चुनाव-चर्चा -नानी की कहानी
आम चुनाव की चर्चा जोरों पर है। राजनीति के बाजार में भी। बाजार की राजनीति में भी। सब कुछ खुला, सब के लिए खुला – वह भी इतना कि ‘नग्नता’ और ‘नंगई’ का फर्क मिट जाए! जो राजनीति के बाजार में हैं वे वही ‘बोल’ रहे हैं जो बाजार की राजनीति में बतौर ‘बोली’ गूँज रही है। इस बोल-बोली की चर्चा के अलग-अलग नज़ारे पूरे देश में परवान चढ़ रहे हैं। बिहार में एक रूप, तो झारखंड में दूसरा चेहरा। उन पांच राज्यों में भी, जहां विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, अलग-अलग शक्लें उभर रही हैं। उन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को तो आगामी लोकसभा चुनाव के ‘सेमी फाइनल’ के रूप में पहचानने की कोशिश की जा रही है। चर्चा के अलग-अलग चेहरों, रूपों, शक्लों की पहचान उभारने की कोशिश करते हुए मीडिया यह अटकल लगाने में भिड़ गया है कि देश में बहुमत को पसंद आने वाला ‘फाइनल चेहरा’ कैसा होगा? फाइनल चेहरा प्रदेशों में उभरते किन-किन चेहरों का मिला-जुला रूप होगा?
आप क्या, जो पाठक अभी तक ‘वोटर’ नहीं बने हैं वे भी पूछ सकते हैं – ‘’चर्चा के चेहरे! ये क्या है? चुनाव के मामले में ये ‘प्रतीकात्मक’ शैली? ऐसा क्यों? सो ‘सिटी पोस्ट लाइव’ अपने एक सहयोगी पत्रकार-लेखक की एक पुरानी लोककथा का नया पाठ प्रस्तुत कर रहा है – “नानी की कहानी।”
“चुनाव की चर्चा शुरू होते ही मुझे नानी याद आ गयी। मुहावरे वाली नानी नहीं। सचमुच की नानी, जो बचपन में हमें कहानियां सुनाया करती थी। 60-65 साल पहले वह हमें रोज एक कहानी सुनाया करती थी। हर दिन एक नयी कहानी। लेकिन एक बार वह हमें ‘लम्बी’ कहानी सुनाने लगी। इतनी लम्बी कि सुनते-सुनते हम और हमारे जैसे कई बच्चे किशोर हो गये और कई जवानी की दहलीज पर पहुंच गये। हम कुछ मित्र-पड़ोसी पढ़ने के लिए गांव से बाहर चले गये और कुछ पढ़ाई के अभाव में रोजी-रोटी की तलाश में भटकने निकल पड़े। ऐसे लोगों के लिए वह कहानी अधूरी नहीं, बल्कि अंतहीन भी बनकर रह गयी। वह कहानी जब-तब यादों के फ्रेम से बड़ा दृश्य बनकर बाहर निकल आती है तो हम जैसे 70 की सीमा या पार पहुंचे बूढ़ों को भी बच्चा बना जाती है। तब अक्सर हम पाते हैं कि यादों की नानी कल्पना की नानी बनकर सामने आयी है और उसी पुरानी कहानी का नया पाठ सुना रही है। पुरानी कहानी के सर्वथा नये प्लॉट जैसा।
बरसों पहले और बरसों चली नानी की वह अंतहीन कहानी एक ‘बागीचे’ के बारे में थी। नानी उस बागीचे के पेड़ों की हर खासियत की इतनी कहानियां सुनाती थी कि हर कहानी से हममें एक नया सवाल जनमता था और हर सवाल के जवाब में नानी एक नयी कहानी सुना जाती थी। बागीचे में कभी कोई लालची गरीब पहुंचता तो कभी ईमानदार चोर, कभी बुद्धिमान किसान तो कभी मूर्ख पहलवान, कभी कोई दंभी संन्यासी, तो कभी उदार राक्षस, कभी तानाशाह, तो कभी नौकरशाह। तरह-तरह के लोग और तरह-तरह की रोमांचक घटनाएं।
बहरहाल, आजकल की भाषा-शैली में ही कहूं, तो नानी की आश्चर्यचकित करने वाली वह लंबी कहानी यूं थी : उस बागीचे में कई तरह के फलों के पेड़ थे। आम, अमरूद, जामुन, अनार, सीताफल, रामफल, सेब और न जाने क्या-क्या। तिस पर हर फल की कई किस्में। विभिन्न किस्म के फलों के तरह-तरह के पेड़ सदा फलों से लदे रहते। जिसको जो पसंद आए, तोड़कर खाए। कोई पाबंदी नहीं। भूखे के लिए सब तरह के फल फ्री। भूख मिटाने के लिए जो फल खाए, जितना खाए और जितने लोग खाएं कोई पेड़ कभी फलविहीन नहीं होता। शाम ढले जो पेड़ फलों से खाली हो जाता, वह दूसरे दिन उजाला फूटते ही फलों से लद जाता।
कुछ दिन के बाद, आज के हिसाब से बरसों बाद, लोगों को उस बागीचे के पेड़ों की एक और खासियत समझ में आयी कि आप भूखे हैं तो किसी पेड़ के जितने फल खाएं, सब मीठे और स्वादिष्ट लगेंगे लेकिन पेट भरने के बाद स्वाद लेने के लोभ में एक भी अतिरिक्त फल चखेंगे तो वह तीता लगेगा। वैसे,पेट भरने के बाद भी आपके पास कुछ फल रह गये हों और उसे आपने किसी भूखे को दिया तो उसे भी पेट भरने तक मीठे लगेंगे और अगर आपने किसी भरे पेटवाले को दिया तो वही फल कसैले लगेंगे। इतने कसैले कि हो सकता है कि वह आदमी आपके मुंह पर थू-थू कर दे। फिर कुछ दिन बीते यानी बरसों बीते तो समझ में आया कि उस बागीचे के पेड़ों के फल उसी व्यक्ति को स्वादिष्ट लगते थे जो श्रम करते थे। आलसी या कामचोर भूखे उनके फल न अपनी भूख मिटाने के लिए खा पाते थे और न महज स्वाद लेने के लिए।
एक रात उस बागीचे में एक चोर घुसा। बुद्धिमान और वेल एक्सपीरियंस्ड चोर था वह। उसने उस बागीचे के बारे में पहले से काफी कुछ सुन रखा था। देखा, बागीचे में पेड़ फलों से लदे थे। अंधेरे में जलते-बुझते जुगनुओं की तरह झिलमिल। वह भूखा था। फलों को देख उसकी भूख बढ़ गयी। सो उसने पहले एक पेड़ का एक फल तोड़कर खाया। फल मीठा था। लगा पेट भर गया लेकिन भूख मिटी नहीं। तो दूसरा फल तोड़ा दूसरे पेड़ का। उसे खाया। वह भी उतना ही मीठा और स्वादिष्ट लगा। भूख मिट गयी। उसने तीसरे पेड़ का एक फल तोड़ा। चखा तो बिल्कुल बेस्वाद लगा। तब उसने फिर पहले पेड़ का फल तोड़ा और चखा। वह फल भी कसैला लगा – कच्चा केला जैसा नहीं, नीम के रस में पगे करेला जैसा। उसने उसे थूक दिया।
इसका मतलब यह कि उसने जो सुना था वह सच साबित हुआ! लेकिन भूखे पेट खाये फलों के मीठे स्वाद में उसका दिल-दिमाग ऐसा पगा कि उसके चोर-चिंतन को लोभ के पंख लग गये। वह मन-ही-मन विचार नभ में विचरण करने लगा। पहले यह विचार आया कि वह ढेर सारे फल तोड़कर बाहर के भूखों को बेचेगा। तोड़कर सीधे बाजार में बेचने का धंधा नहीं करेगा – यह तो बेवकूफ चोरों का काम है। उसे डाकू मंगल सिंह, जिसे गरीब लोग अपना मसीहा कहते थे, जैसा बनना है लेकिन सिर्फ उस जैसा नहीं। वह ऐसा डाकू बनेगा जिसे देस के गरीब-अमीर नहीं, बल्कि विदेस के आम और खास लोग भी कहें – ये हमारे ही जैसा ग्रेट है, बट समथिंग डिफरेंट! वह फलों पर बड़ा हाथ फेरेगा और पूरा माल कोल्ड स्टोरेज में जमाकर ठीक क्राइसिस के टाइम में बाजार में उतारेगा। दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से मालामाल होने का यही तरीका है। उसे अपने इस चोर-चिंतन पर नाज हुआ कि उसके पहले किसी चोर को इतनी बड़ी बात नहीं सूझी। वह भी ऐसे टाइम में।
फिर वह सोचने लगा कि अभी इस एक रात में वह कितने फल समेटकर फरार हो सकता है? सिर्फ पैंट-शर्ट की जेबें और एक हैट में कितने फल अटेंगे?रोज कोई झोला-बोरा ले आये और उसे भरकर ले जाए, तो कुछ फायदा होगा। लेकिन इसमें झंझट ज्यादा है, लाभ कम। हां, वह अपने साथ कुछ लोगों को मजदूरी पर ले आए, तो एक बार में कुछ ज्यादा फल बटोर सकता है। लेकिन तब उसे दोबारा इस तरफ आने के लिए काफी इंतजार करना पड़ेगा। क्योंकि तब पहरा कड़ा हो जाएगा और उसे या तो पहरा ढीला होने का इंतजार करना पडे़गा या फिर पहरेदारी के तंत्र को चकमा देकर सेंध लगाने जैसी स्ट्रैटजी पर सोचना होगा। या फिर एक बारगी तमाम फलों को हड़पने के लिए अपने जैसे एक्सपर्ट अन्य चोरों को लेकर आना पड़ेगा, लेकिन तब फलों के साथ आगे की हर प्लानिंग में हिस्सेदारी और परसेंटेज का चक्कर चलेगा। यह और रिस्की है। ये फल तो ऐसे हैं जो किसी भी चोर में अकेले भोग लेने का यानी लूट के भाग लेने का लोभ बढ़ा देंगे।
तब फिर अचानक दिमाग में क्लिक हुआ कि ऐसा कोई उपाय करो कि बागीचे पर सदा के लिए सिर्फ तुम्हारा कब्जा हो जाए। लेकिन इसके लिए कुछ ज्यादा सोच-विचार करना होगा। यह पता करना होगा कि बागीचे का असली मालिक कौन है, कैसा है, कितना सीधा है, कितना बेवकूफ है या कितना बेवकूफ बनाना होगा आदि-आदि। इसके लिए टाइम चाहिए। सो अभी जितना संभव है, उतने फल तोड़कर कम से कम यह अनुमान कर लेना चाहिए कि काम कितना रिस्की है और टाइमबांड ईमानदारी से तोड़ा जाए तो प्रति फल तोड़ने का टाइम-रेट क्या होगा ताकि टोटल टाइम के जरिये टोटल रिस्क का आकलन संभव हो और सीधे-सादे इन्सान की तरह बाजार में जाकर खुद बिना लुटे ग्राहकों को लूट सकने का सही रेट व डेट-फेट तय किया जा सके। इससे मार्केटिंग की राजनीति के साथ राजनीति की मार्केटिंग के शास्त्रीय ज्ञान और आपरेशनल हुनर, दोनों को एक साथ सीखने का रास्ता साफ होगा। वह चोर से कुशल सौदागर और फिर शासक बन सकेगा। शासक बनकर लूट के माल के कुछ हिस्से का नियमित दान कर किंग और फिर अनुदान देकर किंग मेकर तक बन सकता है!
यह सब सोचते-सोचते वह फल तोड़ने लगा और तोड़ते-तोड़ते सोचने लगा। परिणाम यह हुआ कि जितनी तेजी से हाथ चले उससे ज्यादा तेजी से दिमाग दौड़ने लगा। इसीमें बैलेंस गड़बड़ा गया। वह एक पेड़ से खुद पके फल की तरह धब्ब से टपक गया!
अंधेरे में अचानक हिलने-गिरने-पड़ने की आवाज उठी, तो बागीचे के कोने में अलसाये-उनींदे पड़े पहरेदारों के कान खड़े हो गए। वे डिबरी-लुक्का आदि की रोशनी तेज कर बागीचे में घुसे। लाठी लेकर चारों ओर फैल गये। चोर क्या करता? भागता तो पकड़ाना तय था। सो उसने झट अपने शरीर-चेहरे को मिट्टी से पोत लिया और एक पेड़ के नीचे हाथ जोड़कर बैठ गया – समाधिस्थ साधु जैसा। पहरेदार ढूंढ़ते-ढांढ़ते वहां पहुंचे। उन्होंने पेड़ के नीचे धूनी रमाये व्यक्ति को देखा। उन्हें अपनी मूर्खता पर हंसी आयी – ‘ओह, हमने साधु को शैतान समझ लिया! साधु महाराज ने समाधि के लिए अंधेरे में पेड़ के नीचे झाड़-झूड़ किया होगा। इसे ही हमने चोरी की आहट मान ली। लगता है ये कोई महान आत्मा हैं। बैठते ही समाधि में लीन हो गए। इसीलिए तो, देखो,हमारे आने की आहट पर भी ध्यान नहीं टूटा!’
निश्चिंत होकर कुछ पहरेदार वहीं जम गये। एक पहरेदार खुद कुछ फल तोड़ लाया कि महाराज को भूख लगेगी तो समाधि टूटेगी और वह प्रसाद ग्रहण करेंगे। बाकी पहरेदार अपनी-अपनी पुरानी जगह लौट गये। सुबह का उजाला फूटा भी नहीं कि बागीचे में महान साधु के प्रकट होने की खबर पूरे इलाके में फैल गयी। गरीब-गुरबा फूल और खीर-मेवा के साथ पहुंचने लगे। आसपास के गांव के कुछ लोग तो दंडवत कर उसके पैरों के पास सोना-चांदी और रुपया-पैसा छोड़ गये। चोर फंस गया। कई-कई सवालों में उलझ गया। वह ठहरा बुद्धिमान चोर। उसने चोरी से मालामाल होकर महान राजा बनने की क्लीयर कट स्ट्रैटजी सोच रखी थी। लेकिन पकड़ाने के डर से साधु भेष धरा तो उसे चोरी-चपाटी के बगैर बागीचे को हड़पने का लाइसेंस मिल गया! और ऊपर से जनता को मुफ्त लूटने की छूट भी। वह क्या करे? किसे नकारे और किसे स्वीकारे?
इतने में कई मित्र आ धमके और शोर मचाने – “अबे पत्तरकार, तुम्हारा अखबार चुनाव-चर्चा कब शुरू करेगा? कुछ अपना कर्र्गा कि paid news चलाता रहेगा?” मेरा ध्यान उचटा और कल्पना की नानी गायब हो गयी! मैंने नानी को लाख पुकारा, वह नहीं आयी। कहानी अधूरी रह गयी। वह बागीचा कहां था? उसका मालिक कौन था? वह चोर कौन था? वह अंततः क्या बना? चोरी-डकैती के आकर्षक व रोमांचक रास्ते चलकर वह शासक बना कि सन्यासी बनने की नीरस व कठोर सजा काटते हुए शैतान लुटेरा बना? ये सारे सवाल अनुत्तरित रह गये।
वैसे, नानी की कहानी सुनकर कुछ मित्रों ने कहा – “तुम्हारी कहानी तो बिल्कुल आजकल के प्री पोल सर्वे जैसा ही लग रही है!”
लेकिन मैंने दो टूक लहजे में कहा – “नहीं, नहीं, बन्धुवर। मेरी कहानी तो परम्परा से जुड़ी है। इसे आप प्री पोल सर्वे जैसा प्रयोग मानें, ये आपकी मर्जी, लेकिन प्री पोल सर्वे के अनुमान तो ठोस ‘साइंटिफिक पैमानों’ पर आधारित होते हैं, इसलिए उन्हें नानी की कहानी मानना उचित नहीं। टीवी पर अपने-अपने प्री पोल सर्वे का अनुमान पेश करते पत्रकार यह बताने में ही तो पसीना-पसीना होते दिखते हैं कि यह न काल्पनिक नानी की वास्तविक कहानी है और न किसी वास्तविक नानी की काल्पनिक कहानी है। यह तो दो जोड़ दो बराबर चार के गणित पर आधारित दमदार साइंटिफिक अनुमान है! लेकिन मेरी ‘नानी की कहानी’ का आधार तो हमारे देश के मशहूर शायर (दिवंगत) निदा फाजली का यह शेर है – दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहां होता है,सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला!”
इस पर एक अन्य पत्रकार मित्र ने टोका – ‘वाह-वाह, आजकल बाजार में जो सबसे ज्यादा बिक रहा है वो प्री पोल सर्वे यही तो बोल रहा है जो तुम बोल रहे हो कि दो और दो जुड़ कर बाईस हो सकता है।”
– ‘प्रभुवर, साढ़े बाईस भी हो सकता है, मेरी नानी की अधूरी कहानी का यह इशारा है! और, इस तरह की नादानी खतरनाक भी साबित हो सकती है। अक्सर होती रही है – हमारे देश-समाज का शुरू से आज तक का चुनावी इतिहास इसका प्रमाण है।’
पाठको, अब आप ही बताएं – क्या ‘नानी की कहानी’ को चुनाव का प्री पोल सर्वे कहना उचित होगा? या टीवी पर आ रहे प्री पोल सर्वेक्षणों को ‘नानी की कहानी’ मानना सर्वथा अनुचित होगा? वैसे, आप में से कई युवा लोगों ने पहले भी एक न एक बार चुनावी गहमागहमी और विभिन्न पार्टियों के वादों-दावों के विभिन्न प्रचार-स्वरों का भरपूर मजा लिया होगा। वोट देते समय आपमें से कई लोग इस सवाल में उलझे होंगे कि कल के सहयोगियों और आज के प्रतिद्वंद्वियों के बीच जारी चुनावी घमासान में असली और नकली को कैसे पहचानें? या फिर इस सवाल से परेशान हुए होंगे कि ऐसे किस प्रत्याशी को वोट दिया जाए जो ‘विकास’ और आपकी ‘आस’ के बीच को फासलों को पाट सके? इस तरह की उलझनों या परेशानियों के बीच झूलते हुए आपने जात के नाम पर या धर्म के नाम पर या कि इन सबकी संवृद्धि के साथ आर्थिक विकास के नाम पर वोट दिया होगा। है न? तो आपके सिवा इन सवालों का सही उत्तर कौन दे सकता है कि प्री पोल सर्वे साइंस की नादानी है या नादानी का साइंस? नानी की कहानी पढ़कर क्या आपको लगता है कि साइंस के इस जेट युग में नादानी की कामना करना उचित है? अगर उचित लगे भी तो क्या उसे पाना संभव है?