‘फ्रंट फुट’ से ‘बैक फुट’ पर बिहार में कांग्रेस के जाने की कहानी
सिटी पोस्ट लाइव : करीब 28 साल बाद कांग्रेस पार्टी पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में रैली करने जा रही है.इस रैली को ऐतिहासिक बनाने के लिए कांग्रेस ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है.इस रैली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के सीएम भी शामिल होंगे. नेताओं-कार्यकर्ताओं को अधिक से अधिक भीड़ जुटाने की जिम्मेदारी दी गई है. कांग्रेस के कई नेता अपने सुनहरे अतीत को याद करते हुए एक बार फिर से ‘फ्रंट फुट’ पर खेलने की बात कर रहे हैं.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये कि बिहार की राजनीति में कांग्रेस ‘बैक फुट’ पर कैसे चली गई? बिहार में 1990 का दशक पिछड़ा उभार का माना जाता है. इसी दौरान लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे नेताओं को एक राजनीतिक मुकाम मिला. इस बदलाव के दौर से पहले तक बिहार की सत्ता में कांग्रेस का ही वर्चस्व था. लेकिन बदलते वक्त को शायद पहचानने में कांग्रेस चूक गई. एक तरफ समाजवादी पृष्ठभूमि वाले नेता मजबूत होते चले गए. कांग्रेस उस चुनौती से सामना नहीं कर पाई. इसी का नतीजा रहा कि कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिरता रहा.
स्वतंत्रता के पश्चात पहले विधानसभा चुनाव में संयुक्त बिहार में यानी जब बिहार-झारखंड तब एक था कांग्रेस ने 324 विधानसभा सीटों में से 239 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी.इसके बाद 2010 में बिहार विभाजन के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा.243 विधानसभा सीटों में से मात्र 4 सीटें हासिल कर पाई . साल 2014 के उपचुनावों में कांग्रेस ने एक और सीट जीती.
अविभाजित बिहार में कांग्रेस का प्रदर्शन
1951: 239
1957: 250
1962: 185
1967: 128
1969: 118
1972: 167
1977: 57
1980: 169
1985: 196
1990: 71
1995: 29
2000: 23
विभाजन के बाद बिहार में कांग्रेस का प्रदर्शन.
2005: 09
2010: 5 (4+1 सीट उपचुनाव में जीती)
2015: 27
दरअसल 1989 में भागलपुर दंगे के बाद बिहार में कांग्रेस से मुस्लिम समुदाय छिटक गया. वहीं हिंदुओं में भी कांग्रेस की नीतियों को लेकर नाराजगी रही.ऐसे में दोतरफा घिरी कांग्रेस की पैठ बिहारी राजनीति में कम होती चली गई. 1990 के दशक में जब मंडल राजनीति ने जोर पकड़ा तो कांग्रेस ऊहापोह में रही.न तो वह सवर्णों का खुलकर साथ दे पाई और न ही पिछड़े और दलित समुदाय को साध पाई. जाहिर तौर पर कांग्रेस का वोट बैंक छिटका तो आरजेडी को इसका सीधा फायदा हुआ.
यहीं से लालू यादव के ‘MY’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण ने जन्म लिया और बिहार की राजनीति में आरजेडी ने अपना खूंटा गाड़ दिया. यह खूंटा ऐसा गड़ा कि 2005 तक कोई उसे हिला तक नहीं पाया.इस बीच 1995 के चुनावों में कांग्रेस मात्र 29 सीटों पर सिमट गई. बीजेपी इन चुनावों में 41 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में सफल हुई.इसके बाद साल 2000 में लालू यादव ने कांग्रेस के 23 विधायकों को राबड़ी देवी कैबिनेट में शामिल किया. वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सदानंद सिंह को असेंबली स्पीकर भी बनाया गया.लेकिन आरजेडी से नजदीकियों ने कांग्रेस का इतना बड़ा नुकसान कर दिया जिसका अनुमान शायद कांग्रेस नेताओं को भी नहीं था.
कांग्रेस को बिहार की राजनीति में की हुईं गलतियों से सबक नहीं लेने का परिणाम 2005 के चुनावों में मिल गया. इन चुनावों में कांग्रेस के हाथ मात्र 5 सीटें आईं. अगले चुनावों (2010) में कांग्रेस सिर्फ चार सीटें हासिल कर सकी.इसके पांच साल बाद 2015 में कांग्रेस ने एक बार फिर विधानसभा चुनावों की नैया पार करने के लिए लालू प्रसाद का हाथ थामा. कहा जाता है कि इन चुनावों में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने कांग्रेस के उम्मीदवारों को चुना.यही नहीं चुनाव के दौरान सोनिया गांधी ने 6 और राहुल गांधी ने 10 रैलियां कीं. इस चुनाव की पूरी जिम्मेदारी लालू और नीतीश ने अपने कंधों पर संभाली और कांग्रेस को 41 में से 27 सीटों पर जीत दिलाई.
जाहिर तौर पर बिहार में कांग्रेस के ‘बैक फुट’ पर जाने का सबसे बड़ा जिम्मेदार कोई है तो वह कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के साथ बिहार के नेता भी रहे. जो अल्पकालीन हित साधने के चक्कर में लालू यादव के करीब होते चले गए.इससे जनमानस में छवि बनी कि आरजेडी और कांग्रेस एक ही हैं. इतना ही नहीं कांग्रेस के पास लालू यादव जैसा कोई कद्दावर नेता भी नहीं था जो बिहारी राजनीति की जटिलताओं को समझ पाए. ऐसे में कांग्रेस बिहारी राजनीति में लगातार ‘बैक फुट’ पर जाती चली गई.अब एकबार फिर से देश के तीन राज्यों में सरकार बनने के बाद कांग्रेस का हौसला बुलंद है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश और मायावती ने जब कोई भाव नहीं दिया तो वहां प्रियंका को मैदान में उतार दिया और अब बिहार में जब RJD उसे 7 से ज्यादा सीट देने को तैयार नहीं है, कांग्रेस 28 साल बाद गाँधी मैदान में बड़ी रैली कर अपना दमखम दिखाने की कोशिश कर रही है.अब देखना ये है कि कांग्रेस की यह रैली कितनी कामयाब हो पाती है और इसका असर उसके सहयोगी दलों के ऊपर क्या पड़ता है.