कन्हैया कुमार के जरिये बेगूसराय में बामपंथ की वापसी की राह कितना आसान?

City Post Live

सिटी पोस्ट लाइव (कनक कुमार ) : हिन्दुस्तानी आवामी मोर्चा के नेता और पूर्व सीएम जीतनराम मांझी ने जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के महागठबंधन से चुनाव लड़ने का ऑफर दिया है. उन्होंने कहा कि अगर ऐसा होता है तो कन्हैया का महागठबंधन में स्वागत करेंगे. सोमवार को सासाराम के दौरे पर पहुंचे पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि पिछले दिनों उक्त मामले पर उनकी आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद से बात हो चुकी है.

लेकिन राजनीतिक पंडितों का मानना है कि कन्हैया कुमार के लिए बेगूसराय से लोक सभा पहुँचाने की राह आसान नहीं होगी. पूरब के लेनिनग्राद के नाम से चर्चित बेगूसराय में पिछले एक दशक से कमल खिलने लगा है. भूमिहारों के दबदबे वाली बेगूसराय लोकसभा सीट से कन्हैया कुमार का चुनावी सफ़र बेहद मुश्किल हो सकता है. पूरब के लेनिनग्राद के नाम से चर्चित बेगूसराय में कन्हैया के सहारे वामपंथ की वापसी का रास्ता जातीय समीकरण की वजह से अब आसान नहीं रहा.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी  के राज्य सचिव सत्यनारायण सिंह के अनुसार राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू यादव और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कन्हैया की उम्मीदवारी का समर्थन किया है. उन्होंने कहा कि उम्मीदवार चयन की सांगठनिक प्रक्रिया में देरी हो सकती है लेकिन सैद्धांतिक तौर पर उनके नाम पर सहमति है. इधर कन्हैया कुमार भी कह चुके हैं कि जब राष्ट्रीय नेता चाहते हैं तो क्या आपत्ति हो सकती है.बेगूसराय उनका घर है. यहाँ से चुनाव लड़ने पर विचार कर सकते हैं.”

गौरतलब है कि 1962 के बाद से 2010 तक यह सीट सीपीआई के कब्जे में रही. कन्हैया खुद भूमिहार जाति से हैं जिसका दबदबा इस सीट पर शुरू से रहा है. लगभग 17 लाख मतदाताओं में भूमिहारों की संख्या सबसे ज्यादा है, इसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग, मुसलमान और अनुसूचित जातियों की संख्या है. ओबीसी में कुशवाहा यानी कोईरी की संख्या सबसे ज्यादा है. भूमिहारों का वर्चस्व मटिहानी, बेगूसराय और तेघरा विधानसभा सीटों पर है.

भूमिहारों ने बेगूसराय को वामपंथ का गढ़ बनाया और फिर ढहा भी दिया. 60 के दशक में लाल मिर्च और टाल इलाके में दलहन की खेती से जुड़े लोगों ने वामपंथी आंदोलन का साथ दिया. शोषित भूमिहारों ने ही सामंत भूमिहारों के खिलाफ हथियार उठा लिया. 70 के दशक में कामदेव सिंह अंडरवर्ल्ड डॉन के रूप में उभरा और बेगूसराय खूनी संघर्ष का अखाड़ा बन गया.कामदेव के गुर्गों ने लोकप्रिय वामपंथी नेता सीताराम मिश्र की हत्या कर दी. इसके बावजूद चंद्रशेखर सिंह, राजेंद्र प्रसाद सिंह जैसे भूमिहार नेताओं के बूते सीपीआई ने इलाके में राजनीतिक दबदबा कायम रखा. 1995 तक बेगूसराय लोकसभा की सात में पांच सीटों पर वामपंथी दलों का कब्जा था.

लेकिन लालू यादव  सवर्णों के खिलाफ मुहिम और  मध्य बिहार में भूमिहारों की रणवीर सेना और माले के बीच खुनी संघर्ष के बाद बेगूसराय के भूमिहारों का भी वामपंथ से मोह भंग होने लगा. वो कांग्रेस की तरफ झुके और राजो सिंह जैसे नेता का कद बढ़ा. पर, 1997 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने राबड़ी सरकार को समर्थन देकर राजनीतिक भूचाल पैदा कर दिया. भूमिहारों का बड़ा तबका कांग्रेस से दूर हो गया और वो समता पार्टी-भारतीय जनता पार्टी गठबंधन के साथ चले गए. 2000 के चुनाव में लालू ने सीपीआई और सीपीएम के साथ राजनीतिक साझीदारी कर ली और इसी के साथ पूरब के लेनिनग्राद से वामपंथ की समाप्ति की कहानी लिख दी गई.अब लेनिन की धरती पर कमल खिलने लगा है और बामपंथ की वापसी बेहद कठिन दिख रहा है.

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