सवर्ण आरक्षण देनेवाले कर्पूरी ठाकुर आज चुनाव में हो गए हैं सबसे प्रासंगिक
सिटी पोस्ट लाइव : लोकसभा चुनाव से पहले पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर एकबार फिर सबसे ज्यादा चर्चा में हैं.उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में सबसे ज्यादा सक्रीय हो गए हैं. सबसे बड़ा अति पिछड़ा वर्ग से होने की वजह से उनकी याद सभी राजनीतिक दलों को याद आ रही है.कर्पूरी ठाकुर सामाजिक न्याय का मसीहा तो माने ही जाते ही है साथ ही देश में सर्वप्रथम आर्थिक आधार पर सवर्णों को तीन फीसद आरक्षण देने का काम उन्होंने ही किया था जिसे बाद में कोर्ट ने खत्म कर दिया था.
चुनावी साल है. इसलिए कर्पूरी जयंती के मौके पर सभी दलों को उनकी याद आ रही है. बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भी उनके नाम की खूब राजनीति हुई थी.पहले तो कर्पूरी ठाकुर की याद बिहारी नेताओं को ही ज्यादा आती थी लेकिन अब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने यूपी के सभी जिले में कम से कम एक सड़क को कर्पूरी के नाम पर रखने का ऐलान कर ये साबित कर दिया है कि कर्पूरी ठाकुर अब उत्तर प्रदेश में भी वोट बेहद प्रासंगिक हो गए हैं.
बिहार में भी सामाजिक न्याय की सियासत करने वाले दल सोशल इंजीनियरिंग में जुट गए हैं.कर्पूरी ठाकुर के नाम पर वोट तो चाहिए लेकिन किसी को न तो कर्पूरी की ईमानदारी से मतलब है और न ही उनके आदर्शों से कुछ लेनादेना है. उन्हें इससे भी नहीं मतलब कि कर्पूरी परिवारवाद के प्रबल विरोधी थे. जीते जी अपने दोनों पुत्रों को राजनीति से दूर रखा. निधन के बाद ही राजनीतिक दलों ने वोट बैंक साधने के मकसद से सप्रयास रामनाथ ठाकुर को राजनीति में प्रवेश कराया.
आज के नेताओं से अलग कर्पूरी ठाकुर ने सियासत भी जनसेवा की तरह की. सरल, सहज, सरस और सादगी के कारण वह चहेतों के लिए जननायक हो गए. सरकार में रहते उन्होंने आम आदमी के लिए कई फैसले लिए और व्यक्तिगत जीवन में ईमानदारी बरती.कर्पूरी ठाकुर राजनीति में आने से पहले शिक्षक थे. उन्होंने आजादी की लड़ाई में 26 महीने जेल में बिताए थे.
दो-दो बार मुख्यमंत्री एवं एक बार उपमुख्यमंत्री भी रहने के बावजूद जब 1988 में उनका निधन हुआ तो अपने आश्रितों को देने के लिए उनके पास एक मकान तक नहीं था. पैतृक गांव में भी एक इंच जमीन नहीं जोड़ पाए. उनका जन्म समस्तीपुर जिले के पितौंझिया गांव में हुआ था. अब इसे कर्पूरीग्राम के नाम से जाना जाता है.कर्पूरी का नारा था -हक चाहो तो लडऩा सीखो. जीना है तो मरना सीखो. ताउम्र आम लोगों के लिए सड़क से सदन तक संघर्ष किया. जातियों में अंतर किए बिना समाजवादी नेता की तरह सबके लिए लड़ते-भिड़ते रहे, किंतु बाद के मतलबी नेताओं ने उन्हें जाति की सीमा में कैद कर दिया.
कर्पूरी का समाजवाद आज के जातिवाद की तरह नहीं था, बल्कि सबके लिए था. मैट्रिक परीक्षा में अंग्रेजी की बंदिश खत्म कर कमजोर वर्गों के लिए शिक्षा का दरवाजा खोल दिया था. उन्होंने 1978 में बिहार में सबसे पहले सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू किया था. इसमें 12 फीसद अति पिछड़ों एवं आठ फीसद पिछड़ों के लिए सुरक्षित था. तीन फीसद गरीब सवर्णों को भी दिया गया था. शायद यही कारण है कि 1952 में विधायक बनने के बाद वे कभी विधानसभा चुनाव में पराजित नहीं हुए. दशकों तक विरोधी दल के नेता रहे.