देश का पहला मॉब लिंचिंग, जिसमें सिर्फ एक राजनेता को मिली फांसी की सजा

City Post Live - Desk

सिटी पोस्ट लाइव : बिहार, एक ऐसा राज्य, जहाँ से वृहत्तर ज्ञान पुंज को बड़ा फलक हासिल हुआ है। गौरतलब है कि बिहार से ही अहिंसा की अवधारणा उत्पन्न हुई है। सम्पूर्ण मानव जाति की भलाई के लिए इतिहास का सबसे आकर्षक और प्रभावकारी विचार, यहीं की देन है। यहीं से गौतम बुद्ध और भगवान महावीर ने 2600 साल पहले अहिंसा की अवधारणा को स्थापित और विकसित किया था। लेकिन दुर्भाग्य और बड़ी विडंबना देखिए कि इस सूबे के लोग कभी भी अहिंसा के महत्त्व को नहीं समझ सके और देखते ही देखते बिहार एक ऐसा राज्य बन गया, जहाँ विकास कम और बाहुबली नेताओं का उदय ज्यादा देखा गया। साक्ष्य गवाह हैं कि बरसों से ना जाने कितने ही बाहुबली, बिहार की मिट्टी को खून से लाल करते आए हैं।अनंत सिंह, सूरजभान सिंह, सुनील पांडेय, छोटन शुक्ला, मुन्ना शुक्ला, बिंदु सिंह, दिवंगत मोहम्मद शाहबुद्दीन और रामा सिंह जैसे बाहुबली नेताओं के नाम से आज भी बिहार के लोग सिहर और काँप जाते हैं। इन्हीं बाहुबलियों के बीच एक और बड़ा नाम और गिना जाता है, वो नाम है पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह का।

हालाँकि पूर्व सांसद आनंद मोहन को बाहुबली होने का तमगा, उनके विरोधी राजनेताओं के इशारे पर, पूर्व के मीडिया घराने ने दिया है। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति की उपज पूर्व सांसद आनंद मोहन ने 17 साल की उम्र में ही सियासत की शुरुआत कर दी थी। सच यह है कि आनंद मोहन की विरासत, एक बड़े स्वतंत्रता सेनानी का परिवार रहा है। पूर्व सांसद आनंद मोहन के दादा राम बहादुर सिंह से मिलने महात्मा गांधी, उनके पैतृक गाँव, बिहार के सहरसा जिले के पंचगछिया गाँव आये थे। उस समय स्वतंत्रता सेनानी राम बहादुर सिंह और उनकी पत्नी ने घर के सारे आभूषण और नकदी, आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी को सौंप दिए थे। ये आजाद भारत के पहले ऐसे राजनेता हैं, जिन्हें मॉब लिंचिंग के मामले में अकेले ही फाँसी की सजा सुनाई गई। हालांकि, इस सजा को बाद में माननीय सुप्रीमकोर्ट ने उम्र कैद में बदल दिया। इसी आजीवन कारावास की सजा के तहत आनंद मोहन, आज तक जेल की सलाखों के पीछे हैं।

क्रांतिकारी को बाहुबली बताने की साजिश

आनंद मोहन, जेपी आंदोलन की उपज रहे हैं। जिस समय आनंद मोहन इंटर के छात्र थे, उसी समय पूरे देश में जेपी का सम्पूर्ण क्रांति के नारे के साथ बड़ा आंदोलन हुआ। इस आंदोलन में आनंद मोहन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नतीजतन, वे जेल गए और उनके आगे की पढ़ाई भी छूट गयी। यहीं से, समाज और व्यवस्था बदलने का जिगर में ज्वाल लिए आनंद मोहन राजनीति में कूद पड़े। युवावस्था में ही जिद और जुनून की राजनीति शुरू करने वाले आनंद मोहन पर कई संगीन मुकदमे भी दर्ज हुए। एक मामले में उन पर शूट वारंट भी जारी हुआ। इस मामले में इन्होंने, 1983 में सहरसा के पटेल मैदान में बिहार के छोटे साहब कहे जाने वाले सत्येंद्र नारायण सिंह के सामने मंच पर आत्मसमर्पण किया। इस आत्मसमर्पण में दिवंगत उमेश प्रसाद सिंह, जो यूनिवर्सिटी प्रोफेसर और अंग्रेजी के ख्यातिलब्ध पत्रकार थे, उनकी अहम भूमिका थी। लोगों का कहना है कि बिहार के सहरसा जिला मुख्यालय के पटेल मैदान से लेकर नया बाजार, जिला स्कूल वाली सड़क सहित सभी मार्गों पर 20 लाख से अधिक आनंद मोहन के समर्थक जमा हुए थे। बीबीसी पर समाचार आया था कि ऐसी भीड़ किसी रॉबिन हुड के लिए ही जमा हो सकती है। उस दौरान कुछ सालों तक आनंद मोहन सहरसा जेल में रहे।

1990 के दशक में राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव का अभ्युदय हुआ। यह वह दौर था, जिसमें जातीय संघर्ष की खूनी पटकथा लिखी गयी। पप्पू यादव ने ब्राह्मण और राजपूत जाति के लोगों को निशाना बनाना शुरू किया। आनंद मोहन ने इसका जम कर प्रतिकार किया, जिसमें दोनों पक्षों के कई लोग मारे गए। पप्पू यादव को लालू प्रसाद यादव का आशीर्वाद प्राप्त था। आनंद मोहन के टेरर से कोसी और सीमांचल में कभी भी, किसी बड़ी घटना का अंदेशा लगा रहता था। लेकिन कई लोगों की जान जाने के बाद, आनंद मोहन और पप्पू यादव के बीच होने वाले खूनी खेल को लगाम लगा। 1994 में एक मामला ऐसा आया, जिसने ना सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश को हिला कर रख दिया। दरअसल, जिस समय आनंद मोहन की राजनीति चरम पर थी, उस समय बिहार के मुजफ्फरपुर में बाहुबली नेता छोटन शुक्ला का राज चलता था। जानकारों की मानें तो, आनंद मोहन और छोटन शुक्ला के बीच गहरी दोस्ती थी। 5 दिसंबर 1994 को छोटन शुक्ला को गोलियों से छलनी कर, उनकी हत्या कर दी गई। पूरा बिहार जानता है कि छोटन शुक्ला की हत्या के बाद, शोकाकुल परिवार से मिलने आनंद मोहन अपनी पत्नी लवली आनंद के साथ, छोटन शुक्ला के गाँव पहुँचे। मातमपुर्सी के बाद, आनंद मोहन वापिस पटना लौट रहे थे, उसी दौरान छोटन शुक्ला के शव के साथ, हजारों लोगों ने उनकी शव यात्रा निकाली।

छोटन शुक्ला के समर्थक, इस हत्या से बेहद खफा और आक्रोशित थे। दुर्भाग्यवश उसी दौरान, उस जन सैलाब के बीच से तत्कालीन गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया, अपनी लाल बत्ती वाली गाड़ी से गुजर रहे थे। आक्रोशित भीड़ ने गाड़ी में लगी लाल बत्ती को देखते ही अपना आपा खो दिया। आक्रोशित लोगों ने यह नहीं समझा कि गाड़ी के भीतर बैठे अधिकारी कौन हैं और और वे कहाँ पदस्थापित हैं। भीड़ ने तत्कालीन गोपालगंज डीएम की गाड़ी पर पहले तो जम कर पथड़ाव किया, फिर उन्हें पीट-पीट कर मौत के घाट उतार डाला। यह घटना मुजफ्फरपुर के खाबरा गांव के पास की है।

यह मामला पूरी तरह से मॉब लिंचिंग का था लेकिन इस मामले को पूरी तरह से राजनीतिक रंग दे दिया गया। इस हत्या के बाद, यह प्रचारित-प्रासारित किया गया कि छोटन शुक्ला की लाश के साथ राजनीतिक रैली निकाली गयी थी। रैली में हजारों की भीड़ मौजूद थी। इसी बीच हाजीपुर के रास्ते नेशनल हाईवे नंबर 28 से एक लाल बत्ती की गाड़ी गुजर रही थी। गाड़ी में गोपालगंज के दलित आईएएस अधिकारी जी. कृष्णैया मुजफ्फरपुर की आधिकारिक बैठक में हिस्सा लेकर गोपालगंज वापस लौट रहे थे। लाल बत्ती लगी गाड़ी को देख कर, भीड़ भड़क उठी और गाड़ी पर पथराव करना शुरू कर दिया। फिर उसके बाद, जी. कृष्णैया को गाड़ी से बाहर निकाला गया और खाबरा गांव के पास भीड़ ने पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी।

कहा गया कि इस भीड़ को आनंद मोहन द्वारा उकसाया गया था। आनंद मोहन पर आरोप यह लगाया गया कि उन्हीं के कहने पर भीड़ ने जी. कृष्णैया की हत्या की। इस हत्या मामले में आनंद मोहन, उनकी पत्नी लवली आनंद समेत 6 लोगों को आरोपी बनाया गया। 2007 में स्पीडी ट्रायल के तहत पटना हाईकोर्ट ने आनंद मोहन को दोषी ठहराया और उन्हें फाँसी की सजा सुनाई, जबकि अन्य सभी आरोपियों को बरी कर दिया। आजाद भारत में यह पहला मामला था, जिसमें एक राजनेता को फांसी की सजा दी गई थी। हालांकि, 2008 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया। साल 2012 में आनंद मोहन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट से सजा कम करने की मांग की थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया और वे आज भी आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं। यहाँ बेहद अहम बात यह है कि डीएम की हत्या मामले में, छोटन शुक्ला के सगे भाई बाहुबली मुन्ना शुक्ला को भी आरोपी बनाया गया था।

लेकिन माननीय कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। यहाँ बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि छोटन शुक्ला की हत्या से अधिक दुःख और आक्रोश सगे भाई को होगा, या फिर आनंद मोहन को होगा ? चूंकि, 2007 में आनंद मोहन बिहार के सबसे अधिक प्रभावशाली नेता के रूप में जाने जाते थे और बिहार की सत्ता का सिंहासन आनंद मोहन को निहार रहा था, ऐसे में उनकी राजनीति को खत्म करने के लिए गहरी साजिश की गई। आनंद मोहन को सजा दिलाने के लिए देश के बड़े वकीलों और जजों से परामर्श लेकर, प्रपंची सबूतों को ईजाद कर के मोटी किताब तैयार कर ली गयी। इस मामले को आनंद मोहन ने कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया था था। उन्हें लगता था कि जब उन्होंने कोई गुनाह किया ही नहीं है, तो फिर इसके लिए बड़े वकीलों से सलाह लेने की क्या जरूरत है ? इस मामले को हल्के में लेना, आनंद मोहन के गले की फांस बन गया। जब तक आनंद मोहन पूरे षड्यन्त को समझ पाते, तब तक उनके खिलाफ सबूतों का जखीरा तैयार कर लिया गया था। बाद में, आनंद मोहन की सारी कोशिशें बेजा साबित हुईं और सबूतों के आधार पर माननीय कोर्ट को यह फैसला सुनाना पड़ा।

गौरतलब है कि आनंद मोहन और लवली आनंद की शादी 1991 में हुई थी। आजीवन कारावास के सजायाफ्ता होने कर बाद भी, आनंद मोहन की राजनीतिक हैसियत कम नहीं हुई थी। जेल में रहते हुए भी 2010 में वे अपनी पत्नी लवली आनंद को कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव और 2014 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़वाने में कामयाब रहे। यही नहीं 2019 में आनंद मोहन ने अपने राजनीतिक प्रभाव से राजद के टिकट पर पत्नी लवली आनंद को सहरसा और बड़े बेटे चेतन आनंद को शिवहर से चुनाव लड़वाया। 84 हजार वोट लाकर लवली आनंद को जहाँ हार मिली, वहीं चेतन आनंद शिवहर से विधायक बनने में कामयाब रहे। इससे यह साफ जाहिर होता है कि भले ही, सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी करार दिए जा चुके राजनेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी हो लेकिन बिहार में आनंद मोहन का दबदबा आज भी कम नहीं हुआ है।

यही वजह है कि 15 मई को कई घंटों तक ट्विटर पर रिलीज आनंद मोहन नंबर एक पर ट्रेंड करता रहा। यही नहीं, आनंद मोहन के लाखों समर्थकों ने आनंद मोहन की रिहाई को लेकर, 25 मई को देश से लेकर विदेश तक, एक दिन का उपवास रखा। इसके अलावा, आनंद मोहन के समर्थकों ने 5 जून से 30 जून तक, पोस्टकार्ड और अन्तर्देशी के जरिये, महामहिम राष्ट्रपति, माननीय सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, माननीय प्रधान मंत्री, महामहिम राज्यपाल और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को, आनंद मोहन की रिहाई को लेकर पत्र भी लिखे। अभी तक आनंद मोहन के समर्थक, उनकी रिहाई को लेकर, गांधीवादी तरीके से आंदोलनरत ही हैं।

एक साथ तीन परिवार को नहीं मिला न्याय

हमने जी. कृष्णैया हत्या मामले में बेहद सूक्ष्मता से जानकारियाँ इकट्ठी की है। हमने इस घटना में पाया है कि आनंद मोहन के साथ राजनीतिक प्रतिद्वंदता और आनंद मोहन के राजनीतिक अवसान के लिए सुनियोजित तरीके से सबूतों के जखीरे के साथ एक मजबूत पटकथा लिखी गयी थी। इस हत्याकांड में आनंद मोहन को सजायाफ्ता बनाया गया, जबकि हत्या में भीड़ शामिल थी। अगर हत्यारी भीड़ में से कुछ लोगों को भी सजा मिल पाती, तो हम समझते कि दिवंगत जी. कृष्णैया के परिवार को न्याय मिल गया। लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ। दिवंगत जी. कृष्णैया का परिवार भी न्याय पाने में असफल रहा। दिवंगत छोटन शुक्ला के हत्यारों के बारे में, बिहार पुलिस आज तक कोई सूचना तक नहीं पा सकी है। आखिर किन लोगों ने छोटन शुक्ला की हत्या की? दिवंगत छोटन शुक्ला के परिवार को भी न्याय नहीं मिल सका। बेगुनाह होते हुए, आनंद मोहन को सजा मिली। आनंद मोहन के परिवार को भी न्याय नहीं मिल सका। दीगर बात है कि एक ऐसा हत्याकांड, जिसमें तीन परिवारों के साथ अन्याय हुए और उन्हें सही न्याय मिल सका।

आनंद मोहन की रिहाई के सारे पट खुले

पूर्व सांसद आनंद मोहन की रिहाई के सारे अवरोधक, अब खत्म हो चुके हैं और एक साथ रिहाई के सारे पट खुल चुके हैं। राज्य जेल प्रशासन के भीतरखाने से मिली जानकारी के मुताबिक पूर्व सांसद आनंद मोहन की 14 वर्षों की सजा, बीते मई माह में ही पूरी हो चुकी है। अगर 20 साल की सजा के तौर पर देखा जाए, तो उनकी सजा 4 महीने में पूरी हो जाएगी। राज्य जेल प्रशासन के सूत्रों से हमारे पास यह पुख्ता जानकारी है कि आनंद मोहन को 14 साल की सजा के दायरे में रखा गया है और 15 अगस्त से पहले उनकी रिहाई तय है। सरकार के स्तर से सारे कोरम पूरे किये जा चुके हैं। रही कानूनी प्रक्रिया की बात, तो वह भी, अपने अंतिम दौर में है। यानि, अब आनंद मोहन की रिहाई की घोषणा किसी भी समय हो सकती है। वर्षों से आनंद मोहन की रिहाई की बाट जोह रहे, लाखों आनंद मोहन समर्थकों के लिए उत्सव और महोत्सव का समय, बस आने वाला ही है। आनंद मोहन रिहाई के मुहाने पर खड़े हैं।

पीटीएन ग्रुप के मैनेजिंग एडिटर मुकेश कुमार सिंह की खास रिपोर्ट

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