आम बजट और सरकार की चुनौतियाँ, नहीं बढ़ेगी आयकर सीमा में छूट

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आम बजट और सरकार की चुनौतियाँ, नहीं बढ़ेगी आयकर सीमा में छूट

सिटी पोस्ट लाइव : अगले हफ़्ते बजट पेश होगा. फौरन ही उसके विश्लेषण भी होने लगेंगे, लेकिन देश की माली हालत के मद्देनज़र इस साल सरकार के सामने बड़ी-बड़ी चुनौतियां हैं, इसीलिए आसार हैं कि बजट जटिल होगा.5 जुलाई को बजट पेश किया जाएगा. फौरन ही उसके विश्लेषण भी होने लगेंगे. लेकिन देश की माली हालत के मद्देनज़र इस साल सरकार के सामने बड़ी-बड़ी चुनौतियां हैं, इसीलिए आसार हैं कि बजट जटिल होगा. विश्लेषकों को इसे समझने में बहुत माथापच्ची करनी पड़ सकती है. देश के मौजूदा सूरतेहाल में बजट में क्या करना ज़्यादा ज़रूरी था और सरकार ने किस काम को ज़रूरी माना.कोई सरकार कहती कुछ भी रहे, लेकिन वह करती क्या है, इसका पता बजट से ही चलता है. माली हालत का दबाव सबसे ज़्यादा है. इस समय अपनी माली हालत भारी चिंता में डाले है. आर्थिक वृद्धि दर के लक्ष्य हासिल करने में दिक्कत आई है. बैंक NPA की समस्या में फंसे हैं. सरकार पर कर्ज़ का बोझ बढ़ता जा रहा है. रोज़गार और काम-धंधे कम होते जा रहे हैं. किसान गरीब होते जा रहे हैं. ज़रूरी कामों पर खर्च के लिए सरकार को पर्याप्त मात्रा में राजस्व बढ़ाने में दिक्कत आ रही है.

दरअसल, टैक्स वसूलने से खाते-पीते तबके वाली व संपन्न जनता और उद्योग-व्यापार वाले तबके के नाराज़ होने का खुटका बना रहता है. हालांकि लोकतांत्रिक बजट का मकसद ही यही है कि सरकार सबको समान स्तर पर लाने की कोशिश करती रहे. अमीरों से पैसा लेती रहे और गरीबों को देती रहे.

दरअसल, लोकप्रियता बनाए रखने के लिए सरकारें खाते-पीते तबके से टैक्स वसूली कर राजस्व बढ़ाने से बचती हैं. हालांकि चार साल पहले एक झटके में तेल, यानी डीज़ल-पेट्रोल पर भारी टैक्स लगाकर सरकार ने अपना खज़ाना बढ़ाने का इंतज़ाम कर लिया था. वह इंतज़ाम भी इसलिए हो पाया था, क्योंकि इत्तफाक से विश्व बाज़ार में कच्चे तेल के दाम गिरकर एक चौथाई रह गए थे, सो, सरकार ने इसका फायदा उपभोक्ताओं को देने की बजाय तेल पर टैक्स बढ़ाकर अपना राजस्व बढ़ा लिया था. जनता को तेल की महंगाई से राहत नहीं दी थी. आज तक यह टैक्स इतना भारी-भरकम बना हुआ है, इसीलिए इस अप्रत्यक्ष कर से और ज़्यादा पैसा इकट्ठा करने की गुंजाइश भी नहीं है.

अभी कुछ महीने पहले ही, यानी आम चुनाव से पहले मध्यवर्ग को इनकम टैक्स में राहत के लिए कर सीमा ढाई लाख से बढ़ाकर पांच लाख कर दी गई थी. चुनाव जीतने के फौरन बाद अब सरकार के लिए इतनी जल्दी फिर से इनकम टैक्स बढ़ाना जोखिम का काम है. इसी तरह चुनावी दौर में कई चीज़ों पर GST घटाने के इरादे कई बार जताए जा चुके हैं, सो, GST से राजस्व बढ़ाने में दिक्कत है. इतना ही नहीं, पिछले साल GST से राजस्व का लक्ष्य हासिल होता नहीं दिखता. सो, नए बजट में GST से ज़्यादा राजस्व का बड़ा लक्ष्य भी नहीं बनाया जा सकता. फिर भी कहीं न कहीं से सरकारी खज़ाने में पैसा लाना ही पड़ेगा. सरकारी कारखानों और उद्यम परिसरों को बेचकर कुछ पैसा खज़ाने में लाया जा सकता है, लेकिन NDA-1 के दौरान ऐसी कोशिशें के नतीजे अच्छे नहीं आए थे, सरकार की बदनामी ही हुई थी.

सरकारी खर्च घटाने के चक्कर में पिछले साल शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कुछ ज़रूरी मदों की अनदेखी कर दी गई थी.मीडिया ने भी चुप्पी साध ली थी. लेकिन इस बार जब आम चुनाव ख़त्म हो चूका है देखना दिलचस्प होगा कि इस बार सरकार को लेकर मीडिया का क्या रुख रहता है.

सरकार के चुनावी वादों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, इसे गिनाना लंबा काम है, लेकिन मोटा अनुमान है कि अगले पांच साल में इन वादों को पूरा करने का न्यूनतम खर्च 80 लाख करोड़ रुपये बैठेगा. यानी सरकार को हर साल अलग से कम से कम 15 लाख करोड़ की ज़रूरत है. खज़ाने में पंद्रह लाख करोड़ बढ़ाने की कोई गुंजाइश नहीं दिखती. इस साल के बजट का आकार पांच लाख करोड़ से ज़्यादा बढ़ता नहीं दिखता. बजट का आकार अधिकतम तीस लाख करोड़ के लपेटे में रहने का अनुमान लगता है.  पिछले बजट का आकार 23 लाख 99 हज़ार करोड़, यानी 24 लाख करोड़ रुपये का ही बन पाया था. उससे पिछले साल बजट का आकार 21 लाख 46 हज़ार करोड़ था. बजट आकार ढाई लाख करोड़ ही बढ़ पाया था. बहरहाल, इस बार बढ़ने वाले अनुमानित पांच लाख करोड़ के राजस्व से ही सारे काम निपटाते हुए दिखाना है. इसी थोड़ी सी रकम में से फौज के लिए विदेशी लड़ाकू विमानों की खरीद और फौज के दूसरे साजोसामान खरीदना है, इसी में से शिक्षा और स्वास्थ्य को ज़्यादा धन देना है. इसी में नए किसानों के लिए हर साल पांच लाख करोड़ खर्च करने का नया वादा पूरा करना है, देश में 50 करोड़ लोगों को हर साल पांच लाख रुपये तक का इलाज खर्च करना है. देश भर में कृषि उपज गोदाम और किसान मंडियां बनानी हैं, देश के हर घर में नल लगवाना है. इनके अलावा, ऐसी बड़ी योजनाएं चलवानी हैं, जिनसे रोज़गार पैदा हों. सरकार ने जनता से बीसियों फुटकर वादे कर रखे है, वे अलग हैं. ये सारे वादे ऐसे हैं, जिन्हें जनता की याददाश्त से मिटाना भी आसान नहीं.

सबसे बड़ी चुनौती सरकार के लिए अपने पहले के कार्यक्रमों को पूरा करना भी है.NDA-1 का कार्यकाल भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन उस दौर के बहुत-से काम होने बाकी हैं. वर्ष 2022 तक सबको पक्के मकान, किसानों की आय दोगुनी करने के लिए उन्हें नई सहूलियतें, मुफ्त में गैस सिलेंडर और शौचालय का काम अभी पूरा नहीं हुआ है. 100 स्मार्ट सिटी, हर खेत तक पानी की परियोजनाएं, हर साल दो करोड़ रोज़गार, देश में भव्य हाईवे, तेज़ रफ्तार वाली दसियों रेल परियोजनाएं, नदी में जल परिवहन का काम, नदियों को जोड़ने वाला भारी-भरकम खर्च वाला काम, विश्वस्तर के विश्वविद्यालयों का काम पैसों के कारण ही सुस्ती में है. एम्स जैसे कई चिकित्सा संस्थानों का काम पैसों की कमी से सुस्त पड़ा है. ये सब वे काम हैं, जिन्हें किसी भी सूरत में रोका या छोड़ा नहीं जा सकता. चुनाव के ऐन पहले किसान परिवार को पांच सौ रुपये देने की योजना के लिए हर साल 90,000 करोड़ का इंतज़ाम करना है. कुल मिलाकर इस बार बजट में हिसाब बिठाने के लिए सरकार को ज़्यादा ही हुनर दिखाना पड़ेगा.

सरकार घाटे का बजट भी पेश नहीं कर सकती क्योंकि बीजेपी जब विपक्ष में हुआ करती थी, तो पिछली सरकारों को घाटे के बजट के मुद्दे पर घेरती थी. बहरहाल, मौजूदा सरकार अपने पुराने तर्कों को मेटकर घाटे के बजट के फायदे कतई नहीं गिना सकती.

 देश की हर व्यवस्था न्यूनतम खर्चे से काम चला रही है. पिछले बजटों में जो मद थे, और उनमें जितना खर्च किया गया था, उसे कम करना लगभग असंभव  है. अब सरकार चतुराई से एक मद का पैसा घटाकर दूसरे में बढ़ा दिखा सकती है लेकिन इसके लिए भी बजट दस्तावेज़ में भाषा की चतुराई की ज़रूरत पड़ेगी.

आखिर अपना देश कोई दो सौ लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का देश है, सो, दिखाने के लिए एक-दो नए कामों का ऐलान हो सकता है. खेती-किसानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, कानून एवं व्यवस्था और और सीमा पर सुरक्षा हर देश के लिए हमेशा अहम होते ही हैं,लेकिन मौजूदा रुझान पर गौर करें, तो इस समय सरकार की प्राथमिकता में राष्ट्र सुरक्षा सबसे उपर दिखती है. इसीलिए राष्ट्रहित में रक्षा खर्च जहां का तहां बनाए रखने,और अगर गुंजाइश निकल आए, तो उसे बढ़ाने के आसार ज़्यादा हैं. पिछले दो-तीन साल में फौज के लिए साजो-सामान खरीदने की ज़रूरत सफलतापूर्वक साबित की जा चुकी है. जनता के दिलो-दिमाग में राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय गर्व, राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय हित जैसे नारे इस समय भी गूंज रहे हैं, सो, एक अटकल लगाई जा सकती है. सरकार तर्क दे सकती है कि राष्ट्रहित में जनता को दूसरी ज़रूरतों को भूलना पड़ेगा.

इस समय राष्ट्र पर जल प्रबंधन संकट, भयावह बेरोज़गारी और किसानों की बदहाली जैसी राष्ट्रीय विपदायें हैं. ये तीनों मुद्दे राष्ट्र की आपात मांग हैं. इनसे निबटने के लिए बहुत धन चाहिए.

तीन साल पहले तक रेल बजट अलग से पेश हुआ करता था. नई सरकार आई और उसने सन 2016 में यह चलन बंद कर दिया था. रेल बजट को आम बजट में ही मिला दिया गया था. नतीजा यह हुआ कि रेल बजट पर ज़्यादा चर्चा की गुंजाइश कम हो गई, जबकि यह आज भी सबसे बड़ा सरकारी उद्यम है. रेलवे से देश की 136 करोड़ की आबादी की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से जुड़ी है. आज भी वह विश्व की सबसे बड़ी सरकारी यातायात प्रणाली मानी जाती है. कल्याणकारी राज्य की संकल्पना में भारतीय रेल प्रणाली जनकल्याणकारी तो है ही, सरकार को उससे अच्छी-खासी आमदनी भी होती है. रेलवे के पास खूब ज़मीन है और अकूत संसाधन भी, और रोज़गार पैदा करने की भारी क्षमता भी. हो सकता है, देश के मौजूदा माली हालत में रेलवे के बारे में कुछ नया सुनने को मिले. फिलहाल हकीकत का तो पता नहीं, लेकिन रेलवे के मामले में बीच-बीच में यह सुगबुगाहट सुनने को ज़रूर मिलती है कि इस सरकारी उद्यम में निजी भागीदारी बढ़ाने का इरादा बन सकता है. बहरहाल, इस बजट में यह देखा जाएगा कि ट्रेनों की सुरक्षा, ट्रेनों की लेटलतीफी और खान-पान व्यवस्था सुधारने के लिए क्या नए ऐलान होते हैं, और इन कामों पर कितना खर्च बढ़ता है.

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