अमरेश्वरी चरण सिन्हा की कलम से
दरभंगा : उर्दू के महान साहित्यकार इकबाल ने कहा है-
यूनानो, मिस्र, रोम सब मिट गये जहाँ से।
अब तक मगर है बाकी नामोंनिशाँ हमारा।।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
बरसों रहा है दुश्मन दौरे जमाँ हमारा।।
उन्होंने कहा था कि यूनान, मिस्र, रोम आदि की बड़ी-बड़ी संस्कृतियाँ मर चुकी हैं. पर हमारे देश का विनाश नहीं हो पाया. यद्यपि काल ने हजारों वर्ष तक उसे मिटाने का प्रयास किया है. लेकिन इकबाल ने चेतावनी देते हुए यह भी कहा था-
न संभलेंगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँवालों, तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।
अब प्रश्न उठता है कि वह कौन सी चीज है, जिसने भारत को ऐसा बनाया कि उसे अमरत्व प्राप्त हो सका? इसको कहने में कोई गुरेज नहीं कि इस अमरता के पीछे हमारा बाहरी आचरण, ऊपरी दिखावा या र्इंट-पत्थरों से बने आलीशान सुविधा सम्पन्न परिवेश नहीं होंगे. भारत का ऐश्वर्य सिर्फ सन्यास में भी नहीं है. क्योंकि यह वस्तुएं देश-काल के अनुरूप बदलती रहती है. हमारी भौतिक विद्यायें भी नहीं हो सकती. फिर आखिर वह कौन-सी चीज है जो भारत को भारत बनाती है और उसे विशेष स्थान प्रदान करती है. जिस पर इकबाल जैसा महान चिंतक यह कहते हों कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी. इसका उत्तर महर्षि अरविन्द के इन वाक्यों में हमें मिल सकता है. उन्होंने कहा था- ‘साधारणत: पश्चिमीय मन में निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर तथा बाहर से अन्दर की ओर जीवन चलाने की प्रवृति होती है. वह अपनी दृढ़ नीव तो प्राणिक और भौतिक प्रकृति पर रखता है और उच्चतर शक्तियों को केवल प्राकृतिक पार्थिव जीवन को सुधारने तथा अंशत: ऊपर उठाने के लिए ही पुकारता है और ग्रहण करता है. वह अन्तर्जीवन को वाहृय शक्तियों द्वारा गठित और परिचालित करता है.’ लेकिन दूसरी ओर भारत का सतत लक्ष्य रहा है उच्चतर आध्यात्मिक सत्य में जीवन के आधार का अन्वेषण करना और अन्तरात्मा को आधार बनाकर वहां से बाहर के जीवन को चलाना, मन-प्राण और शरीर की वर्त्तमान जीवन प्रणाली को लांघकर बाह्य प्रकृति पर शासन करना तथा उसे आदेश-निर्देश देना. हमारे वैदिक कालीन ऋषि-मुनियों ने बताया है कि ‘जब वे नीचे स्थित थे तब भी उनका दिव्य आधार ऊपर था, उसकी किरणें हमारे अन्दर गहरी प्रतिष्ठित हो जायं.’ हमारी पहचान है कि भारतीय संस्कृति में मिथिला नरेश जनक का आदर्श. राजा के साधक होने की परंपरा का दृश्य सामने आता है. क्षत्रिय और ब्राह्मण का गुण एक व्यक्ति के चरित्र में एकाकार हो जाता है. फिर राजा दशरथ वशिष्ठ की अनुमति के बिना कुछ नहीं करते. स्मरण रहे वशिष्ठ और मुनि व्यास जैसे ब्राह्मण स्थान को सुशोभित करने वाले कर्म प्रधान व्यक्तित्व के धनी थे. दूसरी ओर यूरोप ने भौतिक, प्राणिक और मानसिक क्षेत्र में बड़ी प्रगति की है, परन्तु आध्यात्मिक प्रगति उनसे कोसों दूर है. ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि मानव जाति को विनाश से और मनुष्य जाति को हजारों वर्ष पूर्व के वहशीपन से बचाने के लिए भारत अपने पौराणिक संस्कारों पर आधारित जीवन शैली को जीवंतता प्रदान करे. ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के प्रयास नहीं हो रहे हैं. भले ही वह नगण्य नजर आयें, परन्तु उसे सतत आगे बढ़ाने के बाद ही हम अपने पूर्वजों के ऐश्वर्य को कायम रखते हुए संस्कारयुक्त परिवेश के साथ विश्व को यह बताने में सक्षम होंगे कि हमारी हस्ती अब भी बनी हुई है और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए आज भी हम तत्पर है. आज की समस्या सचमुच बहुत गंभीर है. भौतिकता और आधुनिकी यूरोपीय संस्कृति के सामने हमारी पीढ़ी हथियार डालती जा रही है. क्योंकि उसे विकल्प नजर नहीं आ रहा. इतना ही नहीं आजादी के बाद भारत निर्माण के नाम पर देश में जिस प्रकार की भ्रांतियां फैलाकर सिर्फ कुर्सी पर बने रहने की सोंच विकृत रूप में बढ़ती गई. उसने स्वार्थपरक जीवन की शैली को प्रभावित किया और सुसंस्कार रूढ़ीवादिता के नाम पर दरकिनार किया जाने लगा. इस परिवेश में भारतीय चिन्तन की स्वभाविक और परंपरागत विचारधारा को मजबूती प्रदान करने के साथ-साथ विनाश की ओर ले जाने वाली धारा को रोकने की शक्ति का संचय किया जाना आवश्यक है. संभव है यह कार्य कठिन और दुस्साहस पूर्ण हो, परन्तु यह भी सच्चाई है कि हमारी हस्ती यदि नहीं मिटी है, तो उसका मूलाधार हमारे पुरखों के स्थापित मापदंड है. वस्तुत: वह आदर्श आत्म जागरण को साकार स्वरूप प्रदान करते हैं, इसलिए मशीनी युग में उस मर्म को समझने और आत्मसात करने की शक्ति कमजोर पड़ी है. परन्तु भारत की हस्ती को कायम रखने के लिए उस पथ पर वीरों की तरह चलने की जरूरत है.