‘भाग्यशाली हैं हम , कुंवर सिंह की उम्र 40 से कम नहीं’-एक अंग्रेज

City Post Live - Desk

“कुंवर सिंह एक ऐसा व्यक्ति हैं, जिसने हमें 80 साल की अवस्था में एक पूर्ण पराजय का त्रासद घाव दिया. जिसने बेलगाम विद्रोहियों से ऐसी ऐसी हुक्म बरदार हासिल की, जिसे उन्होंने किसी अन्य को नहीं दी. जिसने अपनी सेना का लखनऊ तक नेतृत्व किया और ऐसी लड़ाई लड़ी, जिसने अंत में भारत  के भाग्य का फैसला किया. हम अंग्रेज काफी भाग्यशाली हैं कि कुंवर सिंह की उम्र 40 साल से कम नहीं है”

सिटी पोस्ट लाइव : ऊपर लिखा हुआ कथन, उस अंग्रेज इतिहासकार का है, जिसकी कलम में विद्रोहियों के प्रति सिर्फ नफरत ही भरी हुई थी। जॉर्ज ओण ट्रिविलियन का यह उक्त कथन कुंवर सिंह की क्षमता औऱ काबिलियत का सबसे बड़ा प्रमाण है। दुनिया के इतिहास में कुंवर सिंह के अलावा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि किसी ने 80 साल की अवस्था में इतनी जबर्दस्त लड़ाई लड़ी हो और अपनी औकात तथा सरजाम से कई गुना ज्यादा विजय पताका फहराई हो। बिहार में गदर के सरताज कुंअर सिंह शाहाबाद जिले (भोजपुर) की एक रियासत जगदीशपुर के जमींदार थे।

बचपन से ही फक्कड़ औऱ मनमौजी स्वभाव के कुंवर सिंह का ज्यादा समय शिकार खेलने औऱ रासरंग में व्ययतीत होता था। राजकाज से बेपरवाह औऱ मनशोख होने के चलते भाइयों और पिता समेत पत्नी से भी ठनी ही रही। घुड़सवारी, तीर अंदाजी औऱ पहलवानी उनका प्रिय शगल था। शरीर भी तो स्वभाव के अनुकूल ही मिला था। एक ब्रिटिश न्यायिक अफसर के अनुसार कुंवर सिंह दुबले-पतले और काले रंग के थे और उनका कद सात फिट लंबा था। उनके हाथ बबून (बंदर की एक प्रजाति) की तरह घुटने तक आते थे। उनका चेहरा और जबड़े चौड़े थे, जबकि उनकी गाल की हड्डियां उभरी हुई थीं। उनकी नाक गरुड़ जैसी थी और ललाट ऊंचा था। वे एक अव्वल दर्जे के घुड़सवार थे और तलवार चलाने में माहिर थे। जहां तक बंदूक की बात है तो बंदूक चलाने में भी उनका कोई सानी नहीं था। सबसे बड़ी बात तो यह कि इन हथियारों को वे अपनी देखरेख में बनवाया करते थे।

बिहार में गदर का नेतृत्व कुंवर सिंह ने ही किया था। वैसे सच बात तो यह है कि बिहार में सिपाहियों की बगावत में उनकी अच्छी-खासी भूमिका रही थी। अगर कहा जाए तो एक तरह से कुंवर सिंह की प्रेरणा से ही दानापुर के सिपाहियों ने विद्रोह किया था तो शायद गलत नहीं होगा। अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में उतरने से पहले कुंवर सिंह ने लड़ाई की पूरी योजना बनाई थी औऱ देश भर के जमींदारों, राजाओं, रजवाड़ों को पत्रि भेजकर युद्ध में शामिल होने का न्योता भी दिया था। इतना ही नहीं वे गुप्त रूप से हिंदुस्तान भर के विद्रोहियों के संपर्क में भी थे। तत्कालीन अंग्रेजी सरकार के गुप्तचरों की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है। दानापुर में विद्रोह के दिन ही देवघर के रोहिणी में विद्रोह हुआ था और वहां के विद्रोही कुंवर सिंह की अगुआई में लड़ने के लिए आरा की तरफ कूच कर चुके थे।

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