सिटी पोस्ट लाइव :बिहार स्टेट हेल्थ सोसाइटी, बिहार के आंकडों के अनुसार तो राज्य के 534 प्राथमिक संवास्थ्य केंद्रों में से एक भी चालू हालत में नहीं है.रेफ़रल अस्पतालों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 466 है, मगर कार्यरत सिर्फ 67 हैं. ऐसा ही हाल अनुमंडल अस्पतालों और सदर अथवा जिला अस्पतालों का भी है. राज्य के 13 मेडिकल कॉलेजों में से भी केवल 10 ही फंक्शनल है.2011 की जनगणना के हिसाब से देखें तो स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पतालों की जरूरत लगभग दुगनी ज़्यादा हैं. लेकिन यहां जरूरतों की बात करना भी बेमानी लगता है! जो केंद्र और अस्पताल पहले से हैं वे भी नहीं चल पा रहे हैं क्योंकि डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ़ की 60 फीसदी से भी अधिक कमी है.
बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने इसी साल मार्च 2020 में विधानसभा के अंदर राजद के विधायक शिवचंद्र राम की तरफ से उठाए गए प्रश्न का जवाब देते हुए कहा था, “राज्य में चिकित्सा पदाधिकारी के कुल स्वीकृत पद 10609 हैं. जिसमें से 6437 पद रिक्त हैं. यानी 61 प्रतिशत जगहें खाली हैं.
केवल डॉक्टर ही नहीं राज्य में मेडिकल स्टाफ़ और नर्सों की भी भारी कमी है. यहां स्टाफ़ नर्स ग्रेड के कुल स्वीकृत पद 14198 हैं, लेकिन कार्यरत बल महज 5068 है. एनएनएम नर्स के भी 10 हज़ार से अधिक पदें खाली हैं.विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक प्रति एक हज़ार की आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए. इंडियन मेडिकल काउंसिल भी कहता है कि 1681 लोगों के लिए एक डॉक्टर की आवश्यकता है. इस लिहाज से 2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार में एक लाख से अधिक डॉक्टर होने चाहिए.लेकिन नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के आंकड़ों के अनुसार बिहार में 28 हज़ार 391 लोगों पर सिर्फ़ एक डॉक्टर हैं.
पटना मेडिकल कॉलेज में भी 40 फ़ीसदी डॉक्टरों की कमी है. दरभंगा मेडिकल कॉलेज में भी 50 फ़ीसदी डॉक्टरों की कमी है.राज्य में डॉक्टरों के जो स्वीकृत पद हैं वे राज्य के अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों के आधार पर बनाए गए हैं. गौरतलब है कि अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों की संख्या आधी से भी कम है.विधानसभा में मार्च में ही स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय ने कहा था, “रिक्त कुल 6437 चिकित्सकों अर्थात 2425 विशेषज्ञ चिकित्सकों और 4012 सामान्य चिकित्सकों की नियुक्ति हेतु अधियाचना बिहार तकनीकी सेवा आयोग का भेजा जा चुका है.”
30 जुलाई को मंगल पांडेय ने ट्वीट करके यह जानकारी दी कि 13 विभागों 929 विशेषज्ञ चिकित्सकों की प्रथम नियुक्ति कर पदस्थापना का आदेश जारी कर दिया गया है.मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कोविड टेस्ट संख्या बढाने और कोविड अस्पतालों में बेहतर सुविधाओं के लिए कई फरमान जारी किए है लेकिन ज़मीन पर स्थिति उन फरमानों से अलग दिखती है.कोरोना वायरस के ऐसे विकट समय में एक तो पहले से राज्य के अंदर डॉक्टरों की भारी कमी है. ऊपर से बिहार में डाक्टरों में संक्रमण के मामले सबसे ज़्यादा आ रहे हैं.इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के प्रदेश सचिव डॉ सुनील कुमार का कहना है यहां कोरोना वायरस के कारण डॉक्टरों की मौत का प्रतिशत भी देश के बाकी राज्यों की तुलना में अधिक है. अब तक 250 से अधिक डॉक्टर कोरोना संक्रमित हो चुके हैं.डॉ सुनील कहते हैं, “बिहार में कोरोना वायरस की चपेट में आकर डॉक्टरों की मौत का प्रतिशत 4.42 है. जबकि राष्ट्रीय औसत 0.5 फ़ीसदी है. सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्य महाराष्ट्र में डॉक्टरों की मौत का प्रतिशत 0.15 है. दिल्ली में 0.3 फ़ीसदी है. कर्नाटक में 0.6 फीसदी, आंध्र प्रदेश में 0.7 फ़ीसदी और तामिलनाडु में 0.1 फ़ीसदी है.”
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने बिहार में डॉक्टरों में संक्रमण के मामले सबसे ज़्यादा मिलने का ज़िम्मेदार बिहार सरकार को ठहराया है. एसोसिएशन का आरोप है कि जो मंत्री और नेता अस्पतालों में विजिट करने आते हैं उनके लिए डॉक्टरों से ज़्यादा बेहतर गुणवत्ता वाले सुरक्षा उपकरणों (पीपीई किट वगैरह) का इंतजाम रहता है.राज्य सचिव सुनील कुमार कहते हैं, “हमारी बात को राज्य के हेल्थ सेक्रेटरी प्रत्यय अमृत ने भी स्वीकार किया जब वे एनएमसीएच में का दौरा करने गए थे. वहां की हालत देखकर उन्होंने साफ़ कहा था कि डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ़ के पास बेहतर क्वालिटी के सुरक्षा उपकरण नहीं है. जबकि एनएमसीएच राज्य का सबसे बड़ा और सबसे पहला कोरोना डेडिकेटेड अस्पताल है. बाक़ी अस्पतालों के डॉक्टरों की हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है”
गौरतलब है कि जो डॉक्टर अभी कार्यरत हैं उनमें से आधे से अधिक डॉक्टरों की उम्र 50 साल को पार कर गई है. विभाग से कई बार यह कहा गया कि 60 साल से अधिक आयु वाले डॉक्टरों को कोविड की ड्यूटी नहीं दी जाए. मगर बावजूद इसके वे डॉक्टर पिछले कई महीनों से बिना छुट्टी के काम कर रहे हैं. इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि सरकार को डॉक्टरों की चिंता नहीं है.बिहार में पंजीकृत डॉक्टरों की कुल संख्या 20 हज़ार के क़रीब है. इनमें से लगभग चार हज़ार डॉक्टर सरकारी अस्पतालों में कार्यरत हैं. बाक़ी या निजी अस्पतालों में काम कर रहे हैं या फिर संविदा पर हैं.
आईएमए के स्टेट सेक्रेटरी सुनील कुमार कहते हैं, ” यहां प्राइवेट अस्पतालों में डॉक्टर हैं लेकिन वहां इलाज महंगा है. यह सरकार की विफलता है कि वह डॉक्टरों के रहते हुए भी उनकी कमी से जूझ रही है. अगर आपके पास डॉक्टरों के इतने पद खाली हैं तो वक्त की ज़रूरत को देखते हुए खाली पड़े सभी सात हज़ार पदों के लिए प्राइवेट डॉक्टरों में से ही काउंसेलिंग के ज़रिए क्यों नहीं ज़रूरत पूरी हो सकती.”
वैसे निजी अस्पतालों में डॉक्टर भले हों मगर इस कोरोना काल में प्राय: अस्पतालों ने मरीज़ों के लिए अपने द्वार बंद कर लिए हैं. बिहार सरकार की तरफ़ से कुछ अस्पतालों को चिन्हित करके वहां कोविड 19 के इलाज की व्यवस्था ज़रूर शुरू कराई गई है मगर उन अस्पतालों के बिस्तर भर चुके हैं. ऐसे में जब अस्पताल मरीज़ को एडमिट ही नहीं करेंगे तो डॉक्टर इलाज कैसे करेगा?