दलित आन्दोलन के राजनीतिक निहितार्थ .

City Post Live

श्रीकांत प्रत्यूष .

एसटी /एसी मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जिस तरह से दलितों का भारत बंद के दौरान सडकों पर नजर आया है ,हर किसी के जेहन में यहीं सवाल कौंध रहा है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ ? सरकार से कहाँ चूक हुई ? और इसका आगामी चुनाव पर क्या असर पड़ेगा ?
इस दलित आक्रोश की वजह सरकार की चूक ही है. जब सुप्रीम कोर्ट में ‘सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र सरकार और अन्य’ मामला आया था और जब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से उसका पक्ष जानना चाहा था तो सरकार ने क़ानून का बचाव करने की जगह एक केस के हवाले से यह कहा कि ऐसे मामलों में अग्रिम ज़मानत दिए जाने में कोई बाधा नहीं है.यह बात क़ानून के प्रावधान के ख़िलाफ़ थी. यहां सरकार के प्रतिनिधि को क़ानून का बचाव करना चाहिए था. सरकार ने दरअसल इस मामले में एससी-एसटी के पक्ष को नहीं रखा, जो देश की आबादी की एक चौथाई है और उनकी आबादी लगभग 35 करोड़ बनती है.ऐसे हालात में सुप्रीम कोर्ट को यह फ़ैसला देना पड़ा कि अग्रिम ज़मानत मिलेगी और चूंकि सरकार कह चुकी है कि फ़र्ज़ी मामले भी होते हैं, ऐसे में अदालत ने कहा कि बिना प्रारंभिक जांच के गिरफ़्तारी नहीं होगी.सरकार की यह पहली और बड़ी भूल थी .
सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद एक आंदोलन की नींव पड़ गई थी और सोशल मीडिया पर इसके ऊपर बहस शुरू हो गई थी .सरकार के अपने ही तीन मंत्रियों और कई सांसदों ने इस मामले में प्रधानमंत्री से मुलाकात और बात की. विपक्ष ने भी राष्ट्रपति से मुलाकात कर विरोध जताया .लेकिन सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया .
तीसरी बड़ी भूल सरकार से ये हुई कि पहले से नियोजित आंदोलन को रोकने के लिए भी कुछ नहीं किया . एससी-एसटी प्रमोशन के मामले की तरह यह मामला भी दब जाएगा,सरकार की इसी सोंच के कारण उससे इस आन्दोलन को नजर-अंदाज करने की भूल हुई .ऊपर से सरकार ने इस मामले में पुनर्विचार याचिका डालकर अपनी गलती पर मुहर लगाकर सबसे बड़ी भूल कर दी .गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के नियमों के मुताबिक कोई भी पुनर्विचार याचिका उसी बेंच में जाती है जिस बेंच का फ़ैसला होता है.सुप्रीम कोर्ट के हर जज को समान माना जाता है और जजों के फ़ैसले तो बड़ी बेंच बदल सकती है या फ़ैसला देने वाले जज ख़ुद रिव्यू कर सकते हैं.अब सरकार ने दबाव में रिव्यू पिटीशन डाली है तो दोनों न्यायाधीशों के सामने दो विकल्प हैं- या तो वे फ़ैसले पर बरकरार रहें या उसे बदलें.दोनों ही स्थितियों में सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता खतरे में पड़ेगी .यानी खुद सरकार ने सही फैसला नहीं लिया और न्यायधीशों को धर्मसंकट में डाल दिया .सरकार चाहती तो पुनर्विचार याचिका की जगह वह खुद अध्यादेश ला सकती थी और उसके बाद संसद में जा सकती थी. वहां राजनीतिक चर्चा होती, सारे पक्ष सुने जाते और एक राय बन जाती.
क़ानून बनाने का मामला भारतीय संविधान के हिसाब से संसद का है. एससी-एसटी एक्ट में व्यवस्था है कि तत्काल गिरफ़्तारी होगी और अग्रिम ज़मानत नहीं मिलेगी.अगर अदालत ने इसे बदला है तो इसे फिर से वैसा करने का काम संसद को अपने हाथ में लेना चाहिए.बाकी ग़लतियां तो ठीक नहीं की जा सकतीं, लेकिन अभी भी अध्यादेश लाकर सरकार अपनी तमाम गलतियों पर पर्दा डाल सकती है.
अब दूसरा सबसे बड़ा सवाल -क्या असर पड़ेगा इस आन्दोलन का भारत की राजनीति पर ?अगर सरकार ये मानकर चल रही है कि इस आंदोलन का उसकी राजनीतिक सेहत पर प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि आंदोलित लोग बीजेपी के वोटर नहीं हैं, तो यह उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल होगी. देश की 131 आरक्षित सीटें और 17% दलित मतदाता बाजी पलट सकते हैं.लोकसभा की 545 सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जाति और 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. इन 131 आरक्षित सीटों में से 67 सीटें भाजपा के पास हैं. कांग्रेस के पास 13 सीटे हैं. इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस के पास 12, अन्नाद्रमुक और बीजद के पास सात-सात सीटें हैं.
इस आन्दोलन के बाद दलितों के बीच जाने ,हिन्दू समाज के बीच समरसता बढाकर और दलितों के हिन्दुकरण के जरिये विराट हिन्दू एकता अपने पक्ष में बनाने की बीजेपी के अभियान की हवा निकल सकती है. उत्तर प्रदेश में मिली अप्रत्याशित जीत के पीछे आरएसएस के दलितों के हिन्दुकरण अभियान की अहम् भूमिका रही है .
केवल बाबा साहेब ज़िंदाबाद के नारे लगाने और उनकी मुर्तिओं -तस्वीरों पर माला पहनाने भर से दलित संतुष्ट नहीं होनेवाले हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बहाने सरकार को एक अच्छा मौका मिला था अपने को दलित हितैषी साबित करने का,जिसे उसने यूं ही गवां दिया है . सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद सरकार इस एक्ट को ठीक करने के लिए अध्यादेश लाकर दलितों के दिल में ख़ास जगह बना सकती थी .
दलित और आदिवासी सामाजिक-आर्थिक रूप से भले ही कमजोर हों, लेकिन उनकी सियासी हैसियत नजरअंदाज करनेवाली बिलकुल नहीं है . राजनीतिक दलों की नजर उन 17 प्रतिशत दलित मतदाताओं पर हमेशा रही है जो उनकी सियासी नैय्या पार लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.हर सीट पर उनकी अच्छी- खासी मौजूदगी है.अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून पर उच्चतम न्यायालय के हालिया फैसले के बाद खड़े हुए राजनीतिक बवाल ने यह साफ़ संकेत दे दिया है कि आगामी चुनाव में इसका असर खूब दिखेगा . बंद का असर उन राज्यों में सबसे ज्यादा देखा गया जहां अगले कुछ महीनों के भीतर चुनाव होने हैं .विपक्ष के सामने दलितों को अपने पक्ष में गोलबंद करने की बड़ी चुनौती है .अगर वह कामयाब होता है तो मोदी सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं.

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