बिहार में टिकेट की मांग बढ़ी तो बनने लगे धडाधड नये राजनीतिक दल.

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सिटी पोस्ट लाइव :आजकल राजनीति सबसे फायदेमंद कारोबार बन गया है.हर कोई राजनीति में आने को बेताब है.हर कोई चुनाव लड़ना चाहता है.अधिकारी हो या ठेकेदार ,बिल्डर या व्यापारी जिसने कुछ कमा लिया है राजनीति में अपना भाग्य आजमाना चाहता है.पिछले विधान सभा चुनाव में 1150 उम्मीदवार बिना टिकट के मैदान में कूद पड़े थे.टिकेट की बढती मांग को देखते कई नए राजनीतिक दल मैदान में आ गए हैं. पिछले चुनाव की तुलना में इस साल एक दर्जन से ज्यादा नई  पार्टियां मैदान में होंगी. इनके जरिए पांच हजार लोगों को चुनाव का टिकेट मिल सकता है.

गौरतलब है कि  राज्य में चार स्तर की पार्टियां चुनाव लड़ती हैं- राष्ट्रीय दल (बीजेपी, कांग्रेस, बीएसपी, सीपीआइ, सपीएम, और राष्ट्रवादी कांग्रेस), राज्य स्तरीय दल (जेडीयू, आरजेडी, एलजेपी और आरएलएसी), ऐसी पार्टियां जो दूसरे राज्यों की हैं (इनकी संख्या नौ हैं) तथा पंजीकृत दल (2015 के विधानसभा चुनाव में इनकी संख्या 140 थीं).राज्य में विधानसभा की 243 सीटें हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा इन दिनों राज्य का दौरा कर रहे हैं.वो वैसे दलों और नेताओं को साथ लेकर  मोर्चा बनाने में जुटे हैं जो अकेले चुनाव नहीं लड़ सकते और जिन्हें महागठबंधन या फिर NDA में जगह नहीं मिल पायेगा. सिन्हा राज्य में वैकल्पिक सरकार का दावा कर रहे हैं. उनके साथ कई ऐसे प्रभावशाली चेहरे भी हैं जिनमे से कुछ राजनीतिक दल के संस्थापक तो कुछ ठीकठाक जनाधार वाले नेता हैं.

राज्य में राजनीतिक दल बनाने के लिए ज्यादा  तामझाम नहीं करना पड़ता है. कई नेता तो महज अपने चुनाव लड़ने के लिए नया दल बना लेते हैं.अनिल कुमार पेशे से बिल्डर हैं अपनी जनतांत्रिक पार्टी बना चुके हैं.वंचित समाज पार्टी  भी है जो सभी सीटों पर चुनाव लड़ाने का दावा कर रही है.पूर्व मंत्री पूर्णमासी राम ने एक अवकाश प्राप्त आइएएस अधिकारी के साथ मिलकर पिछले सप्ताह जनसंघर्ष दल बना लिया है.राम जनता दल, राजद, जदयू कांग्रेस आदि दलों के जरिए विधानसभा और लोकसभा की शोभा बढ़ाने के बाद पिछले लोकसभा चुनाव में किसी दल का टिकट नहीं हासिल कर पाए.इसबार  विधानसभा चुनाव के लिए अपना दल ही बना लिया है.

सांसद और विधायक रहे अनिरुद्ध प्रसाद ऊर्फ साधु यादव ने गरीब जनता दल बना लिया था. पिछले चुनाव में उस दल को किसी सीट पर कामयाबी नहीं मिली. उम्मीद है कि 2020 के चुनाव में उनकी पार्टी से भी कुछ लोग उम्मीदवार बनेंगे. हरियाणा विकास पार्टी की तर्ज पर बनी चंपारण विकास पार्टी के संस्थापक खुद भाजपा के टिकट पर उम्मीदवार बने और जीते थे. ऐसा ही कई पार्टियों के संस्थापकों के साथ हो चूका है.

2010 के विधानसभा चुनाव से तुलना करें तो 2015 में पंजीकृत मगर गैर-मान्यताप्राप्त राजनीतिक दलों की संख्या में सौ फीसदी का इजाफा हुआ. 2010 में इनकी संख्या 71 थी. 2015 में 140 हु और  2020 के चुनाव की घोषणा होने तक इनकी संख्या 170 से अधिक हो जायेगी.गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियों की अधिकता के बावजूद सभी उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिल पाता है. 2015 में इन 140 दलों के 1145 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे. उसके बाद भी 1150 लोग निर्दलीय चुनाव लड़े. चार निर्दलीय जीते. इनका वोट शेयर 9. 39 फीसदी रहा.

इस श्रेणी के दलों को भले ही किसी सीट पर कामयाबी नहीं मिलती हो, फिर भी वोटों में इनकी भागीदारी राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलों के बड़े उम्मीदवारों की संभावना जरूर कमजोर कर देती है. 2015 में इन दलों का वोट शेयर 7.82 फीसद रहा. यह कांग्रेस (6.66), बीएसपी (2.07), सीपीआइ (1.36), सीपीएम (0. 61) और राष्ट्रवादी कांग्रेस (0.49) जैसे राष्ट्रीय दलों से अधिक है. राज्य स्तरीय दलों से तुलना करें तो ये इन पर भी भारी पड़ते हैं. 2015 के विधानसभा चुनाव में आरण्एलण्एसपी को 2.56 और एलजेपी को 4.83 फीसद वोट मिले थे. 2010 के चुनाव में इन पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त दलों का वोट शेयर महज 3. 87 फीसद था.

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