस्थ शिशु अपनी माता को गर्भस्थ चैतन्य शक्ति की 9 महीने पूजा करना है। एक दिव्य आनंदमय वातावरण का अपने आसपास विचरण करना है। हृदय को प्रेम से लबालब रखना है जिससे गर्भस्थ शिशु के हृदय में प्रेम का सागर उमड़ पड़े। उत्कृष्ट देखभाल और अच्छे बीज बोने से उत्कृष्ट किस्म का फल उत्पन्न करना हमारे वश में है। तेजस्वी संतान की कामना करने वाले दंपति को गर्भ संस्कार व धर्मग्रंथों की विधियों का पालन ही उनके मन के संकल्प को पूर्ण कर सकता है।