आर्यभट – 5
भारत में वैज्ञानिक चिंतन के नये युग की शुरुआत
आर्यभट (499 ई.) से भारत में गणित और ज्योतिष के अध्ययन का एक नया युग शुरू हुआ। वैज्ञानिक चिंतन की एक नयी स्वस्थ परंपरा स्थापित हुई। आर्यभट प्राचीन भारत के पहले वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने अपने समय (जन्म: 476 ई.) के बारे में स्पष्ट जानकारी दी।
आर्यभट हमारे देश के पहले ज्योतिषी थे, जिन्होंने कहा था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। हालांकि, यह स्मरण रहे कि आर्यभट ने यह नहीं कहा था कि पृथ्वी सूर्य का भी चक्कर लगाती है। कोपर्निकस वह पहले ज्योतिषी थे, जिन्होंने कहा था कि पृथ्वी एक साल में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। वैसे, प्रचीन ग्रंथों के अनुसार भारत में भास्कराचार्य की गणना में भी पृथ्वी द्वारा सूर्य की एक परिक्रमा एक साल में पूरा किये जाने का उल्लेख है, लेकिन उपलब्ध सूचना के अनुसार आर्यभट के करीब 600 साल बाद भास्कराचार्य हुए।
आर्यभट ने केवल तेईस साल की छोटी उम्र में एक छोटा ग्रंथ लिखा – आर्यभटीय। यह ग्रंथ उन्होंने कविता में लिखा है। भाषा है संस्कृत। उस जमाने में पंडित लोग अपने ग्रंथ ज्यादातर संस्कृत भाषा में ही लिखते थे।
आर्यभट के जमाने में आज जैसा कागज नहीं था। आर्यभट के जमाने में पुस्तकें भोजपत्रों अथवा ताड़पत्रों पर लिखी जाती थीं। फिर शिष्यगण अपने आचार्य की पुस्तक की कुछ प्रतियां तैयार करते थे। आर्यभट के जमाने में मोटे-मोटे पोथे लिखना कोई बहुत अच्छी बात नहीं समझी जाती थी। कम-से-कम शब्दों में अधिक से अधिक बातें भर देने से ही पंडित की तारीफ होती थी।
आर्यभटीय शुद्ध विज्ञान का ग्रंथ है। इस ग्रंथ में कुल 121 श्लोक हैं। हर श्लोक में दो पंक्तियां। इसका मतलब यह हुआ कि पूरे ग्रंथ में कुल मिलाकर 242 पंक्तियां हैं। आजकल इतनी पंक्तियों को केवल दस पृष्ठों में आसानी से छापा जा सकता है। बस, इतना ही बड़ा है आर्यभट का यह महान ग्रंथ! आज के हिसाब से केवल दस पृष्ठों का ग्रंथ!
अपने इसी ग्रंथ के एक श्लोक में उन्होंने ग्रहणों का वैज्ञानिक कारण बताया है। एक अन्य श्लोक में उन्होंने यह बताया है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। आर्यभट ने अपने इस ग्रंथ में और भी अनेक नयी बातें बताई हैं।
इसी ग्रंथ के एक श्लोक की एक पंक्ति में आर्यभट ने जानकारी दी है कि, वह ऐसे ज्ञान का वर्णन कर रहे हैं जिसका कुसुमपुर यानी पाटलिपुत्र में आदर होता है। इस जानकारी से सिर्फ इतना ही नतीजा निकाला जा सकता है कि आर्यभट ने अपने ग्रंथ की रचना कुसुमपुर में बैठकर की। उन्होंने यह नहीं लिखा कि उनका जन्म कुसुमपुर (पाटलिपुत्र यानी पटना) में हुआ।
एक श्लोक में वे बताते हैं- तीन युग बीत गए थे और उसके बाद साठ वर्षों की साठ अवधियां (3600 वर्ष) गुजर गई थीं, तब मेरे जन्म के बाद 23 वर्ष हो चुके थे।
यहां तीन युगों का मतलब है- कृत, त्रेता और द्वापर। आर्यभट आगे बताते हैं कि चौथे कलियुग के जब 3600 शक वर्ष बीत गए, उस समय मैं 23 साल का था। भारतीय जयोतिषी शककाल का आरंभ 3179 कलि से मानते हैं। इसलिए 3600-3179 = 421 शक वर्ष में आर्यभट 23 साल के थे।
शक वर्ष में 78 की संख्या जोड़ने से ईसवी सन् का वर्ष मिलता है। अतः 421+78 = 499 ई. में आर्यभट 23 साल के थे। अर्थात्, आर्यभट का जन्म 478 ई. में हुआ था।
आर्यभटीय ग्रंथ चार भागों में विभक्त है-
1. दशगीतिका 10+3 श्लोक
2. गणितपाद 33 ,,
3. कालक्रिया 25 ,,
4. गोपाद 50 ,,
… ….
कुल 121 श्लोक
प्रथम भाग में गीतिका छंद के दस श्लोकों (दशगीतिका) में गणित और ज्योतिष की बुनियादी बातें सूत्र-रूप में लिखी गयी हैं। इस प्रथम भाग में तीन श्लोक और हैं। प्रथम श्लोक में, ब्रह्मा की वंदना करने के बाद लेखक कहते है – मैं गणित, कालक्रिया और गोल का वर्णन करता हूं। दूसरे श्लोक में नयी अक्षरांक-पद्धति के नियमों को सूत्रबद्ध किया गया है। अंतिम श्लोक में दशगीतिका के सूत्रों के महत्व को बतलाकर ब्रह्मा को स्मरण किया गया है। आर्यभटीय के शेष तीन भाग – गणित, कालक्रिया और गोल – आर्या छंद में हैं और उनकी कुल संख्या 108 है, इसलिए ये आर्याष्टशत के नाम से भी जाने जाते हैं।
दूसरे भाग गणितपाद में वर्ग-वर्गमूल, घन-घनफल, त्रैराशिक, श्रेढि़यों, क्षेत्रफलों, घनफलों, वर्ग-समीकरण के हल आदि से संबंधित नियम दिये गये हैं। गणितपाद के अंतिम दो श्लोक (32 और 33) महत्व के हैं। इनका विषय कुट्टक है। यह बीजगणित का विषय है। उस समय बीजगणित को कुट्टक के नाम से जाना जाता था। आर्यभट ने इन दो श्लोकों में प्रथम घात के अनिर्धार्य समीकरण का हल प्रस्तुत किया।
तीसरे भाग कालक्रियापाद में 25 श्लोक हैं। इसमें आर्यभट ने काल-विभाजन, युग-पद्धति आदि के बारे में जानकारी दी है।
चौथे भाग गोलपाद में कुल 50 श्लोक हैं। इसमें गोल से संबंधित गणित की चर्चा है। इसमें आर्यभट ने ग्रहणों के सही कारण दिये हैं।
इस प्रकार, कुल 121 श्लोकों का आर्यभटीय ग्रंथ समाप्त हो जाता है। ग्रंथ के अंत में एक श्लोक में आर्यभट कहते हैं – “सत्य और असत्य ज्ञान के समुद्र में सत्य ज्ञान का जो रत्न डूबा हुआ था, उसे मैंने देवता के प्रसाद से बुद्धि रूपी नाव की सहायता से बाहर निकाला है।”
अभी दो सौ साल पहले जब नये सिरे से प्राचीन भारत के गणित और ज्योतिष का अध्ययन शुरू हुआ, तो उस समय विद्वानों को आर्यभट के इस ग्रंथ की प्रति उपलब्ध नहीं थी। अभी कोई सवा सौ साल पहले दक्षिण की मलयालम लिपि में इस ग्रंथ की दो-तीन प्रतियां मिलीं। तभी जाकर हमें और सारे संसार को प्राचीन भारत के इस महान वैज्ञानिक के बारे में अधिक जानकारी मिली। महाराष्ट्र के विद्वान डा. भाऊ दाजी (1822-74) ने केरल में 1864 में नए सिरे से आर्यभटीय की मलयालम लिपि में ताड़पत्र पोथियां खोजीं और उनका विवरण प्रस्तुत किया। उसके बाद आर्यभटीय की और भी कुछ हस्तलिपियां मिलीं और उनका संपादन प्रकाशन हुआ। आर्यभट ने शायद एक-दो पुस्तकें और लिखी होंगी। परंतु वे आज नहीं मिलतीं। उनकी यह आर्यभटीय पुस्तक भी बड़ी मुश्किल से नष्ट होते-होते बच पायी है।
आर्यभट पुरण-पंथी नहीं थे, दकियानूस नहीं थे। उन्होंने अपनी बात खुलकर कही है। और उनकी कई बातें धार्मिक मतों के खिलाफ थीं। शायद इसीलिए बाद में आर्यभट के ग्रंथ को जान-बूझकर भुला दिया गया। दूसरे अनेक बढि़या ग्रंथों की भी ऐसी ही दुर्गति हुई है। (अगला पाठ – आर्यभट – 6 : आर्यभटीय : त्रिकोणमिति, अंकगणित, ज्यामिति)