आर्यभट – 2: हमारा और तुम्हारा ईश्वर कल्पनाजनित है

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आर्यभट – 2
हमारा और तुम्हारा ईश्वर कल्पनाजनित है
दो-तीन महीने पूर्व एक दिन पुराणपंथियों का एक गुट सम्राट बुधगुप्त की राज-सभा में पहुंचा। यह कहने कि आर्यभट अपने ज्ञान से सामाजिक और धार्मिक परंपराओं को चुनौती दे रहा है। अगर उसके मुंह को बंद नहीं किया गया तो एक दिन वह तमाम धार्मिक रीति-रिवाजों और कर्मकांडों के खिलाफ जनता को उकसा देगा। अगर जनता धर्म और धार्मिक कर्मकांड पर सवालिया निशान लगाने लगेगी, तो सोचिये क्या होगा? राजशाही की जमीन हिलेगी और राज-सिंहासन डोलेगा!
लेकिन सम्राट बुधगुप्त ने भरी सभा में अपने पुरखे पूर्ववर्ती मौर्यवंशीय सम्राटों के समय के विमर्श से जुड़ी घटनाएं सुनाकर सबका मुंह बंद कर दिया।
उन्होंने सम्राट चंदगुप्त मौर्य के समय चाणक्य और धर्मशास्त्र के आचार्यों के बीच हुई बहस की याद दिलायी। और पूछा – धर्म को किसने जन्म दिया?
सम्राट बुधगुप्त के सामने नतमस्तक पुराणपंथी विद्वान पहले तो चुप रहे। तब बुधगुप्त ने कहा – “चाणक्य ने चुनौती के स्वर में कहा था कि धर्म समाज द्वारा निर्मित है और नीतिशास्त्र?”
पुराणपंथी विद्वान चुप ही रहे। तब बुधगुप्त ने कहा – “चाणक्य ने कहा है कि धर्म ने नीतिशास्त्र को जन्म नहीं दिया है। समाज को जीवित और गतिशील रखने के लिए समाज द्वारा निर्धारित नियमों को ही नीतिशास्त्र कहते हैं और इस नीतिशास्त्र का आधार तर्क है। धर्म का आधार विश्वास है और विश्वास के बंधन से बांधकर उससे अपने नियमों का पालन कराना ही समाज के लिए हितकर है….।’
इतना सुनने के बाद पुराणपंथी विद्वानों को कुछ साहस हुआ था और उन्हों बुधगुप्त को टोका – “महाराज, हम भी तो यही कह रहे हैं। पाटलिपुत्र में ज्ञानार्जन के लिए अश्मक प्रदेश से आया आर्यभट समाज के विश्वास पर चोट कर रहा है….।”
लेकिन बुधगुप्त हंस पड़े थे – “लेकिन चाणक्य ने केवल इतना ही नहीं कहा था। उन्होंने तो कहा था कि ऐसी भी परिस्थितियां आ सकती हैं, जब धर्म के विरुद्ध चलना समाज के लिए कल्याणकारक हो जाता है और धीरे-धीरे धर्म का रूप बदल जाता है। आप जिस आर्यभट का विरोध कर रहे हैं, कहीं वह ऐसा कुछ कर रहा है, तो राज्यसत्ता उसका मुंह कैसे बंद कर सकती है?”
दरबार में उपस्थित विद्वत्मंडली में निस्तब्धता छा गयी। आर्यभट विरोधी गुट निराश हो गया। लेकिन एक साधु वेषधारी वृद्ध ने ऐसी बात उठा दी कि वह गुट आशा बांधे बैठ गया। उस वृद्ध ने कहा – “महाराज, लेकिन चाणक्य के तर्क को एक युवक योगी ने चुनौती दी थी। यह आपको मालूम होगा ही। उस युवक योगी ने कहा था कि ईश्वर मनुष्य का जन्मदाता है। मनुष्य समाज का जन्मदाता है। धर्म ईश्वर का सांसारिक रूप है, वह मनुष्य को ईश्वर से मिलाने का साधन है। धर्म की अवहेलना, ईश्वर की अवहेलना है, सत्य से दूर हटना है। सत्य एक है, धर्म उसी सत्य का दूसरा नाम है। यदि नीतिशास्त्र धर्म के सिद्धांतों के प्रतिकूल है तो वह नीतिशास्त्र नहीं, वरन् अनीतिशास्त्र है। उचित और अनुचित  – न्याय और अन्याय – इन सबकी कसौटी धर्म है, धर्म के अंतर्गत सारा विश्वास है।”
तब बुधगुप्त कुछ ऊंची आवाज में बोले – “हां, हां, मैंने सुना है। चाणक्य ने उस युवक से सीधा सवाल किया था – जानते हो धर्म को किसने जन्म दिया? युवक योगी ने कहा – ईश्वर ने। तब चाणक्य ने पूछा – ईश्वर को किसने जन्म दिया? इस पर दरबार में उपस्थित विद्वान चकित रह गये थे और जनसमुदाय में कोलाहल मच गया था कि चाणक्य ने कितना भयानक प्रश्न रख दिया! तब भी युवक योगी ने शांत भाव से उत्तर दिया – ईश्वर अनादि है।”
इतना कहकर सम्राट बुधगुप्त कुछ पल के लिए रुक गये। तब पुराणपंथियों के उस विद्यार्थी गुट में फुसफसाहट शुरू हुई, जो पहली बार राजदरबार में आया था। वह गुट धर्म पर अडिग आस्था के बावजूद आर्यभट की विद्वता से चमत्कृत था। इसलिए वह समर्थन या विरोध के मामले में असमंजस में था। वह राज्यसत्ता के रुख पर अपनी दिशा तय करना चाहता था। उस गुट के एक विद्यार्थी ने उठकर बुधगुप्त को नमस्कार किया – “महाराज, आप हमें पूरी बात बतायें। युवक योगी ने कहा कि ईश्वर अनादि है। यह हम भी मानते हैं। हमें जिस धर्म का ज्ञान दिया जा रहा है, उसमें भी यही कहा गया है। सिर्फ पाटलिपुत्र नहीं बल्कि आपके शासनाधीन पूरे देश और समाज में प्रत्येक मनुष्य यह मानता है। यहां तक कि स्वयं आर्यभट भी यह मानते हैं। लेकिन हम जानना चाहते हैं कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य की उपस्थिति में चाणक्य जी ने क्या कहा? क्या उन्होंने युवक योगी की बात का खंडन किया?”
बुधगुप्त ने कहा – “नहीं, चाणक्य ने खंडन नहीं किया। लेकिन उन्होंने पूरे विमर्श को खंडन-मंडन की सीमाओं के पार ले जाते हुए कहा कि ईश्वर अनादि है, पर उस ईश्वर को, मैं दावे के साथ कहता हूं, कोई नहीं जानता – वह कल्पना से परे है। वह सत्य है, पर इतना प्रकाशवान कि मनुष्य के नेत्र उसके आगे खुले नहीं रह सकते। आप भी यही मानते-जानते होंगे। लेकिन मैं इस मान्यता को तर्क की इस कसौटी पर कसना चाहता हूं कि यदि हममें से कोई यह कहे कि वह ईश्वर को जानता है, या यह कहता है कि अखंड और निःसीम अनंत के रचयिता यानी ईश्वर की कल्पना कर सकता है, तो फिर वह ईश्वर कैसा? जो अनंत है, उसकी आदि-अंत की सीमा में बंधी छवि की कल्पना आप कर सकते हैं, कर लें लेकिन उसे तब ईश्वर कैसे माना जा सकता है? इसलिए मैं कहता हूं कि हमारा और तुम्हारा ईश्वर, जिसकी हम पूजा करते हैं, उस ईश्वर से भिन्न है। हमारा और तुम्हारा ईश्वर कल्पनाजनित ईश्वर है। अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ही समाज ने उस ईश्वर को जन्म दिया है।”
इतना कहकर बुधगुप्त ने उठते-उठते कहा – “आर्यभट अगर सृष्टि के रहस्य या अज्ञात तत्वों को ज्ञात के दायरे में लाने का प्रयास कर रहा है तो उसे अनादि ईश्वर की अवधारणा पर टिके हमारे धर्म का विरोध कहकर हम उसका मुंह बंद नहीं कर सकते।” (अगला पाठ – आर्यभट – 3 : दे दान तो छूटे गिरान!)

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