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बिहार को विशेष राज्य का दर्जा :  न साध्य और न साधन!

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बिहार को विशेष राज्य का दर्जा :  न साध्य और न साधन!    

सिटी पोस्ट  लाइव : लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ चुनाव लड़नेवाले नीतीश कुमार की पार्टी को मोदी कैबिनेट में अभीतक कोई जगह नहीं मिली है. चर्चा है कि अभी भी बीजेपी के साथ उनकी बातचीत चल रही है. केंद्र में एकबार फिर से प्रचंड बहुमत के साथ बीजेपी की सरकार बन चुकी है . ऐसे में एनडीए में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना बहुत आसान नहीं है. नीतीश कुमार इसे बखूबी समझते हैं और इसीलिए उन्होंने ‘बिहार को विशेष दर्जा’ देने की मांग को एकबार फिर से एक पॉपुलर पॉलिटिकल डिमांड बनाने की कोशिश में जुट गए हैं.

लेकिन सच्चाई ये है कि पिछले 12-13 सालों में गंगा का बहुत पानी सागर में समा चुका है. इन बरसों में आमो-ख़ास की यह समझ बनी है कि विशेष दर्जा का मुद्दा नीतीश की सत्ता-राजनीति के प्रथम चरण का ‘साध्य’ नहीं था. उनकी दूसरे चरण की सत्ता-राजनीति से भी ये  मैसेज मिला कि विशेष दर्जा का मुद्दा उनके लिए ‘साधन’ भी नहीं था. और उसके बाद से घड़ी की गोल घूमती सुइयों की बजाय घड़ी के पेंडुलम की तरह डोलती उनकी ‘गठबंधनीय सत्ता-राजनीति’ ने यह स्पष्ट कर दिया कि विशेष दर्जा का मुद्दा बिहार के विकास की उनकी कथित गतिशील ‘स्ट्रैटजी’ (रणनीति) का अंग भी नहीं रहा.

एनडीए गठबंधन की चुनावी राजनीति के तहत नीतीश कुमार जब पहली बार बिहार की सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हुए थे तब उन्होंने ‘बिहार को विशेष दर्जा’ देने की मांग को एक पॉपुलर पॉलिटिकल डिमांड बनाने की मुहिम शुरू की थी. उस वक्त केंद्र की सत्ता पर यूपीए गठबंधन का कब्जा था. सो उस वक्त नीतीश की राजनीतिक कोशिश का यह आशय झलकता था कि ‘बिहार प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग’ को वह अपनी सत्ता-राजनीति के लिए ‘साध्य’ बनाना चाहते हैं और ‘साधन’ भी.

करीब 14 साल गुजर गए, अब केंद्र में एनडीए गठबंधन के नाम पर पूर्ण बहुमत वाली बीजेपी  की दुसरी बार सरकार बन चुकी है.करीब तीन साल की विरह-पीड़ा के बाद  खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू भी पुनः एनडीए गठबंधन की घटक बन चुकी है. साथ साथ चुनाव लादे और रिजल्ट भी अप्रत्याशित आया. लेकिन अब यहीं रिजल्ट नीतीश कुमार के लिए चुनौती भी बन गया है. इसलिए उनकी फिर से शुरू राजनीतिक कोशिश से किसी की भी समझ में इतनी-सी बात आ सकती है कि ‘बिहार को विशेष दर्जा’ देने की उनकी मांग अब उनके लिए न ‘साध्य’ रही और न ‘साधन’!

हालांकि इस मुद्दे पर पिछले तेरह-चौदह सालों में, कम से कम बिहार में, सार्वजनिक विमर्श कितना हुआ, और इसमें बिहार के राजनीतिक प्रभु वर्ग एवं बौद्धिक जमातें कितना इन्वाल्व हुईं और वे मुद्दे के प्रति कितना गंभीर थीं – ये सवाल आज भी संदेह के घेरे में हैं.

कल पढ़िए -स्ट्रैटजी : दानी प्रभु और याचक प्रजा.

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