CONG की मुश्किल, छोटी पार्टियों से मिल रहा साथ लेकिन सीटों को लेकर रार
सिटी पोस्ट लाइव : 2019 के लोक सभा चुनाव की तारीखों का एलान किसी भी वक्त हो सकता है. चुनाव आयोग मार्च के पहले सप्ताह में चुनाव की तारीखों का ऐलान कर देगा. गठबंधन, चुनावी समझौते और टिकट वितरण का काम भी अंतिम दौर में है. भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए ने अपने साथियों के साथ तालमेल पूरा कर लिया है. शिवसेना, जेडीयू और एआईएडीएमके जैसे बड़े सहयोगियों से पार्टी ने सीटों पर तालमेल कर औपचारिक ऐलान भी कर दिया है. लेकिन बीजेपी के बाद सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस जो क्षेत्रीय दलों के सहयोग से मुकाबले की तैयारी में है अभी तक अपने गठबंधन का स्वरूप ही तय नहीं कर पाई है.
वर्तमान में यूपीए में करीब 24 राजनीतिक दल हैं. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बसपा और सपा अंगूठा दिखा चुकी है. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में समर्थन देने का ढोंग कर रही है, जहाँ उसका कोई जनाधार नहीं. यूपीए में भले ही दलों की संख्या 22 हो, लेकिन महाराष्ट्र में एनसीपी, स्वाभिमान पक्ष, बिहार में आरजेडी, उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी, जीतन राम मांझी की हम, तमिलनाडु में डीएमके, झारखंड में जेएमएम, केरल में मुस्लिम लीग और आरपीआई ही है, जिनके पास अपना वोट बैंक है और जिनके साथ वह लोकसभा सीटें शेयर करना चाहेगी.
उत्तर प्रदेश में जिस तरह सपा-बसपा ने कांग्रेस से बात किए बिना आपस में सीटों का बटवारा कर लिया उसके बाद वहां कांग्रेस की नज़र स्थानीय छोटे दलों पर है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी बीजेपी के खिलाफ मोर्चा तो खोले हुई हैं लेकिन कांग्रेस के साथ समझौता करने के मूड में नहीं हैं. पिछले लोकसभा चुनाव की तो यूपीए में कांग्रेस के साथ 12 और पार्टियां थी. केरल में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस, सोशलिस्ट जनता और आरएसपी यानी कुल 4 दलों के साथ गठबंधन किया था. एनसीपी के साथ कांग्रेस का गठबंधन महाराष्ट्र के अलावा गुजरात और गोवा में भी था. बिहार और झारखंड में कांग्रेस और आरजेडी साथ लड़े थे. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने अजीत सिंह वाले राष्ट्रीय लोकदल के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. लेकिन ये गठबंधन लोकसभा में 100 सीटों का आंकड़ा भी नहीं छू पाया.
2014 से 2019 आते-आते यूपीए में कांग्रेस के साथी भले ही बढ़े हो, लेकिन गठबंधन पर कांग्रेस का नियंत्रण कमजोर होता जा रहा है. दरअसल, कांग्रेस के 2014 के प्रदर्शन के बाद सहयोगी दल कई बार उसे आंख दिखाते नजर आ रहे हैं. प्रधानमंत्री मोदी को सत्ता से हटाने के लिए कांग्रेस को बड़ी कुर्बानी और बड़ा दिल रखने की सलाह देने के बहाने हर सहयोगी कांग्रेस को कम से कम सीटें देना चाहता है.बिहार में तो जीतन राम मांझी भी कांग्रेस से ज्यादा सीटों की मांग कर रहे हैं.
उत्तर प्रदेश में तो उसके सहयोगी कही जाने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस को सिर्फ दो सीटों के काबिल समझा. पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ रहे अजीत सिंह इस बार माया और अखिलेश के साथ खड़े दिख रहे हैं. हालांकि, कांग्रेस यूपी में इस फॉर्मूले को मानने को तैयार नहीं है. बिहार में राजद, झारखंड में झामुमो और महाराष्ट्र में एनसीपी कांग्रेस को कम से कम सीटें देना चाहते हैं.
प्रियंका गांधी वाड्रा के कांग्रेस महासचिव के रुप में आने के बाद सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बैकफुट से फ्रंटफुट पर आने का दावा कर रही है. लेकिन विपक्ष के साथ-साथ कांग्रेस के सहयोगी होने का दावा करने वाले दल भी इससे सहमत नहीं है. उत्तर प्रदेश के राजनीतिक गलियारे में यह चर्चा जोरों पर है कि सपा-बसपा गठबंधन कांग्रेस को कुछ ज्यादा सीटें दे सकता है.राजनीतिक जानकारों का मानना है कि प्रियंका के आने से कांग्रेस उत्तर प्रदेश और बिहार के यूपी से सटे इलाकों में वोट शेयर तो बढ़ेगा, लेकिन ये सीटों में कितना बदल पाएगा इसका अंदाजा लगाना अभी मुश्किल है.
एक बात तो तय है कि 2019 का आम चुनाव कांग्रेस के लिए करो या मरो वाला है. मोदी विरोध के नाम पर पूरा विपक्ष कांग्रेस के साथ खड़ा होना तो चाहता है. लेकिन जब बात सीटों की आती है, तो क्षेत्रीय दल कांग्रेस के लिए सीट छोड़ने को तैयार नहीं है. ऐसे कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती ये है कि वह किस तरह यूपीए का कुनबा बढ़ाने के साथ-साथ अपनी स्थिति सीटों के लिहाज से भी मजबूत करे.