लोक सभा चुनाव को सवर्ण-बनाम पिछड़ों की लड़ाई बनाने की कोशिश जारी

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लोक सभा चुनाव को सवर्ण-बनाम पिछड़ों की लड़ाई बनाने की कोशिश जारी

सिटी पोस्ट लाइव : बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश में जातिगत जनगणना की मांग  किया है. साथ ही यह भी कहा कि यह जरूरी नहीं किआरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत ही रहे. आरजेडी नेता रघुबंश सिंह भले सवर्ण आरक्षण के विरोध को पार्टी द्वारा जल्दी में लिया गया फैसला और बड़ी भूल बता रहे हैं. लेकिन तेजस्वी यादव उनके सतंद से बेपरवाह खुलकर आर्थिक आधार पर सवर्णों के आरक्षण दिए जाने की मुखालफत कर रहे हैं. अब लालू यादव भी आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण दिए जाने को लेकर संविधान संशोधन की आलोचना कर रहे हैं. यानी सवर्णों को आरक्षण पर आरजेडी का आधिकारिक स्टैंड सामने आ गया है. वहीं नीतीश कुमार ने लोगों का आह्वान किया है कि वोट के लिए तनाव फैलाने वालों को करारा जवाब दें.

सवर्ण आरक्षण पर संसद में लाए गए बिल का जिस अंदाज में आरजेडी ने विरोध किया वह काबिले गौर है. जाहिर है जिस तरह से लालू यादव सवर्णों के विरोध की राजनीति शुरू की थी उसी को आगे आरजेडी बढ़ाना चाहता है. आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव भी अपने पिता की तरह ही सवर्ण विरोध की बुनियाद पर ही अपनी राजनीति को आगे बढ़ाना चाह रहे हैं. हालांकि जिस तरह से पार्टी के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने इसे पार्टी की चूक करार दिया था. इससे लगा था कि पार्टी शायद इसपर पुनर्विचार करेगी. लेकिन लालू यादव का स्टैंड सामने आ जाने के बाद शक की कोई गुंजाइश नहीं रही कि आरजेडी का आधिकारिक स्टैंड क्या है?

दरअसल, आरजेडी को लग रहा है कि यह सही मौका है लोक सभा चुनाव को सवर्ण बनाम पिछड़ों की लड़ाई में बदल देने का. सवर्णों का विरोध कर फिर वो फिर वहीँ दौर वापस लाना चाहते हैं जब मंडल कमीशन लागू होने के बाद जातीय गोलबंदी का फायदा उठाकर लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे पिछड़े समुदाय से आने वाले नेताओं ने अपनी राजनीतिक जमीन काफी मजबूत कर ली थी.आजतक वो उसी फसल को काट रहे हैं. 2015 के विधानसभा चुनाव में आरक्षण की समीक्षा वाले संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान को जिस तरह से आरजेडी ने भुनाया था, उसका फायदा भी मिला था. हाशिए पर पड़ी आरजेडी दोबारा मेनस्ट्रीम में आ गई थी.इसबार आरजेडी की कोशिश लोक सभा चुनाव को सवर्ण बनाम पिछड़ों की लड़ाई बना देने का है.

दरअसल,ये कटु सच्चाई है कि बिहार के राजनीतिक-सामाजिक जीवन में शुरू से ही जातीयता की गहरी पैठ रही है. लालू यादव ने उसे और मजबूती दी है.एक वक्त ऐसा भी था जब अगड़े-पिछड़े की राजनीति में बिहार सबसे आगे रहता था. सवर्णों के विरुद्ध ‘भूरा बाल साफ करो’ (भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत और लाला) का नारा भी लालू यादव और उनकी पार्टी असली ताकत बनी थी.आरजेडी ने सवर्ण आरक्षण का विरोध कर यह जता भी दिया है कि वह पिछड़े समुदाय और दलितों को यादवों के साथ मुसलमानों का समीकरण बनाकर अपनी आजमाई हुई राजनीति को आगे बढ़ाना चाहती है. इसमें उपेन्द्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी के चेहरे को आगे किया जा रहा है. हालांकि कुशवाहा और मांझी ने सवर्ण आरक्षण का समर्थन कर लोक सभा चुनाव को सवर्ण बनाम पिछड़ों –दलितों की लड़ाई बना देने की कोशिश को एक झटका जरुर दे दिया है.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जनसँख्या के आधार पर जनगणना और आरक्षण की मांग के पीछे भी यहीं डर छुपा है कि आरजेडी कहीं इस मुद्दे पर लीड न ले ले और वह कहीं अपने ही समर्थक वोटरों को खो न दे. क्योंकि माना जाता है कि अतिपिछड़ा समुदाय जहां पीएम मोदी के नाम पर बीजेपी के साथ अब भी खड़ा है, वहीं कुर्मी और कुशवाहा जैसी पिछड़ी जातियां नीतीश कुमार को ही अपना चेहरा मानती हैं. इसके साथ ही महादलितों की 22 जातियों में नीतीश कुमार ने गहरी पैठ बनाई है.

इस चुनाव को अगड़ों बनाम पिछड़ों-दलितों की लड़ाई बनने से रोकने की रणनीति के तहत ही एनडीए के महत्वपूर्ण सहयोगी और दलित राजनीति का बड़ा चेहरा माने जाने वाले रामविलास पासवान भी खुलकर सवर्ण आरक्षण का समर्थन कर रहे हैं. उनका कहना है कि सवर्णों ने हमेशा दलितों और पिछड़ों को आगे बढ़ने में मदद की है. वे इसकी सीमा 15 प्रतिशत करने की भी मांग उठा रहे हैं. इसका मकसद आरजेडी को  सवर्णों के नाम पर पिछड़े समुदाय को सेंटिमेंटल ब्लैकमेल करने से रोकना है.जाहिर है ये सारे बयान चुनावी गणित के हिसाब से ही दिए जा रहे हैं ताकि बीजेपी-जेडीयू की ओर बनी जातीय गोलबंदी में टूट न हो.

बहरहाल जातीय राजनीति के लिहाज से ‘सेंटिमेंटल’ रहे बिहार में एक बार फिर अगड़े-पिछड़े के बीच नफरत की आग लगाने की एक बार फिर कोशिश शुरू हो चुकी है. लेकिन इस बार फर्क इतना है कि पिछड़ी राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा नीतीश कुमार एनडीए के साथ हैं. जबकि रामविलास पासवान भी पूरे दम खम से सवर्ण आरक्षण को जायज ठहरा रहे हैं.राहत कि बात है कि नेता चाहें जो भी कोशिश कर लें लेकिन बिहार के पिछड़ समुदाय में फिलहाल सवर्ण आरक्षण को लेकर कोई रोष नहीं दिख रहा है. इसकी वजह भी है क्योंकि पिछड़ों-दलितों के लिए आरक्षित 50 प्रतिशत के दायरे के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है.सवारानों के लिए 50 फिसद से बाहर सवर्ण आरक्षण का प्रावधान किया गया है. इसमे शक की कोई गुंजाइश नहीं कि बिहार में सवर्णों और पिछड़ों-दलितों को आपस में लड़ाने की राजनीतिक कोशिश को नाकाम पिछड़ी और दलित जाति के कदावर नेता ही कर सकते हैं.

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