राम मंदिर की राजनीति का अब हो जाएगा खात्मा, जबाब जानने के लिए पढ़िए

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राम मंदिर की राजनीति का अब हो जाएगा खात्मा, जबब जानने के लिए पढ़िए

सिटी पोस्ट लाइव : राम मंदिर –बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर 134 वर्षों से चल रहे क़ानूनी विवाद का निबटारा तो सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले से हो गया है.लेकिन सबके जेहन सबसे बड़ा सवाल ये है -क्या इसके साथ-साथ अयोध्या मंदिर के नाम पर हो रही वोट की राजनीति भी समाप्त हो जाएगी? ये सवाल ज्यादा अहम् इसलिए भी है क्योंकि पिछले कई दशकों से भारत की राजनीति को ही नहीं बल्कि साम्प्रदायिक सद्भाव को भी बहुत प्रभावित करता रहा है. बीजेपी के नेता इस जीत का जश्न नहीं मना कर ये संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि वो मुस्लिम समाज को चिढाना नहीं चाहते. वहीँ दूसरी तरफ़ असदुद्दीन ओवैसी जैसे विपक्ष के नेता सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठा रहे हैं. मुसलमानों से मस्जिद निर्माण के लिए पांच एकड़ ज़मीन देने के कोर्ट के फ़ैसले को अपने समाज और मजहब का अपमान कर्र दे रहे हैं.

ओवैसी वहीं कर रहे हैं जो बीजेपी चाहती है. दरअसल, ओवैशी जैसे कट्टरपंथी नेताओं के विरोध से ही बीजेपी का हित सधनेवाला है. जितना ओवैशी इस फैसले का विरोध करेगें उतना ही ज्यादा हिन्दुओं की गोलबंदी बीजेपी के पक्ष में होगी.दोनों का काम हो जाएगा. ओवैशी के पक्ष में मुस्लिम और बीजेपी के पक्ष में हिन्दू गोलबंद हो जायेगें.बीजेपी और उनके सहयोगी हिन्दुत्ववादी संगठन तो ऐसे ही भड़काऊ बयान का इंतज़ार कर रहे हैं ताकि ईंट का जवाब पत्थर से देने का मौका मिल सके.

अयोध्या मसला अब बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में जगह नहीं आने वाले कुछ सालों तक यानी मंदिर निर्माण तक बीजेपी को चुनाव में इसका फायदा मिलता ही रहेगा.बीजेपी चुनाव में ये तो जरुर कहेगी कि उसने मंदिर निर्माण करवाकर अपना वादा पूरा कर दिया. हाल में होने वाले कुछ प्रदेशों के चुनावों में तो ये सबसे बड़ा मुद्दा बन सकता है.उत्तर प्रदेश में होने वाले 2022 के चुनाव में  योगी आदित्यनाथ इस मुद्दे का भरपूर फायदा उठाने की कोशिश करेगें.

मोदी तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उपयोग कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक अलग पहचान बनाने की कोशिश भी कर सकते हैं.मंदिर के साथ-साथ मस्जिद का निर्माण करवाकर वो नोबेल पीस प्राइज़ के भी दावेदार बन सकते हैं.जब पुरे विश्व में उन्हें एक समय 2022 के गुजरात दंगों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है तो फिर मंदिर-मस्जिद का निर्माण करवाने के कारण देश दुनिया में क्यों नहीं छा सकते हैं.

राम मंदिर का राजनीतिकरण पहली बार 1986 में हुआ जब फ़ैज़ाबाद के ज़िला जज ने विवादित रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद में कोर्ट द्वारा लगाया गया ताले को खोल देने का फ़ैसला किया. बीजेपी और विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) जो कि उसके कुछ साल पहले से ताला खोलने की बात उठा रहे थे, तत्काल इस बात का श्रेय लेने लगे कि ये उनकी जीत है.इस रेस में बीजेपी को अपने से आगे जाते हुए देखकर कांग्रेस लीडरशिप फ़ौरन मैदान में कूद पड़ी और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या में राम मंदिर का ‘शिलान्यास’ करवा डाला.उन्हें उम्मीद थी कि मंदिर राजनीति की रेस में इसके ज़रिए उनकी पार्टी बीजेपी को पछाड़ देगी. लेकिन जिसे महारत हासिल हो इस खेल में उसके साथ उसी के मैदान में आकर अपनी चाल चलने को समझदारी नहीं कहा जाता है. और वही हुआ, क्योंकि उन्हीं के खेल में बीजेपी को हरवाना मुमकिन नहीं था.

इस बीच राजीव गांधी के ख़िलाफ़ विश्वनाथ प्रताप सिंह का बिगुल क्या बजा, कांग्रेस को कुर्सी छोड़नी पड़ी. वी.पी. सिंह ने प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही मंदिर कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू करके राजनीति को एक नया मोड़ तो दे दिया लेकिन मंडल भी बीजेपी के कमंडल की राजनीति के सामने बहुत दिन तक नहीं टिक सकी.हालांकि, इसी मंडल की राजनीति के सहारे मुलायम सिंह यादव को सत्ता पाने का मौक़ा मिला. परंतु उन्हें भी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उन्हें बीजेपी समर्थित हिन्दू कारसेवकों पर गोली चलवाने के आदेश उस समय देने पड़े जब कारसेवकों ने 1990 में बाबरी मस्जिद पर धावा बोला.

मुलायम को ‘मौलाना मुलायम’ का ख़िताब तो ज़रूर मिल गया और साथ ही एक वोट बैंक का समर्थन (जो कि कांग्रेस से उनकी तरफ शिफ़्ट हुआ). लेकिन साल भर ही के अंदर बीजेपी लखनऊ में सत्ता पर काबिज़ हो गई और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बन गए.

इस बार फिर से अयोध्या मुद्दे ने एक नया तूल पकड़ा और छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद कारसेवा के नाम पर ध्वस्त कर दी गई. बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, इत्यादि, इत्यादि सभी की मौजूदगी में इमारत ध्वस्त हुई और सारी ज़िम्मेदारी मुख्यमंत्री होने के नाते कल्याण सिंह पर आई क्योंकि उसी से कुछ समय पहले वो सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष हलफ़नामा पेश कर चुके थे कि वो मस्जिद के स्टेटस को मेंटेन करवाएंगे और उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं होने देंगे. इस बार राम मंदिर के नाम पर कल्याण सिंह की बारी थी कुर्सी से हाथ धोने की.

वाजपेयी, सिंघल और मुरली मनोहर जोशी राम मंदिर निर्माण आंदोलन में आगे थे.बीजेपी ने यदि कुर्सी गवाईं तो राम मंदिर के ही नाम पर कुर्सी वापस भी पाई. और समय के साथ बीजेपी की शक्ति बढ़ी. हालांकि​, बीच में मंदिर मुद्दे को मुलायम की मंडल राजनीति और मायावती की दलित राजनीति ने एक बार फिर पीछे छोड़ दिया, बीजेपी की एक ठोस तरीक़े से वापसी नरेन्द्र मोदी के मैदान में आने से हुई.उन्होंने मंदिर मुद्दे के राजनीतिक इस्तेमाल को एक नया आयाम दिया. स्वयं मंदिर की बात डायरेक्टली ना करके उसे दूसरे नेताओं और वीएचपी, आरएसएस द्वारा उठवाकर ख़ुद देश के विकास और राजनीति में ईमानदारी को मुद्दा बनाकर अपना सिक्का जमाते गए.बड़ी सफ़ाई से मंदिर की राजनीति को खेला और उसका भरपूर फ़ायदा भी उन्हें मिला लेकिन मंदिर राजनीति का इल्ज़ाम कभी नहीं लगने दिया.

जबकि विपक्ष के बारे में नेताओं ने भी मंदिर मुद्दे की किसी प्रकार की आलोचना से कतराना शुरू कर दिया है. देखना ये है कि बीजेपी कब तक इसका उपयोग करती रहेगी.वैसे बीजेपी से जुड़े संगठन तो लगातार कहते रहे हैं कि अयोध्या तो बस झांकी है, मथुरा काशी बाकी है.जब अयोध्या में बीजेपी राम मंदिर के निर्माण में कामयाब हो गई तो फिर मथुरा काशी में भला उसे कौन रोक पायेगा, जहाँ कानूनिरूप से भी उसके पक्ष में ज्यादा मजबूत साक्ष्य हैं.

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