पलामू प्रमंडल में नक्सली आन्दोलन फैलने का मुख्य कारण है आन्तरिक दोहन
मेदनीनगर: आंदोलन चाहे जैसा भी हो, वह कभी भी किसी एक कारण से उत्पन्न नहीं होता । इसके नेपथ्य में अनेक कारण होते हैं । जहां तक नक्सलवादी आन्दोलन की बात है, तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि नक्सलवाद या नक्सली वहीं पनपते है ,जहां पेट पर लात मारी जाती है जहां सामाजिक शोषण होता है। गरीब, बेसहारा की इज्जत लूटी जाती है। अर्थात जहां मानसिक शारीरिक और आन्तरिक दोहन होता है, वहां आन्दोलन होता है । झारखंड में जहां नक्सलवाद की चर्चा हो वहां पर पलामू का नाम स्वतः ही सामने आ जाता है. नक्सलवाल को लेकर पलामू ज़िला राज्य ही नहीं बल्कि देष व विदेशों में विख्यात है. झारखंड राज्य के पलामू प्रमंडल में नक्सली आन्दोलन फैलने का मुख्य कारण आन्तरिक दोहन ही है। अमीरी-गरीबी का बढ़ता दायरा, भयानक शोषण, भ्रष्ट, रिश्वतखोर, संवेदनशील नेताओं और उच्च अधिकारियों कि दो मुहेपन ने नक्सली आन्दोलन को फैलाने में आग में घी डालने का काम किया है । यह भी एक सच्चाई रही है कि एकीकृत बिहार राज्य में पुलिस प्रशासन और राज्य के राजनैतिक नेतृत्व की असफलता नक्सलवाद को हवा देने में ही कारगर रही है. निरंकुश अपराधियों से सम्बद्ध पुलिस कहीं-कहीं तो अपराधिक गतिविधियों को ही बढ़ावा मिली जिसमें पुलिस एवं प्रशासन की कार्य प्रणालियों को शक की दृष्टि से देखा जाने लगा। वर्तमान परिस्थितियों में जनता एवं पुलिस के बीच कौन सा रिश्ता है इस पर भी सवालिया निशान लग गया है।
जब ये नक्सलवादी जन अदालत के द्वारा समानान्तर शासन करने लगें तो सरकार समानान्तर राज्य को नहीं पचा सकी । सरकार थोड़ा भी सतर्क रहती तो ये नक्सली अपने मकसद में कामयाब नहीं होते । केवल पुलिस एवं प्रशासन की मदद से नक्सलवाद की रोक थाम नहीं की जा सकती । ये तो स्पष्ट जाहिर है कि अगर सरकार बेरोजगारों को रोजगार देती, भूखे पेट को अन्न देती, नंगे बदन को वस्त्र देती तो नक्सवाद को इतना बढ़ावा नहीं मिलता। बलात्कारियों को फांसी मिलती तो नक्सलवाद इतना नहीं पनपता । अन्न, वस्त्र, मकान, इज्जत, प्रतिष्ठा एवं उचित न्याय मिलते ही नक्सलवादी प्रथा स्वयं समाप्त हो जाती । अपनी सरकार के पास जो साधन तंत्र है वह इसकी रोकथाम के लिए सक्षम नहीं है ।जब तक आम नागरिक को सही हक और न्याय नहीं मिलेगा तब तक नक्सलवादी आन्दोलन को दबाना उचित नहीं । परन्तु यह भी सत्य है कि हक की लड़ाई के लिए खून की होली खेलना और गोली की बोली बोलना, समझना आवश्यक नहीं है । अगर नक्सली हिसांत्मक रूख अपना कर हक हासिल करना चहते है तो इस आन्दोलन को दबाना ही उचित होगा क्यों कि खूनी क्रांति से हम समाज के उज्ज्वल भविष्य की कामना नहीं कर सकते। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग ज्यादा शिक्षित एवं धनवान नही है । जहां न्याय पाने के लिए शहरों मे न्यायालय की चैखट पर बार-बार न्याय की गुहार करते- करते वे थक जाते है वहीं नक्सली जन अदालत लगा कर बैल-बकरी की चोरी से लेकर बलात्कार, हत्या तक के फैसलों को तत्काल अंजाम दे दिया करते है । फलस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में इनका भी प्रभाव बढ़ा। नक्सलवाद का विकल्प अवश्य हो सकता है । इसके लिए उनके मन मस्तिष्क में व्याप्त आक्रोश को शान्त करने के लिए वर्तमान झारखंड सरकार गुमराह लोगों को मुख्य धारा से जोड़ने का काम कर रही है । यही इसका एक मात्र विकल्प भी है । नक्सलवाद को रोकने के लिए रघुवर सरकार ने कई कदम उठाये है और इस कारण राज्य में नक्यली गतिविधियां अपनी अंतिम सांस ले रही है । राज्य में बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिए रघुवर सरकार ने स्किल डेवलपमेंट को बढावा दिया है ।गरीबों को रोटी, कपड़ा और मकान मुहैया कराने की दिशा में कदम उठाया है । नक्सलवाद को रोकने के लिए सामाजिक बदलाव भी आवश्यक है। जाति भेद, वर्ण भेद को समूल नाश करना होगा । अपने जन्म काल से लेकर अब तक पूरा नक्सली आन्दोलन 40-42 गुटों में विभाजित हो चुका है और हर गुट अपने को शक्तिशाली बनाने के लिए प्रयत्नशील है । किसी एक गुट के द्वारा हत्याएं की जाती है तो उनके विरोध में दूसरा गुट अधिक जन संहार कर बैठता है । कुपरिणाम यह होता है कि अत्याचार एवं शोषण से मुक्ति पाने के बजाय दहशत, भय का खौफनाक माहौल तैयार हो जाता है। राज्य सरकार ने जब नक्सलियों के विरूद्ध शिकंजा कसना शुरू किया तब इन्होंने अपने कार्य करने का तरीका बदल दिया है।आज की तिथि में इनका दुश्मन नंबर एक सिर्फ पुलिस है. आम जनता को अब ये पहले की तरह तंग नहीं कर रहे।