सिटी पोस्ट लाइव : एईएस जैसे बीमारी के कारक में नाम आने के बाद लीची दुनिया भर में काफी बदनाम हो गया था. लीची किसानों को काफी नुकसान का सामना करना परा था, लेकिन लगातार शोध के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि लीची से बीमारी नही फैलती है. इतना ही नहीं लीची किसानों के माथे पर खिंची चिंता की लकीरें भी समाप्त हो गई, तो अब दूसरी ओर मुजफ्फरपुर का लीची अनुसंधान केंद्र लगातार लीची पर अनुशंधान करता रहा है. अब यहां के वैज्ञानिकों के अंदर यह बात ध्यान में आई कि लीची के पेड़ों की कटाई -छटाई के बाद टहनियां जलावन के काम आती है, साथ ही लीची के पेड़ से अब गिरे पत्ते भी चूल्हों में जलाए जा रहे हैं. चूल्हा से निकला धुआं वातावरण को प्रदूषित कर रहा है. अब इन सभी चीजों को ध्यान में रखते हुए मुजफ्फरपुर के कृषि वैज्ञानिकों ने लीची और आम के अवशिष्टों से जैविक खाद बनाने में सफलता हासिल की है. जो बेहद प्रशंसनीय है.
लीची के बागों में गिरे पत्तों, लीची के छिलकों और गुठलीयों और पेड़ों की कटाई छटाई वाले डालियों को एक जगह जमाकर उन्हें मशीन के सहारे छोटे छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है। अब उन छोटे और बारीक टुकड़ों को वर्मी कम्पोष्ट बनाकर उनका उपयोग खाद के रूप में करने लगे हैं। इस खाद का उपयोग अपने बागों में या बाजार में बेचकर कर सकते हैं। लीची और आम के ही उत्पादक किसान पगले यह मानकर चलते थे कि लीची और आम के फल टूट गए और हमारी फसल अब अगले वर्ष ही होगी इस दौरान बाजार से खाद खरीदकर लीची और आमो में डाला जाता था. इन अवशेषों से जैविक खाद बने लगने के बाद अब किसान बाजार से खाद नही खरीदकर खुद के बागों से खाद तैयार कर सकते हैं इस तरह इन किसानों को पैसे की बचत तो होगी ही साथ मे सालों भर जैविक खाद बेचकर आमदनी का एक ठोस जरिया भी बन जायेगा।
विशाल कुमार की रिपोर्ट