‘सफलता मिलने से मैं अहंकारी हो गया था, मुझे अपने पार्टी के नेताओं का ख्याल रखना चाहिए था’
सिटी पोस्ट लाइवः राजद सुप्रीमो लालू प्रसार यादव आज चारा घोटाला मामले में सजायाफ्ता हैं और रांची के रिम्स में उनका इलाज चल रहा है। बीमारी और सजा लालू की दोहरी मुश्किल है दरअसल लालू तिहरे मुश्किलों में घिरे नजर आते हैं क्योंकि सिर्फ लालू नहीं उनकी पार्टी और उनका परिवार भी आज कई मुश्किलों से जूझता हुआ नजर आता है। परिवार और पार्टी के अंदर से कई बार कलह की खबरें उठती है। जाहिर है इससे नुकसान हीं होता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में राजद को एक भी सीट नहीं मिली। एक सीट के लिए तरस रही लालू की पार्टी आरजेडी कभी बिहार में अपराजेय हुआ करती थी। फ्लैशबैक में जाएं तो पता चलता है कि लालू कैसे डेढ़ दशक तक न सिर्फ बिहार के किंग रहे हैं बल्कि किंगमेकर भी रहे हैं। सत्ता और सियासत का शीर्ष लालू की तकदीर थी, राजनीति में सफलता का हर पायदान लालू चढ़ते गये और सियासत के अर्श पर छा गये। राजनीति में इस बेशुमार सफलता ने क्या लालू को घमंडी भी बनाया था और इस अहंकार में लालू ने बहुत कुछ खोया? लालू की किताब गोपालगंज टू रायसीना मेरी राजनीतिक यात्रा में इस सवाल का जवाब मिलता है।
यह किताब जितना लालू को जानने और समझने का मौका देती है उतना हीं उनकी साफगोई से भी परिचय कराती है। लालू ने अपने राजनीतिक जीवन में की गयी गलतियों को स्वीकार किया है उन्हें बिना लाग-लपेट के यह माना हैं कि बिना अतिरिक्त प्रयास के कामयाबा होते चले गये और इस कामयाबी ने उनको अहंकार से भर दिया। लालू ने अपनी किताब में लिखा है कि-‘अगर मैं अपनी तरफ से की गयी गलतियों को न मानूं तो यहबेईमानी होगी। दरअसल मैं बेपरवाह हो गया था और अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की सलाहों की अनदेखी करने लगा था। चूंकि मेरा कद बड़ा था, इसलिए सलाह न मानने के बावजूद पार्टी के नेता मेरे मुंह पर मुझे कुछ नहीं कहते थे। दरअसल राजनीति में लगातार सफलता मिलने के कारण मैं अहंकारी हो गया था। अपने राजनीतिक जीवन के शुरू से हीं अतिरिक्त प्रयास किये बिना मैं सफल होता जा रहा था।
मैं उस पटना यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन (पीयूसीयू) का महासचिव, फिर अध्यक्ष हो गया था।, जिस पर उच्च मध्यवर्ग का कब्जा था। मैं लगातार लोकसभा और विधानसभा चुनाव जीत रहा थाा। मैं जेपी आंदोलन का हीरो था। कई पुराने समाजवादियों को पछाड़कर मैं नेता विपक्ष बन गया था। अब मैं आजादी के बाद बिहार का सबसे ताकतवार मुख्यमंत्री था। जब कोई मेरे पास अपनी तकलीफ लेकर आता और मुझसे कार्रवाई करने को कहता तो मैं जवाब देता अच्छा जाईए मैं देख लूंगा…बाद में मैं भूल जाता। पाटी के अनेक लोगों को मेरे व्यवहार से तकलीफ हुई थी और उनका गुस्सा जायज था। ये असंतुष्ट तत्व आखिरकार आरएसएस-भाजपा में शामिल हो गये। आज पीछे मुड़कर देखने पर अहसास होता है कि मुझे अपने उन पार्टी के नेताओं का ख्याल रखना चाहिए था जो मेरे पास मदद पाने की उम्मीद में आये थे।’
लालू की किताब गोपालगंज टू रायसीना इसलिए भी पन्ने दर पन्ने दिलचस्प होते चली जाती है क्योंकि यहां लालू की सिर्फ सुनी अनसुनी कहानियां नहीं है बल्कि इसके जरिए उस लालू से मिलने का भी मौका मिलते जिससे शायद बहुत लोग नहीं मिल पाये हों। सवालों पर झिड़क देने वाले लालू अपनी गलतियों को इतनी साफगोई से स्वीकार करते हैं, अपनी गलतियों पर सफाई भी देते हैं जाहिर इस लालू से यह किताब हीं मिलाता है। लालू की किताब से निकालकर अनकही-अनसुनी कहानियोें को इसी तरह हम परोसते रहेंगे।