गिरिधारी राम गौंझू का निधन, शोक की लहर

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सिटी पोस्ट लाइव, रांची: झारखंड के प्रसिद्ध साहित्यकार,संस्कृतिकर्मी और राजनेता रहे डॉ0 गिरिधारी राम गौंझू का गुरुवार को रिम्स में निधन हो गया। रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष रहे डॉ0 गिरिधारी राम गौंझू ने कई नागपुरी साहित्य की रचना की और नागपुरी साहित्य को समृद्ध करने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी। वे प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी भी थे और उनकी कई किताबें प्रकाशित हुई है। डॉ0 गौंझू सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी काफी सक्रिय रहे और एक बार हटिया विधानसभा क्षेत्र से चुनाव भी लड़ा।

गिरिधारी राम गौंझू जीवन भर जल, जंगल और जमीन के लिए संघर्षरत रहे और आदिवासियों और वनों में रहने वाले वनवासियों के हक और अधिकार को लेकर संघर्ष करते रहे। उनका मानना था कि  झारखंड के लोगों को जंगल, पहाड़, नदी-झरने प्रिय हैं। इनको बचाकर रखना जंगल के लोग जानते हैं। इसके बिना झारखंडियों के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। जंगल के बीच खेत-दोन होने के कारण वर्षा में जंगल के सडे़-गले पत्ते खेत को उपजाऊ बनाते हैं। जंगल में इनके मवेशी चरते हैं। जंगल से ही इन्हें लकड़ी, कंद- मूल, साग- पात, दतवन, जड़ी- बूटी, रूगड़ा- खुखड़ी आदि वनोपज प्राप्त होते हैं, जो इनकी आजीविका के साधन भी हैं।

डॉ0 गौंझू ने अपने एक लेख में कहा था- जंगल कानून बनाकर ब्रिटिश सरकार ने झारखंडियों को जंगल में पशु चराने, लकड़ी, वनोपज आदि लेने पर रोक लगा दी। अंग्रेजी शासनकाल में रेल लाइन बनाने के समय पटरियां बिछाने के लिए साल के बडे़-बड़े पेड़ काट डाले गए, जबकि, झारखंडी आदिवासी, सदान आवश्यक होने पर ही पेड़ काटते हैं, वह भी जमीन से एक हाथ ऊपर, ताकि उससे फिर चारों तरफ नए पेड़ निकल सकें। जलावन के लिए झाड़ियों या टेढ़े-अनुपयोगी वृक्षों की डालियां काटते हैं। पर, जंगल बचाकर रखते हैं। जंगल इनका पोषण करता है। कोई अपने पालनकर्ता का विनाश कैसे कर सकता है? जंगल में रहने वाले बिरहोर कभी भी लकड़ी काटकर घर नहीं बनाते। वे पत्तों से कुंबा (झोंपड़ी) बनाकर सदियों से रहते आ रहे हैं, पर जंगल बर्बाद नहीं किया। जंगल को बचाए रखना वन देवता की पूजा है। अकाल के समय लोगों को जंगल ही पालता है। उन्होंने यह भी लिखा कि जंगल के पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, जीव-जंतु (जल जीव भी) इनके गोत्र (टोटेम) हैं। इनकी रक्षा करना इनका धर्म है। ये इनकी जाति वंश के प्रतीक हैं। इससे पर्यावरण की रक्षा भी होती है। सरहुल में सिर्फ साखू के फूल का, करम पर्व या जीतिया में तीन पतली डालियों को एक बार में काटते हैं। वे मोटी डाली का प्रयोग नहीं करते। शिकार करने के दौरान भी मादा, गाभिन और शिशु जानवरों को मारना पूरी तरह से वर्जित है। ये आगे के लिए बचाकर जड़ी-बूटी आदि का प्रयोग करते हैं, यानी जंगल का आदमी हमेशा जंगल को बचाए रखने की चिंता और उपाय में लगा रहता है। वन ही इनके जीवन का आधार है।

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