सिटी पोस्ट लाइव : शुक्रवार को बिहार विधानसभा में, पूर्व सांसद आनंद मोहन की रिहाई को लेकर जोरदार बहस और हंगामा हुआ। गौरतलब है कि पूर्व सांसद आनंद मोहन की सजा के ना केवल 14 वर्ष पूरे हो गए हैं बल्कि सजा अवधि से करीब 6 महीने अधिक हो गयी है। इस मामले में, विधानसभा में सरकार की तरफ से प्रभारी गृह मंत्री बिजेंद्र यादव ने कहा कि आनंद मोहन को एक लोकसेवक की कार्य के दौरान हुई हत्या मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई है, इसलिए उन्हें, आम बंदियों की तरह से परिहार नहीं दिए जा सकते हैं। कानून के जानकार अब इस मामले में मुखर हो गए है। कानून के जानकारों का कहना है कि 3 फरवरी 2021 को, सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस कोल और जस्टिस रॉय के बेंच के द्वारा यह आदेश दिया गया था कि आजीवन कारावास की सजा पाए गए कैदियों को परिहार का अधिकार है।
यह आदेश सभी राज्य सरकारों को भेजा गया था कि टाईम लाईन तय कर के कैदियों को छोड़ा जाए। लगातार कोरोना से पूर्व और कोरोना के बाद, ऐसे अनेको आदेश सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भेजे गए उदहारण के तौर पर, 7 जुलाई 2021 को सुप्रीमकोर्ट ने बिहार, यूपी और छत्तीसगढ़ को उम्र कैद वाले कैदियों की रिहाई का निर्देश दिया था। परन्तु, बिहार में आज भी अनेको ऐसे कैदी हैं, जिनकी 14 साल की अवधि पूरी हो जाने के बावजूद, बिहार सरकार द्वारा परिहार बोर्ड के गठन नही करने की वजह से वे सभी बन्दी, इस अधिकार से वंचित है। यहाँ बात सिर्फ सुप्रीम कोर्ट की ही नही है, 7 मार्च 2017 को बिहार राज्य के ही पटनाहाई कोर्ट के जस्टिस नवनीति प्रसाद सिंह एवं जस्टिस विकाश जैन के बेंच ने रवि प्रताप मिश्रा बनाम स्टेट ऑफ बिहार के केस में, सरकार को यह आदेश दिया कि “चाहे जुर्म कितना भी जघन्य क्यों ना हो, कैदी को परिहार के अधिकार से वंचित नही रखा जा सकता है।”
इस विषय पर लगातार पिछले कुछ सालों में अनेको हाईकोर्ट ने विभिन्न राज्यों में फैसला सुनाया और सैंकड़ों की संख्या में विभिन्न राज्य सरकारों ने कैदियों को परिहार दे का लाभ देकर, मुक्त भी किया। बिहार में सबसे बड़ी कमी इस बात की है कि “दिल्ली मॉडल” के हिसाब से यहाँ पारदर्शिता नहीं है। ना वेबसाईट से और ना ही किसी अन्य तरीके से परिहार पाने वाले या परिहार से वंचित लोगो की सूची, चाहे आम आदमी हो या फिर खास आदमी हो, किसी को भी उपलब्ध नही हो पाती है। यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि ये सुप्रीमकोर्ट का निर्देश है, जिसका बिहार में उल्लंघन हो रहा है। भारत के संविधान के आर्टिकल 21 “राईट टू लाइफ” की बात करता है। ह्यूमैन राईट कमीशन, कैदियों को भी उतना ही अधिकार देने की बात करता है जितना किसी आम व्यक्ति को होता है।
कैदियों को, जिन्हें उम्र कैद की सजा मिली हो, उन्हें परिहार नही मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है और सुप्रीमकोर्ट ने भी माना है परिहार नहीं मिलना एक ह्यूमेन राईट्स इशू है। यह बात जस्टिस इस.के. कॉल की बेंच ने फरवरी 2021 को सरोधर बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ में कही थी। आज बिहार के अधिकतर जिलों में क्षमता से अधिक कैदी मौजूद हैं। यहाँ के सभी 60 जेलों में कुल मिला कर कर के करीब 47 हजार कैदियों को रखने की क्षमता है लेकिन यहाँ क्षमता से 20 प्रतिशत अधिक यानि 56,000 कैदियों को रखा जा रहा है। इसे देखते हुए सुप्रीमकोर्ट ने इस बात पर भी कैदियों को रिहा करने का आदेश दिया था। सुप्रीमकोर्ट ने, जिनकी सजा लगभग पूरी हो चुकी है, ऐसे सभी कैदियों को समय से पूर्व निकालने का भी सलाह दिया था।
जेलों में ज्यादा संख्या में कैदी को रखना भी, ह्यूमेन राईट्स का उल्लंघन है। इस कारण जेल व्यवस्था में भी काफी कमी बिहार के सभी जेलों को महसूस होती है। ये भी संविधान के आर्टिकल 21 के खिलाफ जाता है क्योंकि आर्टिकल 21, राईट टू लाईफ विथ डिजिनिटी की बात करता है। लेकिन क्षमता से ज्यादा कैदियों के हो जाने की वजह से ऐसा हो नही पाता है। हाल ही में, दिल्ली के मशहूर जेसिका लाल केस के मुख्य अभियुक्त को समय से पहले रिहा कर दिया गया और साढ़े 13 साल होने के बाद ही परिहार देने की सारी प्रक्रिया दिल्ली सरकार ने पूरी करा ली। चूंकि, कानून भी यही कहता है। 14 वर्ष पूरे हो जाने से पहले किसी भी कैदी को परिहार देने की सारी प्रक्रिया पूरी करा ली जानी चाहिए। परन्तु, बिहार सरकार की लापरवाही की वजह से अनेकों ऐसे कैदी हैं, जिनका 14 साल से अधिक हो जाने के बावजूद, परिहार के प्रक्रिया में अड़ंगा लगा हुआ है।
इसका सीधा और जीवंत उदाहरण पूर्व सांसद, साहित्यकार और कथाकार आनंद मोहन की विलंबित रिहाई है। पूर्व सांसद आनंद मिहन एक बड़ी बानगी हैं, जबकि ऐसे अनेकों बन्दी हैं, जो अपने अधिकारों को नही जानते की वजह से आज भी जेल में सजा पूरी करने के बाद भी, बन्द हैं। बिहार सरकार से ऐसे सभी बंदियों को जल्द से जल्द परिहार दे कर रिहा करना चाहिए, जिनका जेल में आचरण बेहद अच्छा रहा हो। पूरे भारत मे ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं, जिसमे सुप्रीमकोर्ट, हाईकोर्ट और विभिन्न राज्य सरकार ने खुद अनेको लोगों को 14 साल की अवधि पूरी हो जाने पर, जेल से बाहर निकाला है। खास तौर पर, कोरोना को ध्यान में रखते हुए, अधिकांश ऐसे कैदियों को विभिन्न राज्यों से रिहा किया गया है।
बिहार सरकार भी ऐसे तमाम कैदियों और उनके परिजनों के बारे में सोचे और जल्द से जल्द उनकी रिहाई को तय करे। भारत का संविधान और न्यायिक प्रणाली, इस नींव पर आधारित है कि हमारा ज्यूडिशियल सिस्टम यह मानता है कि न्याय सुधारात्मक हो दंडात्मक नहीं। मोटे तौर पर, पूर्व सांसद आनंद मोहन की रिहाई को लेकर देश के बड़े कानूनविद्द, गहन मंथन और चिंतन में जुटे हुए हैं। संविधान प्रदत्त आम लोगों के अधिकार और सीआरपीसी और आईपीसी की धाराओं की सर्जरी की जा रही है। आखिर में हम, आनंद मोहन की रिहाई के मसले पर यह जरूर कहेंगे कि बिहार के सीएम नीतीश कुमार संविधान, लोकतंत्र और कानूनतंत्र की जगह नीतीशतंत्र वाला राज चला रहे हैं।
पीटीएन मीडिया ग्रुप के मैनेजिंग एडिटर मुकेश कुमार सिंह