आज से शुरू हो रहा है 10वां पटना फिल्म फेस्टिवल, हाशिये पर खड़े लोगों को है समर्पित
सिटी पोस्ट लाइव: आज से पटना में दसवें पटना फिल्म फेस्टिवल का आगाज हो चूका है.सबसे बड़ी बात ये है कि बिना किसी बड़ी पूंजी, कारपोरेट या सरकार की मदद के नियमित रूप से पटना फिल्म फेस्टिवल सिनेमा का आयोजन सफलतापूर्वक हो रहा है. सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक बदलाव के लिए बेचैन लोगों को इस फिल्मोत्सव के जरिए अपनी पंसद का सिनेमा तो देखने को मिलेगा. इस आयोजन ने पटना में एक गंभीर और विचारवान दर्शक वर्ग को भी निर्मित किया है, यह इसकी बड़ी उपलब्धि है.
फिल्मोत्सव स्वागत समिति के अध्यक्ष प्रो. संतोष कुमार का कहना है कि पटना में जनता के सहयोग से होने वाले इस आयोजन का दस साल पूरा हो गया है. लगातार बिना किसी धनपशु के सहयोग के लगातार सफलतापूर्वक इसका होनेवाला आयोजन ये साबित करता है कि फिल्मों का उपयोग बेहतर समाज के निर्माण के लिए हो सकता है. वे मनुष्यता के पक्ष में प्रतिरोध और परिवर्तन का वाहक बन सकती हैं.
हर बार की तरह इस बार भी यह आयोजन निःशुल्क होगा. यह आयोजन विभिन्न कलाओं और विधाओं को भी मंच प्रदान करता रहा है.दसवें साल के इस आयोजन में हिरावल महान लेखक लूशुन की कहानी ‘एक पागल की डायरी’ की नाट्य प्रस्तुति करेगी. प्रतिरोध का सिनेमा अभियान ने जनसहयोग से फिल्मों के प्रदर्शन से आगे बढ़ते हुए अब जनसहयोग के जरिए एक लोकगायिका के जीवनानुभवों पर केंद्रित फिल्म ‘अपनी धुन में कबूतरी’ का निर्माण किया है. इसी फिल्म से दसवें पटना फिल्म फेस्टिवल का पर्दा उठेगा.
फिल्मोत्सव का उद्घाटन फिल्मकार पवन श्रीवास्तव करेंगे. उनकी फिल्म ‘लाइफ आॅफ एन आउटकास्ट’ भी जनसहयोग से बनी फिल्म है. इस फिल्म का प्रदर्शन भी पहले ही दिन होगा. फिल्मोत्सव 9 से 11 दिसंबर तक चलेगा, जिसमें विप्लवी कवि सरोज दत्त और जनकवि रमाशंकर विद्रोही के जीवन, विचार और काव्य पर केंद्रित फिल्में भी आकर्षण होंगी. फिल्म विधा के छात्रों और युवा फिल्मकारों की फिल्मों को दिखाने का जो सिलसिला पटना फिल्मोत्सव ने शुरू किया था, इस बार उसकी बानगी के तौर पर पांच लघु फिल्में दर्शक देख पाएंगे. सत्ता संरक्षित उन्माद और हत्याओं के इस दौर में फिल्म ‘लिंच नेशन’ एक विचारोत्तेजक हस्तेक्षप होगी, ऐसी उम्मीद है.
डाॅक्युमेंटरी फिल्म ‘अगर वो देश बनाती’ और ‘नाच, भिखारी नाच’ के साथ-साथ एक प्यारी फिल्म ‘फर्दिनांद’ भी फिल्मोत्सव का आकर्षण होगी, जो बच्चों को तो पसंद आएगी ही, बड़ों को भी अपने समय, समाज और देश के बारे में सोचने को विवश करेगी, कि यह कैसा समाज, देश और दुनिया है, जहां नफरत, तिकड़म और हिंसक प्रतिस्पर्धा है? इसे बदलने का ख्वाब अंगड़ाई ले, तो यह फिल्मोत्सव की उपलब्धि होगी. इस मौके पर उपस्थित फिल्मकारों और फिल्म निर्देशकों से दर्शक हमेशा की तरह बेबाक संवाद कर पाएंगे. हमेशा की तरह फिल्मों के सीडी और पुस्तकों का स्टाॅल आयोजन स्थल पर रहेगा.
प्रो. संतोष कुमार ने कहा कि हिरावल-जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित इस फिल्मोत्सव कई महत्वपूर्ण और ज्वलंत सामयिक सवालों पर केंद्रित रहा है. यह कोरे मनोरंजन के लिए आयोजित होने वाला आयोजन नहीं है. बल्कि इसने फिल्मों के प्रदर्शन के जरिए विस्थापन, युद्धोन्माद, स्त्री-दलित मुक्ति, सांप्रदायिक सौहार्द सरीखे हमारे समय के जरूरों विमर्शों में हस्तक्षेप का काम किया है..
दसवां फिल्मोत्सव भी हाशिये के लोगों के नाम समर्पित है. जो प्रतिक्रियावादी-अंधधार्मिक-फासीवादी शासकवर्ग है और उसका जो तंत्र है, वह किस तरह हाशिये के लोगों की बदहाली के लिए जिम्मेवार है, इसे इस बार की फिल्मों में देखा जा सकता है. लेकिन दमनकारी ताकतों के लाख प्रयासों के बावजूद हाशिया, जो भूगोल और परिमाण के लिहाज से बहुत ही विशाल है, वह अपनी वास्तविक जगह लेता है. जीवन की गति नहीं रुकती, नफरत से मुहब्बत की जंग जारी रहती है. यह सबकुछ इस बार की फिल्मों में देखा जा सकता है. इस तरह के आयोजनों की आज बेहद जरूरत है.